Sunday, December 18, 2011

हीर

रांझे और वारिस शाह की
है एक ही हीर ।

हीर से मन लगा बैठा,
रांझे से राकीबी जमा बैठा,
सुख़न का 'वारिस' एक
क्या ज़फर, क्या मीर ।

"होंठ सुरख याकूत जिऊँ लाल चमकण ठोडी सेब वालईती सार विच्चों,
दंद चम्बे दी लड़ी कि हंस मोती दाणे निकले हुसन अनार विच्चों "

सुन लेती जो हीर ये,
सांस गँवा जाती,
रांझे के चेहरे कि सुर्खी,
पल में हवा हो जाती
रांझे कि नज़र से तेज़
हैं वारिस के लफ्ज़-तीर ।

रांझे ने जो जोग लिया,
वारिस ने भी रोग लिया
एक कड़ी का उसका इश्क़
एक कड़ी इसका जुनूं
दोनों की तक़दीर,
जैसे बांधे ज़ंजीर ।

रिवायत है हिज्र की पंजाब में,
जाने कितने आशिक़
डूबे हैं ख़ूबसूरत चेनाब में
इस देस के हर पत्थर पे,
हर आशिक़ की है एक लक़ीर ।
रांझा जिया हीर के वास्ते
वारिस ने तो जी है हीर
हर वर्क से ख़ुशबू आती है
हर हर्फ़ में घुली है हीर ।

राँझा मर के पा गया हीर,
वारिस ने तो जी है पीर
क्यूंकि है एक ही हीर ।
दोनों की है एक ही हीर ।

Friday, December 9, 2011

चार दीवार

दर्द से बचने को,
ख़ुद के चारों ओर,
दीवार बना, छुप बैठा था,
जब देखा के दर्द बगल में ही,
कुर्सी डाले बैठा है,
तो बदहवासी पे आई हंसी
दीवार उठा के बैठ गए,
छत क्या चाचा डालेंगे ?

Thursday, December 8, 2011

कुछ और

कहते हैं फ़र्क मेरे अंदाज़-ए-बयाँ का है,
मगर मैं कहता कुछ हूँ, वो समझते हैं कुछ और ।

न जाने क्या दर्द दफ़्न हैं सीने में,
अश्क़ बहते हैं तो ये सुलगते हैं कुछ और ।

हर लफ्ज़ से इश्क़ छलकता है,
शायद मैं समझता हूँ कुछ और, वो कहते हैं कुछ और ।

दुनिया, रंज, मलाल, इश्क़ को रो लिए बहुत
दोबारा पढ़ो, ये लफ्ज़ कहते हैं कुछ और ।

Friday, December 2, 2011

रंज का रोशनदान

मसर्रत के सौ दरीचे,
रंज को काफ़ी है एक रोशनदान ।

दरीचों पे परदे लगा कर,
मसर्रत को हर कोई मौका देता है,
अन्दर आने की इजाज़त मांगने का,
रोशनदान से रंज, बिन बुलाये आ बैठता है
जाने कौन मेज़बान, कौन मेहमान ।

आज कल तो हम,
छोटे छोटे flats में रहने लगे हैं,
इनमें रोशनदान नहीं होते
अब इजाज़त तो रंज को भी लेनी पड़ती है ।
पर इसके गुरूर का कोई क्या करे?
बाप का राज समझ कर
आदत से मजबूर,
ये बेदस्तक आ बैठता है
कैसे बदले कोई पहचान ?

जिन्होंने ये flats बनाये हैं,
उन्होंने रंज के रोशनदान बंद नहीं किये,
उनके लिए बड़े बड़े दरीचे खोल दिए हैं ।
मगर रंज को तो काफ़ी है एक रोशनदान ।

Opening couplet by Garima.

Sunday, November 27, 2011

1GB

1GB बढ़ गया हूँ मैं।

ग़म, मलाल, मजाल, ग़ुरूर, के साथ साथ
थोड़ी सी जगह मसर्रत को भी मिल जायेगी ।
इस दुनिया के हिसाब से,
अब इस दुनिया को बेहतर समझूंगा मैं
सबसे ऊंचे "एक-आंकड़े" पर आकर अड़ गया हूँ मैं ।
उम्र घटती नहीं,
ज़िन्दगी बढ़ जाती है
बनते बनते इसकी,
एक शक्ल सी बन जाती है
फिर पसंद आये न आये ।
खूबसूरत तो होती है ।

ये उम्र हर साल नहीं बढ़ती
कई सालों में पहली बार
1GB बढ़ गया हूँ मैं ।

Wednesday, September 14, 2011

तखल्लुस

ग़ुमनाम ही रहूँ मैं तो अच्छा ।

नहीं नहीं... उन गहरे उम्दा शायरों सा नहीं हूँ,
जिन्हें ज़माने का इल्म है,
जो जानते हैं के शायर मर कर ही मशहूर होता है,
और ता-उम्र मग़रूर होता है
पर ग़ुमनाम ही रहूँ मैं तो अच्छा ।

किया क्या है जो कोई नाम लेगा मेरा,
नज़्में और क़लाम वर्कात में क़ैद रह जायेंगे,
सारे ख़याल लफ़्ज़ों के तले दफ़्न रह जायेंगे,
यूँ भी किसे फुर्सत है?
किताबों में ही तमाम रहूँ मैं तो अच्छा
ग़ुमनाम ही रहूँ मैं तो अच्छा ।

ख़ुद पर तरस खाने वाला निक्कम्मा नहीं हूँ,
हर शायर सा हूँ, हर कायर सा हूँ,
असलियत का सामना करने से डरता हूँ
पन्नों की स्याही में जीता,
लफ़्ज़ों में झूठी मौत मरता हूँ,
न तो लिखाई पाक़ है मेरी
न तो ख़याल ख़ाक हैं,
और किसी हारे हुए आशिक़ सा,
मेरे आगे का हर रास्ता भी बंद नहीं है
मेरी शायरी में न तो साहिर,
न फैज़, न ज़फ़र, और न ही ग़ालिब है
न कबीर के दोहों वाली बात,
कालिदास से भी, मेरे छंद नहीं हैं
न वक़्त का सताया हूँ,
न बयां न नुमायाँ हूँ,
हर शायर सी, मेरी आँखें भी मंद नहीं हैं
दरअसल बात ये है के,
बड़ा मामूली सा नाम है मेरा, जो मुझे ख़ासा पसंद नहीं है
इसीलिए ग़ुमनाम ही रहूँ मैं तो अच्छा ।

Sunday, September 11, 2011

छत

पक्की छत से
बारिश के पानी की एक बूँद टपकने लगी थी
कई सालों में पहली बार,
बारिशों से मोहब्बत होने लगी थी ।
बूँद से, सारे कमरे में नमी रहती,
सीलन से शिकायत... पर बरसातों के बाद,
साल भर उसकी कमी रहती ।
पिछली बारिश के बाद,
छत को फिर से पक्का कर दिया
इस बरस, बारिश शायद कुछ कम खूबसूरत लगे ।

Sunday, July 31, 2011

भगवान के बिकने का महीना है


Plastic bags से ढके हुए,
हर नुक्कड़, हर गली में,
भगवान के बिकने का महीना है

रंग नए पोत कर, अपने हाथों से तराशा है,
कहीं कहीं तो लगा है मेला,
बच्चे जमा हो कर देखते हैं,
जैसे कोई मस्त तमाशा है,
शाम तक, १५-२० बुत्त बिक जायेंगे,
आज तो दुकानदार बाहर खाना खायेंगे
चौड़ा आज हर कारीगर का सीना है
भगवान के बिकने का महीना है ।

बुत्तों के बीच बैठ कर,
५ वक़्त की नमाज़ पढ़ी है
इंसान की भूख
भगवान से बड़ी है
साल में एक मौका तो आता है
जब भगवान गरीब के काम आता है
हर बुत्त में, इंसान का खून-पसीना है
भगवान के बिकने का महीना है

जहाँ कारीगर का हाथ फिसला,
हाथ-पाँव टेढ़े हो जाते हैं,
अब करें क्या,
इसी बहाने बदले पूरे हो जाते हैं
मिट्टी पानी का घोल जिस कारीगर ने बनाया
उसे पता है ,
किस बुत्त ने कितना जीना है,
भगवान के बिकने का महीना है

११ दिनों में, ऐसा मानना है,
सारे दुःख दूर हो जाते हैं,
साल भर तू हमें डुबोते रहना,
साल में एक दिन,
हम तुझे डुबो आते हैं ।

Tuesday, July 26, 2011

ख्याल

मैं ख्याल हूँ, गुज़र जाऊँगा ।

मुझे किसी और के लिए, छोड़ देगा दिल,
दिमाग भी मुझसे परे हो जाएगा
एक लम्हे सा, एक पल सा, नज़र आऊंगा
मैं ख्याल हूँ, गुज़र जाऊँगा ।

अश्क या मलाल,
जुनूं या जमाल,
कुछ ना मांगूंगा,
कुछ तो देकर, मगर जाऊँगा

वो पल, जिस पल नस-नस मैं रहूँगा,
दिल-औ-दिमाग में बस मैं रहूँगा,
ना सुनूंगा, ना कहूँगा,
क्या पता, किधर जाऊँगा

मेरी तलाश में, आएंगे दो नैन,
पर मेरा क्या ठिकाना,
पर रहूँगा यहीं कहीं,
शायद छिपा, शायद नहीं,
मैं दिखूं या ना दिखूं,
पर रहूँगा यहीं कहीं,
मिलूं या ना मिलूं
चाहूँ भी तो कहाँ मर पाऊँगा
पर फिलहाल,
मैं ख्याल हूँ, गुज़र जाऊँगा ।

Wednesday, July 13, 2011

फिर मिला था Worli वाला दोस्त

"क्यूँ भाई, मुझे बेवकूफ बना कर पेश कर दिया कविता में?"
"खुद हीरो बन गए. जैसे की आप ही को चिंता है.
"डूबते Planes की... ट्रेन के accident की?"

आज सुबह फिर मिला था worli वाला architect
खूब बजायी मेरी.
मैंने कहा -"पर बात तो सही थी मेरी"
यहाँ दुनिया मर रही है और तुझे Delhi Belly की पड़ी है"
तुनक कर कहता है
"हाँ साले! तूने बड़ी बदल दी दुनिया!"
"लिख कर Facebook पर डाल दी कविता
4 comments मिल गए. हो गया खुश?"
मैंने कहा - "मैंने कम से कम इतना तो किया.
कविता तो किसी और चीज़ के बारे में भी लिख सकता था"
कहता है - "हाँ हाँ - अच्छी तरह से जानता हूँ तुझे
तू शायर है पर शायरों सा बेवकूफ नहीं है"
पता है तुझे - लोग क्या पढ़ना चाहते हैं. खैर."
मैंने गुस्सा रोका और कहा - "हाँ तो तूने कौन सा खम्बा उखाड लिया?
Delhi belly का sequel बनने से रोक लिया क्या?"
टट्टी मिलेगी - फिल्मों में, और अखबारों में. क्या कर लोगे?"
थोडा संभला और बोला - "hmmm. बात तो सही है तेरी.
anyway... drink बनाऊं?"
जवाब का इन्तेज़ार किया नहीं उसने
पानी और शराब को मिलता देख कर मुझे कुछ याद आया
मैंने झट से पूछा - "तुझे पता है बिपाशा और शाहिद यार..."
उसने मुझे टेढ़ी नज़र से देखा और बोला
"साले... अब मैं लिखूं कविता?"

Tuesday, July 12, 2011

अखबार पढ़ा?



एक दोस्त ने सुबह सुबह,
बहुत ही गहरे अंदाज़ में पुछा - "यार तूने सुबह का अखबार पढ़ा?"

अगले कुछ ३ मिनट के लिए मैं जैसे किसी और दुनिया में चला गया,
उसके एक सवाल की वजह से,
मैंने कई चीज़ें सोच डालीं,
जैसे चल पड़ी हो ख्यालों की रेल गाड़ी,
सोचा -
"कालका एक्सप्रेस की खबर सुनते ही, जब बेटे ने बाप का Mobile try किया होगा,
तो उसने सोचा होगा की कम से कम घंटी तो बजे"
"अगर इस मलबे में मेरी टांग फँस जाती तो?"
सोचा -
"July में हुए blasts के बाद, जो बंदा coma में था, वो बात करने लगा है
क्या वो अपना जन्मदिन अब इसी महीने में मनाएगा?"
फिर सोचा -
"अगर दो फीट से कोई गोली मार दे मुझे, तो क्या दर्द से बेहोश हो जाऊँगा?
और कभी नहीं उठूंगा? 3-4 गोलियाँ मार दे तो दर्द होगा क्या?"
फिर सोचा
"जब Plane पानी में Crash हो, तो मौत झटके से होगी या डूब कर?"
"Taj के सामने फिर गाडियां चलेंगी. इसी महीने में ये करना, आखरी बदला है?"

मुझे ख्यालों में खोया देख कर, वो बोला,
"मैंने पूछा - सुबह का अखबार पढ़ा? Delhi Belly का भी sequel बन रहा है.
बताओ यार - एक बार हग कर काफी नहीं हुआ क्या? "
मैंने कहा - "तो इसके लिए तुझे इतनी tension क्यूँ हो रही है?"
कहता है - "नहीं यार... ये generation कहाँ जा रही है?"
मैंने उसे देखा - 24 साल का architect, worli में पुश्तैनी घर है.
मैंने कहा - "हाँ यार सही बात है, ये generation कहाँ जा रही है."
कहता है - "चल यार छोड़, हम और कर भी क्या सकते हैं...
एक Drink और बनाऊं?"

Saturday, July 9, 2011

मैं अकेला होता गया

जितना अजब दुनिया का ये मेला होता गया, मैं अकेला होता गया

उम्र जुआरी निकली,
इसकी पूरी तैय्यारी निकली,
खुश था मैं बादशाही से,
इसकी इक्कों से यारी निकली,
जब आखरी हाथ, मेरा पहला होता गया, मैं अकेला होता गया

दिल ने भी तो साथ न दिया,
हाथ बढ़ाया, हाथ न दिया,
उम्मीद ही थी, उम्मीद रही,
चाँद न था, पर ईद रही
मेरा दिल से, दिल से मेरा,
जब जब झमेला होता गया, मैं अकेला होता गया

तजुर्बों में घाव ढूँढे,
मुखौटों में भाव ढूँढे,
क्या नाम दोगे उसको,
जो धुप को सर-ए-छाँव ढूँढे
पानी से जब धुल धुल कर,
पानी से मैला होता गया, मैं अकेला होता गया .

कलम हाथ में रह गयी,
बदज़ुबान! किस्सा कह गयी,
सच तो था बस एक मगर,
उस सच की थीं वजह कई
शायद इसी वजह से उजला सच, मटमैला होता गया, मैं अकेला होता गया

दुनिया से यारी कब थी,
मुझे में तलबगारी कब थी
वो तो बेखुदी का ज़ौक चढ़ा था शाम से,
वरना महफिलों से यारी कब थी,
दिन-ब-दिन, महफ़िल महफ़िल, मेला-दर-मेला होता गया
मैं अकेला होता गया
मैं अकेला होता गया

Thursday, July 7, 2011

छायावाद
एक सदी बीत चुकी है छायावाद को बीते
न तो आजकल इस में कोई नए कवि आये हैं, और न ही अब पहले के कवियों की बात होती है. क्या आप सब में से कोई है जो छायावाद में लिखता है? आपका क्या सोचना है छायावाद के बारे में ?

हम न होंगे

कल शायद ये ग़म न होंगे,
मगर कल शायद हम न होंगे ।

ये ख़लिश, ये दर्द, ये रंज के मौसम न होंगे
मगर कल शायद हम न होंगे ।

उम्मीद, ख्वाहिशों के ये सिलसिले, ये जश्न-ए-मातम न होंगे,
मगर कल शायद हम न होंगे ।

इश्क, हसरत, परस्तिश - ये सारे मरहम न होंगे,
मगर कल शायद हम न होंगे ।

ये तन्हाई, ये रुसवाई, ये ग़मज़दा महफ़िलें, ये आलम न होंगे,
मगर कल शायद हम न होंगे ।

आँखों में अश्क़ भर कर, वो गए हैं कह कर - "के कल हम न होंगे"
मगर कल शायद हम न होंगे ।

Monday, July 4, 2011

अँधा कुआँ

गुफ्तुगू तूने सिखाई है, मैं तो गूंगा था,
अब मैं बोलूं तो बातों में असर भी देना । - Traditional lyrics from a Hans Raj Hans Song

अंधे कुँए में छिप बैठा रहूँ,
ठन्डे पानी सा ही ठंडा रहूँ,
रात हो तो अब्र अँधेरे में मिल जाएँ,
गूंगा नहीं रहा तो क्या,
अच्छा है अँधा रहूँ
मुझे इश्क़ नहीं आता तो मर जाता,
इस अंधे कुँए में मेरा अपना शेहर भी देना ।

कुँए की इक दीवार पर,
एक दिन की एक रेखा है,
कितने हुए ख़ुदा जाने,
अँधेरा है, कहाँ देखा है ?
तेरी नज़र का एहसास है मुझे,
मैं जानता हूँ, तू मुझे लेकर परेशान है,
इल्म धड़कन का है तेरी,
जानता हूँ, मुझ सा तू भी बेजान है
गुल नहीं तो न सही,
उम्मीद की एक शजर ही देना

सांसें बख्शी हैं, तेरा दम भरने के लिए,
तो दुआ तो कर,
इस बेक़रारी को कम करने के लिए,
उम्र मेरी इन अंधेरों में आ सिमटी है,
मुझसे ये बे-नूरी आ लिपटी है,
अब हर दिन रात रहती है,
मरी आँखों को बस तेरी ताक रहती है
जल गुजरी है हर हसरत,
राख़, राख़, राख़, राख़ रहती है,
ये मैं हूँ इस अँधेरे कुँए में,
या मेरी ख़ाक, ख़ाक रहती है
जाँ के निकलने का कोई सबब ही देना,
नहीं तो बस एक मुट्ठी सबर ही देना ।
इस अंधे कुँए का मुंह बंद कर दे,
यहीं अन्दर, मुझको मेरी क़बर ही देना ।

The traditional lyrics are very romantic and very positive। My interpretation is very different from the original. It changes the mood of the couplet. Well.

Friday, July 1, 2011

मोड़ पर एक पेड़ है

जब घर से निकलता हूँ, तो रोज़ देखता हूँ,
पास वाले मोड़ पर एक पेड़ है, सूखा सा,
दो एक दिन में गिर जाएगा शायद ।

पत्ते न रहे, न कोई घोंसला,
उजड़े दयार में किसका बसेरा?
सब छोड़ भागें हैं उसको,
रंग बदल कर, खुद ज़मीन सा दिखने लगा है आज कल,
दो एक दिन में गिर जाएगा शायद ।

हरा था तो मैंने कभी उसे देखा नहीं था,
आज सूखा है, तो सबसे अलग नज़र आता है
हर बार उस मोड़ से गुज़रते,
मेरा ध्यान उसी पर जाता है,
येही सच है शायद,
वक़्त-ऐ-नज़ा पर ही उम्र की पहचान होती है,
और खुद अपनी पहचान बनती है
शरीर गवाही देता है,
जो कुछ सहा और देखा है
दो एक दिन में जब, उस मोड़ से गुज़रुंगा,
तो सर ढक लूँगा,
थक कर लेटा हुआ मिल जाएगा शायद,
पास वाले मोड़ पर एक पेड़ है, सूखा सा,
दो एक दिन में गिर जाएगा शायद

दौर

एक दिन था, जब वो दौर हुआ
एक दिन है, अब तो दौर नया

Wednesday, June 29, 2011

मैं भी तेरे जैसा हूँ

Opening Line from a Ghulam Ali ghazal

अपनी धुन में रहता हूँ, मैं भी तेरे जैसा हूँ ।


तू मुझ सा हो गया, और मैं मेरे जैसा हूँ ।
रह रह कर इन स्याह रातों में
रह-रह नूर से डरता हूँ ।
नुमायाँ और बयां का फ़र्क मिट गया,
जैसा हूँ, मैं कहता हूँ ।
ज़माना तो छोड़ दूं, पर ज़माना छूटे कैसे,
कोई महफ़िल ये नहीं, के कह दूं - 'अच्छा चलता हूँ '।
इस दुनिया को इश्क़ की पहचान, आशिक़ों से बेहतर है
बहुत क़रीब से दुनिया देखी है, तो कहता हूँ ।
बेशक्ली, बेख़याली, बेख़ुदी,
मैं बस मेरे जैसा हूँ ।
अपनी धुन में रहता हूँ, मैं भी तेरे जैसा हूँ
तू मुझसा हो गया, और मैं मेरे जैसा हूँ ।

Saturday, June 25, 2011

शायर की ज़िन्दगी

क़र्ज़ की ज़िन्दगी, शायर की ज़िन्दगी ।

एक मुट्ठी मायूसी,
दो दाने मुफ़लिसी,
जाम भर मसर्रत,
दो पल हसरत,
किसी की दवा, किसी के मर्ज़ की,
क़र्ज़ की ।

नाम का लहू,
ना-काम का ग़ुस्सा,
लफ्ज़ का गुरूर,
बेख़ुदी का सुरूर,
अश्क, उन्स, मन्नत,
दोज़ख़, जन्नत,
ख़्वाब, ख्वाहिश, ख़लिश,
दर्द की तारीख़ जो किसी ने दर्ज की,
क़र्ज़ की ।

जो 'बाक़ी' रह गया,
उस में उम्र काट ले,
बड़ी आसानी से,
ख़ुशी से भी ग़म छाँट ले ।
उम्र से कब्र,
बेसब्र है बेसब्र,
बेज़ार भी बेदार भी,
कुछ ले लिया हर किसी से,
मिला लिया अपनी ख़ुदी में,
सुख़नवर है, दर-बा-दर है,
बहुत खुश-बद-नसीब है,
ख़ुदा का रक़ीब है
ख़ुद से परे,
हर किसी से क़रीब है ।

ख़ुश है, जब बदनाम है,
ख़ुश है, जब ग़मज़दा,
जब है फ़ना, या है फ़िदा,
जब भरा हो पैमाना,
और जब ख़ाली हो मयकदा
इश्क़ है हर किसी के खले से
अपनी कमी मिटा ले,
हर किसी के खले से,
मतलबी है, मासूम नहीं,
मग़रूर है, महरूम नहीं ।
अशआरों में हिम्मत,
हौंसलों के किस्से,
बातें,
मुहब्बत, उसूल, कायदों की,
बातें, बस बातें
किसी से जज़्बात, किसी से हालात,
किसी से चुरायी कहानी फ़र्ज़ की
शायर की ज़िन्दगी, क़र्ज़ की
कायर की ज़िन्दगी
शायर की ज़िन्दगी ।

Friday, June 24, 2011

मिर्ज़ा

चल मिर्ज़ा औथे चलिए, जित्थे सारे अन्ने,
मैं बस आंखां ना तेरा, तूं बस मेरी सुन्ने ।

Thursday, June 23, 2011

महजबीं


महजबीं

पैमानों से देखी दुनिया,
हमेशा रंगीन रही,
उसकी नज़र में,
किसी के चेहरे की सुर्खी कम न हुई
मगर येही रंग ले डूबा ।

किसी के चले जाने के बाद,
उसके 'गुनाह' भी हर कोई,
'दिलेरी' की तरह देखता है
बेवजह की हसरतों में,
बेवजह ही वजह देखता है ।
गुनाह, ग़म, मलाल, मुहब्बत,
खला, ख्वाहिश, इंतज़ार, दिलेरी
महजबीं ।

जब ख़ुद ही अधूरे रहे,
तो लफ़्ज़ों का क्या कुसूर,
मगरूर भी, मजबूर भी,
हुए भी तो क्या मशहूर
मंज़ूर, न-मंज़ूर, फिर मंज़ूर,
हुए भी तो क्या मशहूर,
एक ख़ाली पैमाने सी ज़िन्दगी में,
जाने क्यूँ दुनिया रंग भरने पर तुली है,
इस किताब के सारे वर्क़ ख़ाली हैं,
उतनी बंद, जितनी खुली है
पर शायद दुनिया को सुलझानी ये पहेली है,
क्यूँ इतना ख़ूबसूरत था ये सुरूर
इन्ही लोगों ने खोला है ये बाज़ार
हुए भी तो क्या मशहूर ।

लुत्फ़ तो आता है बेलुत्फ़ी से,
वरना जहाँ में किसी को क्या किसी से,
अच्छा किया,
सुफेद और स्याह से परे रखी ये दुनिया
अच्छा किया,
भरे पैमानों से तकी ये दुनिया ।

भला बुरा, सच-झूठ, इश्क़-वजह,
दुनिया देखती रही,
रिश्तों का चश्मा चढ़ा कर,
पैमाना या साक़ी,
जब जी चाहा,
छू लिया हाथ बढ़ा कर
चंद लम्हों के लिए,
बेबसी के लम्हे डुबो दिए,
उन डूबे लम्हों में, मलाल मिला कर,
पी लिया... ज़हर बना कर ।

बेख़ुदी को कमज़ोरी कहता है,
क्यूंकि आधा ज़माना इससे दूर रहता है
बेख़ुद ख़ूबसूरती में कितना ज़ोर है
कौन जाने ।
बेख़ुदी, मयकशी,
महजबीं ।

महजबीं means Beautiful, moon-like in Urdu, while it means 'Strong' in Arabic. Meena Kumari's (1932-72) real name was Mehjabeen Bano.

मुझे से क्यूँ मिल गयी मैं

ये मुझ से क्यूँ मिल गयी मैं ।

सवालों में उलझी,
ख्यालों में उलझी थी, तो बेहतर था,
खुश थी, बोलती थी,
थी बस थी ।
मगर कब, नहीं रही मैं,
ये मुझ से क्यूँ मिल गयी मैं ।

अजनबी से हमेशा से परहेज़ था,
ऐसा भी नहीं के, ये तूफाँ कुछ तेज़ था,
ऐसा भी नहीं के दुनिया एकाएक चलने लगी,
ऐसा भी नहीं के एकाएक रह गयी खड़ी मैं ।

कभी कोई ऐसा इंतज़ार नहीं था,
मगर ऐसा भी नहीं के,
इंतज़ार नहीं था,
तलब क्या है ये कोई नहीं पूछता,
तलब क्यूँ है, ये सब पूछते हैं
नादान हैं, बेसबब ख्वाहिशों का सबब पूछते हैं
काफ़िर हैं, आयतों का मतलब पूछते हैं
जाने किस से मैं क्या कह निकली ।

जब वक़्त आ जाए तो देखो क्या बाक़ी रह गया
उम्र में ये न देखो के क्या कितना किया है
कितना पल पल मरा देखो और बोलो,
कौन कितना जिया है
ख़ाली पैमानों को छोड़ो, आँखों में देखो,
जुनूँ कितना पिया है ।
जलती मय में बेवजह मैं बर्फ़ पिघली ।

क्या इस मोड़ पर बेवजह ही आ गयी हूँ?
या ये कोई मोड़ ही नहीं,
सीधे रास्ते की वो जगह है,
जहाँ से आगे की राह दिखती नहीं
जो भी है, ख़ूबसूरत है,
और अगर ख़ूबसूरत नहीं भी है,
तो क्या फ़र्क पड़ता है ?
आगे रास्ता न भी हुआ,
तो क्या फ़र्क पड़ता है ?
आगे वास्ता न भी हुआ
तो क्या फ़र्क पड़ता है ?
क्या फ़र्क पड़ता है के हक़ीक़त से छिल गयी मैं
ये मुझ से क्यूँ मिल गयी मैं ।

इस बार नहीं बदली मैं,
इस बार नहीं हिली मैं,
इस बार हूँ वही मैं,
इस बार रही नहीं मैं,
बस जैसे उपरी सतेह निकली,
वही रही खड़ी पर,
तिनके की तरह मैं बह निकली ।

Tuesday, June 21, 2011

साहिर


अब साहिर कहाँ रहते हैं ?

शायर को उम्र से यूँ भी क्या चाहिए,
इश्क़, ग़ुरूर और मजाल काफ़ी है,
कलम पकड़ने को दो उँगलियाँ,
ज़ौक-औ-क़माल काफ़ी है ।
ज़िन्दगी के तजुर्बे तो स्याही बन ही जाते हैं
मसर्रत इतनी नहीं, एक मलाल काफ़ी है ।

कौन मानता है ख़ुदा इश्क़ को?
कौन कहता है के इश्क़ में हौंसला होता है?
इश्क़ कमज़ोरी है 'साहिर'
हर आशिक़ मायूस-औ-मजबूर है,
वरना हर इंसान क़ायर नहीं होता
हर आशिक़ शायर होता हो शायद,
मगर आशिक़, हर शायर नहीं होता ।
हर शायर, शायर तो होता है लेकिन,
हर शायिर साहिर नहीं होता ।

ऐसा ही है लफ़्ज़ों का कारोबार,
नुख्सान या नफा नहीं होता,
ख़ुदा न समझा अब तक,
शायर उस से कभी ख़फ़ा नहीं होता,
उसका गिला तो इंसानों से है,

न ज़मीं पर न फ़लक पर,
मौसिक़ी तो रह जायेगी हवा में,
उसका पता ठिकाना नहीं होगा,
दुनिया तो रह जायेगी,
मगर वो ज़माना नहीं होगा,
अब उनकी गली से, आना जाना नहीं होगा,
चर्चे होंगे, किस्से होंगे, हिस्से होंगे जिसके,
अब वो फ़साना नहीं होगा ।
अब वो अफ़साना नहीं होगा ।

उम्र को समेट कर रख देने को
एक अशआर काफ़ी है,
दर रहा न रहा,
मकाँ रहे न रहे,
चैन से सोने को, एक मज़ार काफ़ी है
चैन से सोने को एक मज़ार काफ़ी है ।
ता-उम्र और सदियों में जो न हो सका कभी,
वो उनके जाने के बाद हो गया,
उनकी जगह किसी और ने ले ली,
पता नहीं इस बात पर वो क्या बात कहते हैं ?
एक ख़त लिख कर ये बात उनसे पूछनी है,
मगर लिफ़ाफ़े पर, पता क्या लिखूं, कहाँ रहते हैं ?

Sahir was buried at the juhu Muslim cemetery. His tomb was demolished in 2010 to make space for new bodies.

Monday, June 20, 2011

5km लम्बी गुफ़ा

5km लम्बी गुफ़ा के मैं बीचोंबीच रुक गया ।

गुप्प अँधेरा दोनों तरफ था,
मौसम जैसे बरफ था,
इतने अँधेरे में क्या पता,
मुंह से धुआं निकल तो रहा होगा ।
अब यहाँ कुछ मुझे हो जाए तो,
सब कुछ कितना आसान रहेगा,
दूर तक कोई नूर नहीं,
नज़र कुछ आता कहाँ,
क्या ग़लत? क्या सही?
अँधेरा मुंह खोल कर,
मेरे चेहरे पर झुक गया,
5 km लम्बी गुफ़ा के मैं बीचोंबीच रुक गया ।

यहाँ रहूँ तो कितने दिन रहूँगा,
मान लो, न कोई गाडी यहाँ से गुज़रे,
न कोई रौशनी आये यहाँ,
हफ्ता दस दिन?
महीना भर ज़्यादा से ज़्यादा ।
नहीं, आत्महत्या का इरादा नहीं है,
न ही इस कायरता की हिम्मत है मुझ में,
पर सारे फ़र्क मिटाना चाहता हूँ ।
महीना भर ज़्यादा से ज़्यादा,
फिर तो चलने फिरने की ताक़त भी नहीं रहेगी,
बाहर निकलने ही हसरत तो भूखी मर ही जायेगी ।
अच्छा है, फिर कोई चारा ही नहीं रहेगा,
ऐसे काले कल की उम्मीद में,
5 km लम्बी गुफ़ा के मैं बीचोंबीच ही रुक गया ।

अब की बार ये जांच भी हो जाए,
की किसी इंसान का क्या हो सकता है,
महीने भर के बाद भी मैं अगर नहीं मारूंगा,
तो अँधेरे से फिर कभी नहीं डरूंगा,
दुनिया इतनी ज़्यादा अभी देखी नहीं,
कहने को अभी तजुर्बा भी इतना नहीं,
पर सोचा अब कुछ दिन,
अँधेरे में ही रहना चाहिए, इसी लिए
5 km लम्बी गुफ़ा के मैं बीचोंबीच रुक गया ।

Sunday, June 19, 2011

ख़ैर

ये बादल उड़ कर कहाँ जाते हैं ?

हल्की हल्की बारिश हो रही थी
मैं बैठ कर इंसानों की कीमत लगाता रहा शाम भर,
कुछ महेंगे पड़ गए, कुछ मेरी औकात में थे,
कई रिश्ते भी नाप रहा था
कुछ उधड़ रहे थे, और कुछ में गाँठ पड़ गयी थी,
कुछ अब मुझे नहीं आते, छोटे पड़ने लगे थे,
कुछ शायद ज़्यादा गहरे लगने लगे थे,
कुछ शायद कम ठहरे लगने लगे थे
अधूरे छूटे रास्तों की दुहाई देनी जब बंद की,
तो शायद दो पल को सांसें भी थोड़ी मंद की,
और सोचा - ये बादल उड़ कर कहाँ जाते हैं ।

जिस मोड़ पर मैं खड़ा था,
आगे काफ़ी रास्ता पड़ा था
पर जाता कहाँ था, क्या पता?
पीछे यूँ तो कभी मैं देखता नहीं,
क्यूंकि गुज़रा हुआ पल 'सच' होता है
बदला नहीं जा सकता,
तो देखने का फायदा क्या था, क्या पता?
और यूँ भी ख़ुशी से ज़्यादा ग़म याद रहते हैं
और सोचो तो लगता है,
जहाँ कल खड़े थे, वहीँ खड़े हैं
तो सालों आगे बढ़ा कहाँ था, क्या पता?
मर के कोई गढ़ा कहाँ था, क्या पता?
पर सोचो तो - ये बादल उड़ कर कहाँ जाते हैं?

गिरा था, तभी तो उठा था,
ग़लत था, तभी तो सही था
तजुर्बे का अभिमान क्यूँ होता है,
तजुर्बा तो सिर्फ़ ग़लतियों से होता है,
पर इंसान को अभिमान का बहाना चाहिए ।
मैं जहाँ हूँ, शायद कोई मेरी जगह होना चाहता होगा,
जिस बात पर मैं हँसता हूँ,
वो उसी बात पर रोना चाहता होगा,
पर वो वहीँ है, और मैं भी यहीं हूँ,
पता नहीं यहाँ से - ये बादल उड़ कर कहाँ जाते हैं ?

कहाँ क्या कमी है?
कहाँ क्या नहीं है?
मैं क्या तलाश रहा हूँ?
ज़्यादा खुश? या ज़्यादा उदास रहा हूँ?
इतने लोग, रात, रोज़ घर जाते हैं?
क्या कभी कुछ काफ़ी होगा?
किसने आखिर पहना है चोगा?
हर मोड़ से आगे, क्या रास्ते कहीं ले जाते हैं?
या सालों बाद भी वहीँ छोड़ आते हैं ?
ये बादल उड़ कर कहाँ जाते हैं?
ख़ैर ।

Wednesday, June 15, 2011

ये दुनिया ये महफ़िल

ये दुनिया, ये महफ़िल मेरे काम की नहीं ।
न मैं समझ पाया इसे
न ये समझी ।
ये मुझे ढूँढती रही,
मैं इसे ।
जब अशआर कहीं निकलेंगे मेरे,
जब ज़िक्र होगा भूले से,
तो अश्क दो भी काफी होंगे,
दो अश्कों में हिसाब सारा हो जाएगा,
जी ली जितनी जीनी थी,
जो न जी, वो नाम की नहीं
ये दुनिया, ये महफ़िल मेरे काम की नहीं ।
मेरे नाम के नीचे बस जगह खाली रख देना,
अलफ़ाज़ कहीं किताबों में कैद रख देना
आना न पड़े तो अच्छा, पर दुबारा यहाँ आया तो,
नाम के नीचे की खाली जगह से पहचान लूँगा,
जगह रहेगी, खाली जगह की, मेरे नाम की नहीं
ये दुनिया, ये महफ़िल मेरे काम की नहीं
उम्र की सरहद तो तय है, पर तमाम की नहीं ।
लफ्ज़ मेरे पढ़ कर कोई न रोये तो बेहतर,
कद्र रहे उम्र की, अंजाम की नहीं ।
इस दुनिया में, दुनिया तलाशता रहा,
मिल गयी तो परेशान हूँ,
मैं न मिलूंगा, क्यूंकि मैं नहीं हूँ,
न ये परेशान थी, न होगी,
मुझ सा कोई मिल जाए तो याद तो आएगी,
मेरे जाने के बाद तो आएगी
हर लफ्ज़ में रह जाऊंगा,
मैं भी तो इसके अब कुछ काम का नहीं
और ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहीं ।

Sunday, June 12, 2011

शिक़ायत

शिक़ायत अंधेरों से क्यूँ हो, ये नूर से लड़ते हैं
शिक़ायत नूर से हो, जिससे अँधेरे बनते हैं

Friday, June 10, 2011

Signal पर एक लड़का मिलता है

Signal पर एक लड़का मिलता है,
ग़म बेचता है ।

अखबार में लपेट कर,
सुर्ख़ खूँ से दीखते हैं हु-ब-हु
पुरानी मुस्कुराहटों की याद दिलाते हैं
तो ज़ाहिर है, आज के ग़म हैं,
पता नहीं कोई उसे क्यूँ,
दो थप्पड़ रख के नहीं देता,
जिस दाम पर लोगों ने बाज़ार से उठाया है,
उस से भी कहीं कम बेचता है
Signal पर एक लड़का मिलता है,
ग़म बेचता है

Signal पर एक लड़का मिलता है,
ख़ुशी बेचता है ।
सुनहरी धूप सी मुस्कुराती,
सुर्ख़ - होंटों सी,
हंसी से बनी, हंसी
किसी भी गुस्से की दवा
एक मुट्ठी मेहेकी हवा,
एक इज़हार,
एक इंतज़ार की ज़िन्दगी,
१० रुपये में जैसे,
एक आशिक़ की आशिक़ी
एक शायर की मौसिक़ी बेचता है
Signal पर एक लड़का मिलता है,
ख़ुशी बेचता है ।

Signal पर एक लड़का मिलता है,
उम्मीद बेचता है ।
शायद कभी, भूले से,
एक १० का नोट इतना काम आ जाएगा,
उम्र के सारे मायने ताज़ा कर जाएगा,
शायद इनकी परछाई,
उसकी आँखों को किसी दिन सियाह कर देगी,
शायद कभी, उसकी आँखों में
मेरा अक्स नज़र आएगा,
किसी दिन शायद,
मेरी जुबां की भाषा में इनका स्याह रंग भर जाएगा,
अमावस्या की रात में जैसे,
फ़रेब-ऐ-ईद बेचता है,
Signal पर एक लड़का मिलता है,
उम्मीद बेचता है ।

Signal पर एक लड़का मिलता है,
याद बेचता है ।
उसके चेहरे में भी एक मलाल सा रहता है,
शायद उसने भी खोया हो कोई,
उस दिन से ही शायद ये काम कर लिया उसने,
इतनी सुर्खी किसी के जाने के बाद ही नज़र आती है,
काली-उजली ज़िन्दगी में रंग भर जाती है,
हर साल, मेरी हर बात, उस तक पहुंचाती है,
क्यूँ गया वो? रंग सारे ले गया वो?
अब जैसे उसी का है ये रंग,
जो कोई उसके जाने के बाद बेचता है ।
Signal पर एक लड़का मिलता है,
याद बेचता है ।

आज बहुत मुद्दतों बाद मैं घर से निकला,
तो एक ख्याल, याद आया,
सोच में खोया सा मैं, जब उस Signal पर आया
तो याद आया,
इसी Signal पर एक लड़का मिलता था,
फूल बेचता था ।

Saturday, June 4, 2011

तू बन्दा, मैं ख़ुदा

चल अब तक जो खेल हुआ, अब बहुत हुआ,
आज से तू बन्दा मेरा, मैं तेरा ख़ुदा ।

चल भाई, अब बना Plans,
बना अपना सही और ग़लत,
फिर कर फैसले,
और बोल के ये फैसला तेरा है,
अब तू मत मान के मैं हूँ,
अब तू भी सोच के ऐसा तेरे साथ ही क्यूँ हुआ
आज से तू बन्दा मेरा, मैं तेरा ख़ुदा

लगा मंदिरों के चक्कर, या पढ़ नमाज़,
अब कर ढकोसले,
मान रीति-रिवाज़,
अब तू डर मुझसे,
अब तू मर मुझसे,
अब अपनी मेहनत की कमाई का हिस्सा,
तू मुझ पर लुटा,
अब तू याद रख, कोई है जो है सच-झूठ से बड़ा,
आज से तू बन्दा मेरा, मैं तेरा ख़ुदा

अब हर निवाले के पहले तू नाम ले मेरा,
अब जन्नत और जहाँनुम का फ़र्क
तू अपने दिमाग़ में बना,
अब मेरा नाम ले कर,
तू जान ले किसी की,
अब मेरा नाम ले कर,
तू मेरा काम कर,
चल अब बहुत हुआ ये खेल,
अब मैं तुझे दो रास्ते दिखाऊँगा,
और फिर सोचने की ताक़त छीन लूँगा
फिर भी चुन लेगा जब तू एक को,
तो दूसरे रास्ते को सही कर दूंगा,
और तेरे सोचने की शक्ति लौटा दूंगा,
फिर सोचना के रास्ता तो तूने चुना था,
फिर पछताना और मेरा नाम लेना,
फिर मैं बोलूँगा - तू ग़लत रास्ते पर है, अब भी संभल जा बन्दे,
फिर तू कहना
अब तेरा ही आसरा है, मुझे बचा ले ऐ ख़ुदा ।
अब तब बात करेंगे,
जब तू बंदगी से हार जाएगा
और मेरा खुदाई से मन भर जाएगा ।

Friday, June 3, 2011

10 December 1998

60 Second के लिए सोचो,
अगर 10 December 1998 को मैं मर जाता तो ?

मेरी सारी गलतियाँ माफ़ हो जातीं न ?
तब क्या पूछते मुझसे?
क्या शिकवे करते?
सच और झूठ के फ़रेब में ज़िन्दगी निकाल लेते ?
कुछ भी हो, मुझे तो नहीं कोसते ।
हर किसी ने कभी न कभी,
मौत के बारे में सोचा होगा,
पर मैं तो चला ही गया था,
उन २ दिनों के बाद लौट कर न आता तो?
अगर 10 December 1998 को मैं मर जाता तो ?

आज मेरी आदत है,
मेरे प्यार की आदत है,
इतनी के, शायद अब आदत सी नहीं लगती,
मेरे होने की,
मुझसे बात करने की,
बैठ कर उन २ दिनों पर रोने की, आदत है
इतनी के, शायद अब आदत सी नहीं लगती
मेरी परवाह की परवाह है,
मुझे पाने के एहसास से प्यार है,
मुझे खोने का डर,
मेरा ध्यान खींचने की कोशिश है,
मुझसे रूठने को हर कोई तैयार है ।

मुझ में कमियां हैं, ग़लतियाँ हैं,
मेरा गुस्सा बर्दाश्त नहीं होता न?
शायद प्यार भी है मुझसे... शायद ।
पर शिकायतें हैं
मेरे होने की वजह से, शायद कहीं एक कमी सी भी है
मेरे वक़्त के लिए मुझी से लड़ाई भी है
मेरा होना काफी नहीं किसी को ।
शायद हम इंसानों का खेल ही ऐसा हो
किसी का होना काफी नहीं,
उसके होने से उम्मीद का घेरा और बढ़ ही जाता हो
पर अगर 10 December 1998 को मैं मर जाता तो

कौन इतना ख़ास महसूस करवाता?
कौन हमेशा अपने पास बुलाता?
किसके पास आ कर,
हर ग़म का असर कम हो जाता?
किस पर अपने हक का ग़ुस्सा जताते?
किस पर ग़ुस्से का हक बन जाता ?
किसके बारे में बात कर, कहते - "बदल गया है?"
किसकी हमेशा कमियां गिनाते?
किसके प्यार पर फ़ैसले सुनाते?
किसके फ़ैसलों को ग़लत बताते?
किसे धोखा देते? लौट कर किसके पास आते?
किसे धोखा देते? लौट कर किसके पास आते?
किसके पास आ कर, सारे ग़लत सही हो जाते?
किस से उम्मीद लगाते?
किस पर हक़ जताते?
सोचो... क्या ऐसा मिल जाता कोई और?

उस वक़्त की दुआ थी, इसी लिए आज हूँ मैं
ये तो पता है की जब मिल गया, तो क्या हुआ
60 Second के लिए सोचो,
अगर 10 December 1998 को मैं मर जाता तो ?

वैसे तो पहले ज़िंदगी, फिर मौत का डर होता है ।
जहाँ तक मेरा सवाल है
मैंने तो ज़िंदगी उल्टी जी है,
मौत से मिल कर ही ज़िंदगी शुरू की है,
इसी लिए शायद सब कुछ उल्टा देखता हूँ मैं ।
मुझ में... मेरे प्यार में... मेरे होने में...
कमियां हैं भी, और नज़र भी आती हैं ,
और शायद खूबियों से ज़्यादा निकाली भी जाती हैं,
उम्र पड़ी है ये करने के लिए,
पर सिर्फ - 60 Second के लिए सोचो,
अगर 10 December 1998 को मैं मर जाता तो ?

मैं हूँ - ये काफ़ी नहीं,
आपने जैसा चाहा और सोचा वैसा मुझे बनाना चाहते हो
पर 60 Second के लिए सोचो,
अगर 10 December 1998 को मैं मर जाता तो ?

मुझे ख़ुदा न बनाओ, मुझे कोई ख़ास न बनाओ,
बस इतने सवाल न उठाओ,
जैसा हूँ... रहने दो,
जैसे हर किसी को कमियों के साथ अपना रखा है,
वैसे ही... रहने दो,
मुझसे उम्मीद मत लगाओ,
मेरे इम्तिहान मत लो,
अच्छे बुरे की कसौटी पर मत चढाओ,
इतनी चोट मत लगाओ,
मैं तो यूँ भी नहीं होने वाला था,
जब हूँ... तो रहने दो ।

मुजरिम

इतना ग़लत तूने मेरे साथ किया है ख़ुदा,
के आज से तू ही मेरा मुजरिम है ।

Thursday, June 2, 2011

मुझे भूल जाएँ

एक दिन यूँ हो,
मुझे कहीं रख कर, सब भूल जाएँ
फिर सोचें मुझे ही, के कहाँ रख दिया है ।
उनके दिमाग़ में बस मैं रहूँ,
पर कोई मुझे न ढूँढ पाएं,
एक दिन यूँ हो,
मुझे कहीं रख कर, सब भूल जाएँ

Wednesday, June 1, 2011

पुताई

इस दिवाली, सोच रहा हूँ,
दिल के घर की पुताई कर लूं ।

पिछले कुछ सालों में नहीं करवाई
हर बार, अगले साल कह कर टाल दिया,
अब एक पुराने घर जैसा लगने लगा है,
रंग उड़ गया है, उजली दीवारें में वक़्त बस गया है,
वक़्त ने पता नहीं कब, इन्हें मैला कर दिया,
बड़े बड़े कमरे हैं, ऊंची ऊंची दीवारें भी हैं,
नए रंग खरीद लाऊंगा थोड़े से,
इस से पहले के और बढे मेहेंगाई, कर लूं,
इस दिवाली, सोच रहा हूँ,
दिल के घर की पुताई कर लूं

जितना छोटा-छोटा सामान है, बाहर रख दूंगा,
बड़े बड़े सामान पर एक मैली चादर डाल दूंगा,
इस बार दीवारों पर सोच रहा हूँ, तस्वीरें नहीं लगाऊँगा,
एक मैल का डिब्बा सा छोड़ जाती हैं,
उतना हिस्सा बाक़ी दीवार से ज्यादा उजला रह जाता है,
उनके नीचे वक़्त भी ठहर जाता है ।
अगली बार और भी तकलीफ़ होगी,
वक़्त को जमने से नहीं बचाऊंगा,
इस बार दीवारों पर सोच रहा हूँ, तस्वीरें नहीं लगाऊँगा

ये Lights भी दीवारों पर ही क्यूँ लगतीं हैं,
इस बार इन्हें छत्त पर लगवा दूंगा,
ये यूँ भी अंधेरों में क्या ख़ाक रौशनी देती हैं
दीवारों को इस बार इस धोखे से बचा लूँगा ।

अजीब सी बात है,
फ़क़त दीवारों की वजह से,
घर पुराना सा लगने लगता है,
रंग दूंगा तो नया हो जाएगा,
थोडा सा ख़र्च है,
पर इसका किराया भी तो बढ़ जाएगा,
किराए पर चढ़ाऊँगा नहीं पर,
सिर्फ ज़मींदारों को चिढाऊँगा ।

मैली चादरें उतार कर,
सारा सामान नए सिरे से सजाऊँगा,
इस बार सोचा है, किसी एक दीवार पर,
तस्वीर के खांचे में एक आईना लगा दूं,
जो सारे सच बतायेगा,
घर में जो आएगा,
वो ख़ुद को देख पायेगा,
शायद उसके नीचे, वक़्त भी न जम पायेगा ।

और हाँ, दर पर जो घंटी लगी है,
उसको भी उजला पोत कर, दीवार में मिला दूंगा,
किसी को नज़र नहीं आएगी,
इस बार आनेवाले का पता पहले से होगा ।

नए घर का फ़रेब ख़ूबसूरत है,
इस फ़रेब में ज़रा,
धुंधली सच्चाई कर लूं,
इस दिवाली, सोच रहा हूँ,
दिल के घर की पुताई कर लूं

दिल के दीवारो दर - सुदर्शन

दिल के दीवारो दर पे क्या देखा
बस तेरा नाम ही लिखा देखा। (सुदर्शन फाकिर)

बातों में तेरी, गुरूर सा,
उस गुरूर का हमें सुरूर सा,
ये चर्चा महफ़िल में मशहूर सा,
आधा तो झूठ ज़रूर था,
था उतना ही सच, हमने जितना देखा ।

इस नाम का ता-उम्र दम भरते रहे,
आयत सा, इसे पढ़ते रहे,
इस में हमने पाक़ खुदा देखा,
इसी बहाने, दिल का बुत्त्खाना बना देखा ।

एक मुक्कम्मल से अरमान का धोखा देखा
आँखों में शायद अश्क रहे,
दिल के दीवार-औ-दर पे तेरा नाम,
इस बार जो देखा, तो ज़रा धुंधला देखा ।

Monday, May 30, 2011

पता नहीं आज सुबह से चश्मा कहाँ रख दिया है

पता नहीं आज सुबह से चश्मा कहाँ रख दिया है ।

ढूँढ-ढूँढ कर थक गयी हूँ,
ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ,
10-15 मिनट में याद आ ही जाता था
आज पता नहीं ध्यान कहाँ है ।
हर जगह ढूँढ भी लिया,
Laptop के पास भी नहीं था,
वैसे तो मैं वहां कभी रखती नहीं,
पर हर window sill पर भी देख लिया,
पता नहीं आज सुबह से चश्मा कहाँ रख दिया है ।

अखबार भी नहीं पढ़ पायी,
अक्षर कहाँ दिखते हैं ?
जब हार कर खिड़की पर बैठी,
तो लगा जैसे बाहर धुंध सी है,
गर्मी की इस सुबह में,
एक काल्पनिक सी सिहरन शरीर में दौड़ गयी,
पता नहीं था चश्मे का खोना,
मौसम बदल देगा,
गर्मी में जाड़ों का छल देगा ।

चेहरों में फ़र्क भी कम दिख रहा है,
सारे एक से दिखने लगे हैं,
यूँ हमेशा होता तो ठीक ही था वैसे,
सब बस दीखते इंसानों जैसे,
8 साल में पहली बार ऐसा कुछ किया,
पता नहीं आज सुबह से चश्मा कहाँ रख दिया है ।

जब मिलेगा तो ऐसी जगह मिलेगा,
जो आँखों के सामने ही रही अब तक,
ऐसी जगह जहाँ मुझे शायद,
सबसे पहले ढूँढना चाहिए था,
पर कोई नहीं...
ये चंद घंटों की धुंध,
ये चंद घंटों का नया मौसम,
ये चंद घंटों का धुंधला सच,
ये चंद घंटों का धुंधला झूठ,
ये मिटता सा फ़र्क
ये धुंधला सा अखबार का वर्क़
चंद घंटों के लिए सच से बचना,
इतना बुरा भी नहीं है ।
लगता है जैसे कल रात से,
अपना नज़रिया उतार कर कहीं रख दिया है ।
पता नहीं आज सुबह से चश्मा कहाँ रख दिया है ।

Monday, May 16, 2011

सदमा तो है मुझे भी

Beautiful ghazal by Qateel Shifai.

सदमा तो है मुझे भी, के तुझसे जुदा हूँ मैं,
लेकिन ये सोचता हूँ, के अब तेरा क्या हूँ मैं ।

बिखरा पड़ा है तेरे ही घर में तेरा वजूद,
बेकार महफिलों में तुझे ढूँढता हूँ मैं ।

क्या जाने किस अदा से लिया तूने मेरा नाम
दुनिया समझ रही है, के सब कुछ तेरा हूँ मैं ।

ले मेरे तजुर्बों से सबक, ऐ मेरे रकीब,
दो चार साल उम्र में तुझसे बड़ा हूँ मैं - क़तील शिफ़ाई

My version starts here

जी लूं तेरी नज़र से ज़रा, पल दो पल को मैं,
इस एक पल की ख़ातिर, पल पल मरा हूँ मैं ।

पूछूं तेरा पता तो हैं क्यूँ हैरान से ये लोग,
अरबों की इस भीड़ में, मुझे ढूँढता हूँ मैं ।

तुझसे क्या शिकायत, क्यूँ रखूँ शिकवा कोई भी मैं ,
तेरी हूँ बेबसी मैं, तेरा गिला हूँ मैं ।

तन्हाईयों में रहा मैं तो ता-उम्र,
तुझसे मिला तो अब तो और भी तन्हा हूँ मैं ।

दर से तेरे उठा नहीं, मरने के डर से मैं,
इतना तो तुझे पता हो, के कैसे मरा हूँ मैं ।

लफ़्ज़ों में तेरे क्यूँ मुझको ही ढूँढ़ते हैं लोग,
इतना हूँ करीब के ग़ुम हो गया हूँ मैं ।

तुझको क्या गरज़ है बता, मौत से मेरी,
तेरे ही नाम से तो, अब तक जिया हूँ मैं ।

क्यूँ मुझसे करती है सवाल ये तेरी नज़र,
ये ख़ुद ही बोलती हैं, के अब तेरा क्या हूँ मैं

मेरे साथ मेरी कब्र में जाएगा ये गिला,
के सदमा तो है मुझे भी, तुझसे जुदा हूँ मैं
लेकिन ये सोचता हूँ, के अब तेरा क्या हूँ मैं ।

Sunday, May 8, 2011

मेरी माँ मेरी वजह से है


मेरी माँ आज जो कुछ भी है, मेरी वजह से है ।

उसके माथे की लकीरें,
मेरे सालों बीमार रहने की वजह से हैं,
उसकी आँखों के नीचे रहने वाली रातें,
मेरे लिए रात-रात जागने की वजह से हैं,
एडियों में पड़ी दरारें,
शहर-दर-शहर मेरे लिए भागने की वजह से हैं
उँगलियों के धुंधलाते सूरज,
मेरे लिए हज़ारों (लाखों) परांठे बनाने की वजह से हैं,
अलमारी में साड़ियों के नीचे छिपे 500 के नोट,
मेरी किसी 'Emergency' की वजह से हैं,
उसकी वो सुनहरी साडी, मेरी वजह से है,
उसका हर गुस्सा,उसकी मांगी हर दुआ,
मेरी वजह से है,
इतने सालों बाद भी, मुझसे दूर जाते हुए,
उसकी आँखों की नमी, मेरी वजह से है,
उसके दिनों में मेरी कमी, मेरी वजह से है,
उसका ग़म, उसकी ख़ुशी, मेरी वजह से है,
हाँ... मगर... मेरा नाम पढ़ कर, या सुन कर,
उसके चेहरे पर छलकता गर्व,
वो भी मेरी वजह से है ।

Tuesday, May 3, 2011

चाबी

आज ग़लती से, घर की चाबी अन्दर ही रह गयी ।

अब क्या?
शाम को जब लौटूंगी, तो अन्दर कैसे जाऊंगी?
सब कुछ अन्दर हो रह गया,
पता नहीं आज कल क्या हो गया है मुझे,
कोई दुःख नहीं, न कोई चिंता,
फिर भी जाने क्या सोचती रहती हूँ,
जैसे ही दरवाज़ा खींचा,
एक पल में लग गया,
घर की चाबी अन्दर ही रह गयी

सब कुछ अन्दर ही रह गया ।
अब अँधेरा होने से पहले लौटना होगा,
वरना चाबी वाला नहीं मिलेगा ।
ओह! किताब तो ले ली होती,
आज ही भूलनी थी?
देखूं... शायद बैग में रखी थी,
उफ़... लगता है mobile भी अन्दर ही रह गया ।
अब तो किसी को phone भी नहीं कर पाऊँगी,
किसी का number भी जुबानी याद नहीं ।

सब कुछ अन्दर ही रह गया ।
पर मैं भी न... सोचती बहुत हूँ
शाम को तो आ ही जाउंगी ।
यहीं... वापिस ।
मोड़ पर ही चाबी वाला बैठा होगा,
नयी चाबी से, अपना पुराना ताला खोल दूँगी ।
फिर सब कुछ वहीँ का वहीँ मिलेगा,
चाबी भी हमेशा की तरह मेज़ पर ही पड़ी होगी ।
फिर रात को टिड्डियों की आवाज़ से जाग जाउंगी,
फिर रात को, कमरे की बत्ती जलती छोड़ कर सो जाउंगी,
फिर सुबह - रोज़ ही की तरह,
घर से निकल जाउंगी ।
फिर... रोज़ ही की तरह,
चाबी... वहीँ मेज़ पर भूल जाउंगी ।

Sunday, May 1, 2011

साले "Silent type" - Part 2

ये जो 'Silent type' के लोग होते हैं,
बड़े हरामज़ादे होते हैं ।

आये Party में, कोना मलक लिया,
फिर न हिलेंगे वहां से,
आप host हो, जिसने बुलाया था, तो अब भुगतो ।
आप पूछोगे - "Starters ले लो"
जवाब में सिर्फ गर्दन हिला कर 'न' कर देंगे ।
आप पूछोगे - "Drink ले लो"
जवाब - "मैं पीता नहीं"
न खाओगे, न पियोगे, न बकोगे,
तो क्या आँखें सेखने आये थे भाई,
दे दो police में,
आज कल तो पहले से ज्यादा थाने होते हैं ।
ये जो 'Silent type' के लोग होते हैं,
बड़े हरामज़ादे होते हैं

सारे पैंतरे होते हैं इनके पास,
mostly diet पर होते हैं
शराब नहीं पीते,
और हाँ आठ बजे के बाद, dinner भी नहीं करते
बताओ - इतने लफड़े हैं, तो आये क्यूँ हो यार ।

इनको देख कर उस film का नाम याद आता है
"कब तक चुप रहूंगी"
आज कल तो ये - "कब तक चुप रहूँगा" हो गया है ।
दरअसल बात ये है की इनके हिसाब से,
कोई इनके level का ही नहीं होता,
ये खुद को Einstein/Salaman Rushdie की छठी औलाद जो समझते हैं ।
इनके अन्दर क्या चलता है राम जाने,
क्या है इनका secret काम जाने ।

जो भी हो,
वो रहेंगे 'silent type' क्यूंकि देश आज़ाद है, उनका ये हक़ है ।
हम तो इनके बारे में लिखते रहेंगे, क्यूंकि देश आज़ाद है
और हमें बोलने का हक़ है

साले Silent type

ये जो 'Silent type' के लोग होते हैं,
बड़े हरामज़ादे होते हैं ।

कमीने क्या सोच रहे होते हैं, कोने में बैठ कर,
किसी को नहीं पता ।
बस चुपचाप अपने दिमाग में,
खिचड़ी पकाते रहते हैं ।
ऐसे लोगों को न By god
Parties में बुलाना ही नहीं चहिये
मजबूरी में बुलाना पड़े, तो सालों को ignore मारो।
वो भी हो सके तो उनकी drink में इसबगोल मिला दो ।
पेट पकड़ कर भाग जायेंगे party से ।

और बताओ 'anti-social' बोलते हैं ख़ुद को ।
अबे तो क्या एहसान किया हम पर?
इतनी मुसीबत थी तो party में आये क्यूँ भई?
घर पड़े रहते 'anti-social' बन कर ।
नहीं... आयेंगे भी, जताएंगे भी,
अपनी 'ख़ामोशी' से सतायेंगे भी ।
मैं तो कहता हूँ सारी planning है boss .
कोने में दुबक कर बैठोगे,
तो कोई न कोई लड़की आएगी, हाथ में Drink लिए,
शरीफजादे साहब तो पीते नहीं हैं,
मिल गया Conversation point,
बस फिर तो सिलसिला शुरू,
आप notice करना - अक्सर वही लड़की उनको घर भी 'drop' करेगी ।
उसका काम हो गया भाईसाहब - लड़की को 'mystery' solve करनी है ।
बार बार मिलेगी, बात आगे बढ़ेगी फिर तो बेचारी राम भरोसे ।
शकल मासूम सी, पर पूरे 'Tiger woods' वाले इरादे होते हैं ।
ये जो 'Silent type' के लोग होते हैं,
बड़े हरामज़ादे होते हैं

गहराई दिखती है लोगों को इन में,
ओये यार तो डूब ही जाओगे न ।
मेरे 'Circle' में भी हैं ऐसे एक दो जानवर,
Completely avoid करता हूँ मैं,
न घर बुलाता हूँ, न उनके घर जाता हूँ,
जितनी हो सके उतनी लड़कियों को उनसे मिलने से बचाता हूँ
इतनी ज़िम्मेदारी तो है मेरी
आखरी suggestion है भाई,
जहाँ दिखें, उनके कपड़े Public में उतार दो,
सांप और 'silent type' जहाँ दिखें मार दो .

Friday, April 15, 2011

20 पैसे की जीत



बचपन से उसे ढलान बहुत पसंद थी।
बचपन में एक बार,
ढलान और सीढ़ियों में, उसने ढलान चुनी थी,
टाँके लगे थे ठुड्डी पर, जब गिरा था
ढलान से उतरना पर आसान था,
इसी लिए शायद
बचपन से उसे ढलान बहुत पसंद थी

सिक्के देर तक लुडकाता रहता,
अकेला, मन ही मन कुछ फुसफुसाता रहता ।
५ पैसे का सिक्का धीरे चलता था,
चौकोर था, ४ सिरे थे, इसी लिए ।
फिर २० का सिक्का भी कुछ ज्यादा तेज़ न था,
उसके तो ६ सिरे थे।
सबसे तेज़ था १० का सिक्का,
गोल सा, फूल सा था,
धड़ल्ले से भागता ढलान पर,
जैसे ट्रेन पकडनी हो ।
उसको टक्कर दी अट्ठन्नी ने,
पूरी गोल, पहिए सी,
ढलान पर तो मानो मोटर लग जाती थी ।
रोज़ का यही काम था उसका,
इक होड़ लगाता मनघडंत,
कभी एक सिक्का इस तरफ,
कभी दूसरा उस पार,
कभी १० पैसे की जीत,
कभी अट्ठन्नी की हार,
उसका भी दिल, हर किसी सा,
हारने वाले के साथ हार जाता,
होड़ ख़त्म न होती तब तक,
जब तक हारा हुआ सिक्का जीत नहीं जाता ।
दो अलग अलग, छोटी छोटी पोटलियाँ थी,
एक थी बेढबे सिक्कों की बस्ती,
तो दूसरा गोल सुढोल सिक्कों का मोहल्ला ।
दोनों में जंग छिड़ी रहती ।
हर शाम, कभी बाज़ी इधर तो कभी उधर ।

समय के साथ सारी माया बदल गयी,
सारे सिक्के गोल हो गए,
५, १० और २० पैसे के सिक्कों के सिरे,
इस होड़ में उन्हें मेहेंगे पड़ गए ।
जिस ढलान पर रोज़ ये होड़ होती थी,
वो भी इन सालों में काफ़ी बदल गयी थी,
नयी दरारें पड़ गयी थी,
पुरानी और बढ़ गयी थी,
अब तो निष्कासित सिक्के,
कभी जीतते ही नहीं
बुरी तरह से हर बार पीछे रह जाते ।

उसकी भी अब ढलान से अनबन सी होने लगी,
कई महीने तक होड़ जारी रहने लगी ।
हर रोज़ उम्मीद रहती के,
कमबख्त नए सिक्के,
किसी दरार में फँस कर पीछे रह जायेंगे
वो जिनके सिरे ज्यादा हैं, किसी जादू से,
शायद एक बार को आगे निकल जायेंगे ।
सालों तक ऐसा नहीं हुआ ।
हर होड़ के बाद, एक दुसरे का मुंह ताकते,
सिक्के उसके साथ, रात सो जाते ।
वो समझा बुझा कर उन्हें,
अगले दिन की होड़ के लिए, फिर मना लेता ।
वो फिर हार जाते ।

फिर एक दिन,
एक २० पैसे का सिक्का,
जब ढलान के अंत पर पहुंचा,
तो नयी गोल चवन्नी से २ उँगलियाँ आगे था ।
उसने मुस्कुराते हुए, सिक्के को अपने हाथों में उठाया,
गर्व से उसके सिरों को सहलाया,
तो देखा सिरे थोड़े घिस गए थे,
ढलान के साथ पिस गए थे,
सिरे वाले सिक्कों की थैली में उसे वापस रख कर,
वो मुस्कुरा कर, उस रात सो गया ।

एक अरसे बाद फिर कहीं,
ढलान और सीढ़ियों में उसे चुनना था,
चुनना बहुत आसान था ।

Wednesday, April 13, 2011

कमियां हैं

पिछले कुछ दिनों से मैं सोच रहा था,
क्यूँ आज कल हर किसी को मुझ में,
बस कमियां नज़र आती हैं।
सिर्फ और सिर्फ ऐब ।

क्या हुआ क्या है?
शायद अब सब ग़लत कर रहा हूँ मैं,
या फिर शायद पहले से थोडा बदल रहा हूँ मैं
बहुत कारण दिए मैंने खुद इसे,
पर समझ में आता नहीं,
क्यूँ सबको मुझ में
बस कमियां नज़र आती हैं

बहुत सोचा, फिर सोच कर,
एक फैसला लिया,
अब नहीं सोचूंगा।
पहले भी तो नहीं सोचता था,
एक बात तो तय है,
पहले मुझसे उम्मीदें शायद कम थी,
तो सब मुझ में अच्छाई ढूँढ़ते थे,
तो सिर्फ अच्छाई नज़र आती,
अब जब उम्मीदें हैं,
तो सिर्फ कमियां ढूँढ़ते हैं,
वो, जो मेरी जगह होना चाहते हैं,
वो, जो मुझसे आगे रहना चाहते हैं,
वो, जो अब तक साथ रहे,
वो, जो साथ रहना चाहते हैं,
वो सब मुझ में बस कमियां ढूँढ रहे हैं,
तो सब को आज कल मुझ में,
बस कमियां नज़र आती हैं ।

नाम अलग है, है अलग बस मेरी पहचान,
जो ढूँढोगे वो पाओगे,
मैं हूँ इंसान ।

Tuesday, April 12, 2011

रात रहती है

चंद रातें जो आँखों में काटीं थीं,
याद उनकी हर बात रहती है,
जागी सी, चांदी सी,
आँखों के नीचे, अब हर वो रात रहती है ।

Thursday, April 7, 2011

10 से 5 ही खुलती है ग़ालिब की हवेली

न हवा में ज़ौक था,
न नुक्कड़ों में मौसिक़ी,
न अंदाज़ वहां का शायराना ।

बल्लीमारां जाने को रिक्शा किया था,
रिक्शे वाले को हवेली पता थी,
२० रुपये में बात तय हो गयी,
गली में घुसते ही, पहला दायें ले लिया,
'खान चप्पल' से थोडा सा आगे ही पड़ता है,
बायें हाथ पर तीसरा मकान है ग़ालिब का ।

अन्दर घुसने से पहले, एक छोटा सा लड़का,
दौड़ता हुआ आया मेरे पास,
हँसते-हँसते बोला - "ग़ालिब की हवेली?"
सुफेद रंग का पठानी,
और सर पर उजली टोपी,
स्कूल का बस्ता कन्धों से झूल रहा था,
उर्दू मीडियम में पढता होगा ।

कितना कुछ सोचा था, इस पल के बारे में,
सोचा था, खूब शोर होगा, चहल-पहल होगी,
कोई न था, कुछ न था, न कोई सुर,
मेनेजर सा एक आदमी बैठा था,
बोला - "जल्दी से देख लो जो देखना है,
१० से ५ ही खुलती है ग़ालिब की हवेली ।

अन्दर जाते ही दायीं तरफ़,
एक पीली रौशनी से सराबोर कमरा है,
मिर्ज़ा साहब का एक बुत्त, नज़रें मिलाता खड़ा है,
बुत्त परस्तिश में यकीं नहीं मुझे,
मगर एक बन्दे सा, हाथ बाँध कर,
बुत्त के साए में खड़ा हो गया ।

कुछ न था इस शायर में,
बस एक हारा हुआ आशिक़ था,
फिक्रे कसने का शौक़ था उसे,
मोहब्बत का ज़ौक था उसे,
न मोहब्बत मिली, न शोहरत,
न चाहत, न दौलत,
बस 'न मिलने' का इल्म था उसे,
'न पाने' का तजुर्बा,
गुरूर था पर ज़रूर,
ऐब भी थे बन्दों से, थे बन्दों से ही फ़तूर,
इस हवेली में, बड़े से परिवार में, अकेला रहता था,
कटाक्ष तेज़ थे, दिल की कहता था,
मगर ज्यादा बात अन हो पायी,
१० से ५ ही खुलती है ग़ालिब की हवेली ।

चेह्चाहती, शोर मचाती गली में,
एक मायूस से शायर सी खड़ी थी नंगी ईंट की दीवारें,
वक़्त बता रही थी ।
न कुछ अलग था, न कुछ कहने को था - एक शायर की ही तरह
ग़ुबार सारा अन्दर भर लिया था ।

बाहर जब निकला मैं तो,
मेनेजर के साथ - एक दुबला-पतला आदमी और था,
कंधे के नीचे, क़मीज़ की कच्छ में सूखे पसीने थे,
उजले से दाग़, उर्दू के हर्फ़ बना रहे थे ।
बाहर दरवाज़े के ठीक सामने,
एक ठेले पर, लहसुन बिक रहा था,
5:15 का वक़्त था - हवेली के बंद होने का वक़्त,
अन्दर हवेली में एक नल था, जो रुकता नहीं था,
पत्तियां बंधी थी, बाल्टी राखी थी,
बाल्टी भरते ही, कोई उसे खली करता,
वहीँ रख जाता, वो फिर भर जाती,
सिलसिला चलता रहता ।

काफी देर तक मैं सोचता रहा,
इन लम्हों के बारे,
इस वक़्त के बारे,
इस वाक्ये, इस हवेली के बारे,
क्या लिखूं,
न तो हवा में ज़ौक था,
न नुक्कड़ों में मौसिक़ी,
न अंदाज़ वहां का शायराना,
क्या लिखूं उस हारे हुए शायर के बारे,
जिसके बारे अब किसी को नहीं सुनना,
क्या लिखूं उस आशिक़ के बारे,
जिसका इश्क़ ख़ुद लफ़्ज़ों में बह गया,
क्या लिखूं उस हवेली के बारे,
जिस में चंद तस्वीर-औ-बुत्त
और फ़क़त चंद अशआर बाकी रहे,
उन दीवारों के बारे,
जिन में चंद खामोश ग़ुबार बाक़ी रहे,
न दिल रहा, न जाँ लिखने को,
वो शेहेर में होते तो जाते, हम बाज़ार से ले आते,
दिल-औ-जाँ और,
पर अब तो
बस १० से ५ ही खुलती है ग़ालिब की हवेली ।

Sunday, March 27, 2011

शेर अकेला

फिर यूँ हो, शाम हो, और चार गुना परछाई हो,
फिर यूँ हो, महफ़िल हो, तन्हाई हो

Friday, March 25, 2011

ग़ालिब के पोस्टर लगाने से कोई ग़ालिब नहीं बन जाता।

लोग कहते हैं,
ग़ालिब के पोस्टर लगाने से कोई ग़ालिब नहीं बन जाता।
सच कहते हैं ।

उसका दिल कहाँ से लायें?
कहाँ है वो शौक़-औ-जिग़र,
न इल्म उर्दू का,
उन्स का ज़ौक हमें किधर ।
गौर फरमाइए हुज़ूर,
इस तस्वीर में, मैं उनके साए में खड़ा हूँ,
वो हैं उजला नूर,
मैं स्याह अँधेरा,
बजा फरमाया आपने,
ग़ालिब के पोस्टर लगाने से कोई ग़ालिब नहीं बन जाता

वो बन जाऊँगा तो जुनूँ किसका रहेगा?
किसके अशआर, आयतें मान पढूंगा,
न उन में खुद को देखता हूँ,
न उनसा बन सकूंगा,
आपने कहा- "ग़ालिब के पोस्टर लगाने से मैं ग़ालिब नहीं बन जाऊँगा"
क्या कहा आपने, के दिल को सुकून पहुंचा है,
आपने ग़ालिब का और मेरा नाम, साथ जो ले लिया,
हिंदी में, अंग्रेजी में, या के साफ़ उर्दू में हो,
अब तो हम इसी धोखे में रहते हैं
लोग कहते हैं,
ग़ालिब के पोस्टर लगाने से कोई ग़ालिब नहीं बन जाता
सच कहते हैं

Saturday, March 19, 2011

ग़ालिब की हवेली - सोच



मैंने सोचा था, खूब lighting होगी,
गली क़ासिम जाँ में सिर्फ़ ग़ालिब के शेर,
आयातों की तरह पढ़े जाते होंगे,
उस गली की दुकानों में, ठेलों पर,
सिर्फ़ ग़ालिब की क़िताबें बिकती होंगी,
हवेली पर, rajnikant सा उनका भी,
ये बड़ा सा life-size poster लगा होगा,
दुनिया के तमाम शायर पहुंचे होंगे,
जब मैं जाऊँगा तो कोई बूढ़ा सा आदमी मुझसे कहेगा,

"मुझे लगता है आप यहाँ पहले भी आ चुके हैं,
आपकी दाढ़ी मिर्ज़ा साहब से मिलती है,
आपके लिए ये हवेली हमेशा खुली रहेगी"

ऐसा कुछ न हुआ........ Obviuosly.

न lighting, न ग़ालिब के शेर,
दुकानें थी, पर चप्पल और चश्मों की,
ठेले थे, पर उस पर लहसून बिक रहा था,
न poster, न मेरे अलावा कोई,
एक बूढ़ा सा आदमी ज़रूर बैठा था,
उम्मीद जगी मेरी,
मुझे देख कर भी वो कुछ नहीं बोला,
बड़ी देर बाद, उसने चुप्पी तोड़ी और बोला,
"आप सही वक़्त पर आ गए,
बस अब हवेली बंद ही कर रहा था" ।

Saturday, March 12, 2011

जेब से पुराना पर्चा निकला - version 2

आज जेब से एक पुराना पर्चा निकला
Jeans के साथ धुल गया था,
शायद एहसास भी साफ़ हो गए थे,

कैसे emotional से हैं हम,
कितने emotion निर्जीव सी चीज़ों से जोड़ देते हैं,
उन्हें याद बना कर रख लेते हैं,
नया pen खरीदा था तुमने, याद होगा न,
उस दिन से पहले बहुत बहाने बनाये थे,
मुझे तो तकरीबन यकीन दिला दिया था,
की हम में कुछ न था,
पर Pen खरीदते ही,
इस पर्चे पर सबसे पहले, मेरा नाम ही लिखा था,
ये पर्चा तो अब भी मेरे पास है,
पर तुम... कहाँ चले गए,
पर तुम कहाँ चले गए ।

Friday, March 11, 2011

निकम्मा

पागल सड़कों पर लापता,
Random पान वालों से पूछता पता
दिल कम्बख्त,
मिल जाये तो साले को इधर भेजना,
इस हफ्ते का classified अच्छा है,
कहीं न कहीं तो लगा दूंगा निकम्मे को ।

Wednesday, March 9, 2011

जेब से पुराना पर्चा निकला - Version 1


आज जेब से एक पुराना पर्चा निकला

Jeans के साथ धुल चुका था,
मरियल सा हो गया था, साबुन का पानी पी कर,
आधा हिस्सा ही मेरे हाथ आया,
अजीब सा लगता है, जब भी ये होता है
डर सा लगता है, की कोई छिपी हुई याद
झट से सामने न आ जाए
हिचकिचाते हुए खोला मैंने,
पेट से मुड़ा हुआ था
लिखा था, ...श्क है ।
पढ़ कर जैसे याद तर-औ-ताज़ा हो गयी,
उस दिन, काजल बह कर गाल काले कर चुका था,
कांपते हाथों से पकड़ा दिया था, ये ख़त मुझे
मैंने बिना पढ़े ही फाड़ दिया
टुकड़े हवा में उछाल दिए थे,
जानता था उस में क्या लिखा था,
उसके जाने के बाद, देर तक टुकड़े बटोरता रहा
आज पर्चे के साथ किस्सा याद आया तो,
उस से जुड़ा बस ग़म याद आया,
मेज़ से एक काग़ज़ का टुकड़ा उठाया,
एक अक्षर लिख कर,
tape से उसे पर्चे से जोड़ दिया,
अब लिखा था "इश्क़ है"
चुपचाप उसे पेट से मोड़ कर,
फिर Jeans की जेब में डाल दिया,
दोबारा कभी मिल गया तो कमबख्त,
"अश्क है" नहीं "इश्क़ है" ।

Friday, March 4, 2011

ईशान कोण

अब तो ३-४ साल हो गए हैं,
कमरे की दीवार पर मेरी नज़र सबसे पहले पड़ी थी,
ईशान कोण का एक निचला हिस्सा, ख़ुद-बा-ख़ुद,
धीरे धीरे, रह रह काला हुआ जाता था।
कई दफा उसे साफ़ करने की कोशिश भी की थी,
पर रह रह लौट आता था ।

एक रात जब मैं गहरी नींद में था, तो लगा जागा हूँ
किसी की धीमी आवाज़ सुनाई दी मुझको
आँखें बंद, कान खुले थे मेरे,
करवट ले, मैं फिर सो गया गहरी नींद,
फिर जागा सा था मैं,
उसने कहा - "अब कुछ दिन अकेली रहना चाहती हूँ "
आँख खुली मेरी तो हथेलियाँ ठंडी थी
न आवाज़, न एहसास,
पर जैसे कोई पास बैठ कर सांस ले रहा था ।

इस बार दीवार की पुताई करवा दी ।
फिर उजली सी हो गयी ।

परछत्ती से मुझे फिर एक दिन, एक किताब मिली
वरक उसके सारे उजले थे
पर दीमक, सिरे कुतर गयी थी ।
महक पुराने कागज़ की, मेरे shelf में उस से बिखर गयी थी ।
पता नहीं क्यूँ रख ली थी मैंने ।
उस रात कुछ नींद ठीक से नहीं आई,
उठा रात को, तो बिजली नहीं थी घर में
कुछ सवा बजा होगा शायद,
shelf से माचिस निकाल कर, मोमबत्ती जला ली
क़िताब भी पीली लगी, उस पीली रौशनी में
पहले ही वर्क पर कुछ शब्दों की परछाईयाँ नज़र आई,
जैसे किसी ने पिछले वर्क पर, कलम ज्यादा दबा कर लिखा हो।
पढने की कोशिश की तो लिखा था
"अब कुछ दिन अकेली रहना चाहती हूँ "
उस रात मैं सुबह सोया ।
अगले दिन देखा तो
कमरे का ईशान कोण, फिर काला सा नज़र आने लगा था ।

मैंने एक रात गहरी नींद में फिर कुछ सुना था शायद,
ठीक से याद नहीं पर बात बालों की हो रही थी
आँख खुली तो हथेलियाँ फिर से ठंडी थी,
फिर बगल में कोई सांस ले रहा था

पिछली बारिश में, उस कमरे की छत टपकने लगी
मैंने अपना बिस्तर उस कमरे से हटा लिया,
दिन भर बारिश होती, कमरे में अँधेरा रहता।
फिर रात भर जैसे काले बादल, कमरे में ही रहते,
फिर एक रात जम कर बारिश हुई,
शोर से मैं रात भर जागा रहा,
सुबह के कुछ ५ बजे होंगे, और मेरी आँख लगी
दिन भर बारिश होती रही,
मैं उठ नहीं पाया ।
दिन भर जैसे बातें सुन रहा था
दिन रात, वही बात ।
फिर उठा, गीली हथेलियाँ ।
वापिस उसी कमरे में फिर से बिस्तर डाल लिया मैंने,
कई रातें चैन से सोया ।

एक सुबह जब देखा, तो खाली क़िताब कहीं नहीं थी,
सारा घर उथल-पुथल कर डाला, पर न मिली
एक पल को तो ये लगा, ऐसी कोई क़िताब थी ही नहीं
फिर अपनी किताबों में देखा,
एक भी खाली वर्क़ नहीं था
कुछ खाली खाली सा लगा, क़िताब के न मिलने पर
पर धीरे धीरे सब फिर ठीक हो गया

कमरे का ईशान कोण फिर काला हो चला था
जो मेज़ पड़ा था दूसरे कोने में,
उसकी टांगें भी लड़खड़ाने लगी थी,
एक टांग के नीचे मोटा सा गत्ता रख कर,
उसे बराबर किया हुआ था,
पर जो टांग दीवार से लगी थी,
उसका पेट दीमक खा गयी थी,

मेरे shelf में भी लकड़ी का, बुरादा सा दिखने लगा था
अब तो कुछ करना पड़ेगा
या घर बदलना पड़ेगा
"मैं कुछ दिन अकेला रहना चाहता था"
रातों को सोना बंद कर दिया था कई महीनों से,
दिन में, सोता, तो ठंडी हथेलियों की आदत सी पड़ गयी थी
बातें सुनाई नहीं देती थी
घुटनों में बहुत दर्द रहने लगा था
बहुत ज़्यादा दर्द
वो क़िताब कभी मिली ही नहीं मुझको,
पर ढूँढ ज़रूर लूँगा,
कहाँ जायेगी, यहीं कहीं रख दी होगी मैंने
फिर एक दिन,
जैसे कहा उसने, और मैं थक कर बैठ गया,
ईशान कोण में ही सही, क्या फर्क पड़ता है
कौन सी ये कालिक मुझ पर लग जायेगी ।
कौन सी ये कालिक मुझ पर लग जायेगी

Wednesday, March 2, 2011

सेहर न हो

कभी यूँ भी आ मेरी आँखों में, की मेरी नज़र को खबर न हो,
मुझे एक रात नवाज़ दे, मगर उसके बाद सेहर न हो। - बशीर बद्र

पूरा चाँद हो, चाँद की Outline बनाएं हम,
हम पर चाँद की नज़र न हो ।

जागे रहें पूरे ३ पहर,
रात चौथा पहर न हो ।

ज़हर और सच का स्वाद एक सा होता है,
पर रात जो हो, ज़हर न हो ।

तेरे नाम के पर्चे लिख लिख कर समंदर में डाले हैं,
जिस पर तेरा नाम न हो, ऐसी एक लहर न हो ।

Monday, February 28, 2011

काग़ज़


काग़ज़ पर अब कौन लिखता है,
काग़ज़ पर लिखने का ज़माना गया ।

हर वर्क़ के सिरे मुड़े मुड़े होते थे,
गुस्सा आता था जब कोई रीढ़ की हड्डी पकड़,
किताब को पेट के बल रख कर छोड़ देता था,
window sill पर १ चाय का कप पड़ा हो,
साथ हो पड़ी हो एक क़िताब,
जिसमें शब्द छपे न हों, हाथ से लिखे हों,
इस JPEG Image को देख कर, या सोच कर,
एक मस्त वाली Feeling आती है न,
धीरे-धीरे हवा चले, पन्ने उडें,
हवा के मोड़ से वो भी मुड़ें,
कुछ अक्षर टूटे-टूटे हों,
कहीं शिरोरेखा अक्षरों को बिना छुए ही गुज़र जाए,
कहीं कुछ अक्षर ऐसे हों,
जैसे उन्हें फांसी लग गयी हो,
कहीं मात्रा की मात्रा ही उतर जाए,
पर इन त्रुटियों में अब,
शायद खूबसूरती नहीं रही,
अब तो सब छपा हुआ पढ़ते हैं,
सब Perfect जो चाहिए।

इतना कुछ मिलता है Stationery की दुकानों में,
Hand-made paper की क़िताबें,
और तरह तरह के पेंस तो पूछो मत,
देख कर ही लिखने का मन करता है,
और हाथों से लिखे शब्द तो,
खींचते हैं अपनी ओर,
लिखने वाले की क्षमता के हिसाब से,
जो कमियां रह जाती हैं,
उनका हुस्न अब किताबों में नहीं रहा,
अब क़िताब के पन्ने निकल कर बिखर जाएँ,
तो दिल पसीजता नहीं इतना,
कल, एक क़िताब औंधे मुंह पड़ी थी,
मैंने सोचा एक पल,
फिर सोचा, पड़ी रहे ।
ज्यादा नुख्सां हुआ, तो एक नयी Copy ख़रीद लूँगा,
कई छपी हुई क़िताबें मिल जायेंगी
क्यूंकि काग़ज़ पर अब कौन लिखता है,
काग़ज़ पर लिखने का ज़माना गया ।

Saturday, February 19, 2011

हरिवंश

जब मैं छोटा था,
"आ रही रवि की सवारी" पढ़ कर पागल हो गया था,
एक ही दिन में मानो,
अन्दर के कवी महोदय जाग उठे,
"आ रही चाँद की सवारी लिख डाली"
... हंसी आती है ।

कुछ साल बाद,
दिनकर, पन्त, निराला, महादेवी, जयेसी को पढ़ा,
MA हिंदी कर रही थी माँ,
शुद्ध हिंदी तो समझ न आई,
पर चस्खा लग गया,
'नीड़ का निर्माण', 'निशा निमंत्रण', 'एकांत संगीत'
क्या भूलूं, क्या याद करूँ,
मैंने तो मानो major कर डाला,
फिर कुछ सालों बाद,
हाथ लगी मधुशाला,
सारी घोल कर पी ली,
अब तक बेसुध हूँ ।

छायावाद, हालावाद, अब भी नहीं समझता मैं
पता नहीं कब, छायावाद शब्दों में आ गया,
फिर हाल ही में पढ़ी,
'रात आधी खींच कर मेरी हथेली,
... फिर 'रवि की सवारी' याद आ गयी ।
जिसे पढ़ कर लिखना शुरू किया था,
'रात आधी' पढ़ कर लगा,
लिखना छोड़ दूं ।

हरिवंश के बारे में पढ़ना शुरू किया,
ये सोच कर के,
कहीं से कोई connection ही निकल आये,
कुछ तो हो जो एक जैसा हो,
ख्याल न सही, शब्द ही सही,
सोच की गहरायी न सही,
छायावाद न सही, पर कुछ तो हो ।
बात फिल्मी है, पर क्या फ़र्क पड़ता है,
बात सच तो है
उसका जन्मदिन भी 27 नवम्बर का है ।

उर्दू



उर्दू में अपना सुकून ढूँढता हूँ,
इस मौसिक़ी से सराबोर भाषा में
अपना खोया जूनून ढूँढता हूँ .
ज़फर की शायरी का खून ?
नज़ाकत में आने वाला 'नून' ?
ग़ालिब के अशआरों का मजमून ?

न ऍन, गेन, का हुस्न है मुझ में
न जीन, शीन से खूबसूरत मोड़
न गाफ़ लिखने का तोड़
न गोल 'ये' का जज़्बा,
जो अक्षर का लिंग बदल सकूं
न फिरंगी फ़ारसी का हम्ज़ा,
न 'छे' से पेट में बिंदु हैं,
न 'खे' सा सर पर टीका
'दो चश्म हे' सा भी नहीं दिखता मैं
'से' सा भी तो नहीं बिछता मैं

शायद हर्फों में न हूँ,
शायरी में छिपा हूँ
पर नज़्मों या रुबाई के साथ भी तुक नहीं बैठता मेरा,
ग़ज़ल के बहाव से भी अनजान हूँ
जानता हूँ, शेहेंशाह नहीं हूँ कोई,
इसी लिए नहीं ढूँढा ख़ुद को कसीदों में
इतना नहीं मैं शैतान हूँ
न किसी शायर की मसनवी में
न बोलचाल वाली लखनवी में

न हर्फ़ हूँ, न अक्षर हूँ,
न आधे अक्षर का डर हूँ,
मैं वो हूँ,
जो वक़्त की मार से,
सबसे पहले वर्क से मिट जाता हूँ,
जो न मतलब बदले,
न सबब बदले,
लिखते हुए कलम फिसले तो मैं
अक्षर से लिपट जाता हूँ
बोलने वाले के गले को खटकता हूँ,
उर्दू का ज़ौक कहते हैं कुछ लोग,
ज़र्रा हूँ छोटा सा,
बस छोटा सा नुख्ता हूँ .

Wednesday, February 16, 2011

सोज़ को google कर लो

कल किसी ने मुझसे पुछा - सोज़ का मतलब क्या है
मैंने कहा, मुझे नहीं पता - Google कर लो ।

हाँ हाँ ... मैं उन बेवकूफों में से हूँ,
जो ग़म और मलाल नहीं पालते,
गर ये दोनों मिल जाएँ राह में,
तो अनजान मार कर निकल जाता हूँ ।
8 GB की ज़िन्दगी में अगर 6 GB सोज़ होगा,
तो बचे 2 GB में सिर्फ मरना रोज़ होगा ।

इस्सी लिए भाई हम न पड़ते इन लफड़ों में
सीधी सी बात है, मैंने कह दिया
सोज़ का मतलब चाहिए तो - Google कर लो ।

Tuesday, February 15, 2011

रिक्त


मेरा स्थान मुझको साधे,
अतिरिक्त रहे, बस रिक्त रहे ।

एक ही पल में किस मोड़ पर,
आ कर मैं खड़ी हो गयी,
सालों का तो पता नहीं,
पर सब ने कहा - मैं बड़ी हो गयी
शीशे से लाज आने लगी,
जिस पिता की आँखों में प्रेम था,
उस में चिंता आज आने लगी ।

जैसे सपनों से नयन भरे,
लेकर पग डरे डरे,
राजमहल में आई मैं,
तेरहवीं रानी कहलाई मैं ।

हर रानी सा मेरा भी,
ये! बड़ा सा कमरा था,
गहनों का संदूक अलग,
रूप आपों-आप संवरा था,
बस एक बार देखा था उनको,
आँखों में तेज, चन्दन था माथे पर,
तोंद थी हलकी सी, तलवार दाईं तरफ लगाते थे,
शायद बायें हाथ से खाते थे ।
कुछ तो था नयनों में उनके,
मुझं पर पड़े थे, ३ बार गिन के,
मैं तो मानो जम गयी,
जब भी मुझ पर उनके नयन पड़े,
आंसू निकले बड़े बड़े ।

बाक़ी की सब मुझको,
तेरहवीं कह-कह छेड़ा करतीं,
पकड़ कलाई रोज़ मेरी,
बाज़ू को रह-रह टेढ़ा करतीं,
एक तो थी ४० साल की डायन,
पान चबा, पढ़ती रोज़ रामायण
कैकयी से था प्रेम उसे,
बहु समझती थी ससुरी मुझे ।
नाम किसी ने न पुछा मेरा,
अच्छा है, रिश्ता न जुड़ा,
मैं सांप-सीढ़ी में हमेशा हार जाती,
जो आती, बाज़ी मार जाती।

एक सुबह जब उठी मैं,
सिन्दूर का डिब्बा बिखरा पड़ा था,
फर्श लहुलुहान हुआ पड़ा था,
फिर देखा तो बिस्तर पर,
छींटें पड़ीं थीं सिन्दूर की,
पर जब जाना सच मैंने, तो डर भागी मैं,
पहली रानी के कमरे में
खूब हंसी वो पहले तो,
कहा - अब हर महीने होगा ये ,
फिर भेजा किसी को, कुंवर से कहने को ।

३ महीने ब्याह को हुए,
रोज़ अकेली सोयी थी,
आज अमावस्या की रात पता चला,
राजाजी ने बुलवाया है ।

रात न जाने क्या हुआ,
प्रेम से हाथ अब भी कांप रहे थे,
आती थी अटखेली अब भी,
रगों में जैसे सांप रहे थे,
शीशा देखा तो देखा - शरमा रही थी,
बाहर से दो-चार आवाजें,
नाम मेरा बुला रही थी,
"मेरा नाम कैसे पता था इनको?
मैंने तो बताया था कभी,
उन में क्या एक हो गयी मैं?
अब रही मैं तेरहवीं? "

दोपहर पता चला के वो नहीं लौटेंगे अब ।
नीति उनको खा गयी,
आंसू न आये,
हलकी सी उदासी पर छा गयी,
अगले दिन उनके शरीर के साथ,
बारह शरीर और जले,
ऐसा वो कह गए थे - के मेरा नाम रहे १२ से परे,
मैं महाराज के पास गयी,
हिम्मत जुटा कर कह डाला उनसे,

" मेरा स्थान मुझको साधे,
जलने वालों की सूची में मेरे नाम का स्थान
अतिरिक्त रहे, बस रिक्त रहे

आज भी रिक्त है स्थान मेरा
अब भी जल रही हूँ मैं।
अब भी जल रही हूँ मैं ।

Tuesday, February 8, 2011

अलमारी

मुझे तय करके अपनी अलमारी में रख ले।

चुपचाप पड़ा रहूँगा,
जहाँ रखेगा मुझे
अपनी सिलवटों की आदत भी डाल लूँगा,
न पहन रोज़ाना मुझे,
न मैला कर, न धुलवाना पड़े,
न उतारना पड़े मुझे
कुछ भी नया ले आ,
मुझे हर रंग से ढक दे
मुझे तय करके अपनी अलमारी में रख ले

सिरे उधड़ने लगे हैं अब,
किसी और का रंग भी चढ़ गया है मुझ पर,
पानी में डूब कर अब फूलता नहीं पहले सा,
कच्ची धुप में, सर्द हवा में, झूलता नहीं पहले सा
ज़्यादा जगह नहीं लूँगा,
दब कर छोटा हो जाऊँगा,
पड़ा रहूँगा, नज़र न आऊँगा,
मुझे तय करके अपनी अलमारी में रख ले

धीरे धीरे याद से मिट जाऊँगा,
मेरी आवाज़ भी नहीं पहुंचेगी तुझ तक,
मेरे सवाल भी दब के चुप हो जायेंगे,
मुझे देख कर किसी की बात याद न आएगी,
मेरे रंग से जुड़े जज़्बात भूल जाएगा
अलमारी की महक मैं सोख लूँगा,
उसे अपनी महक बना कर पी लूँगा,
अब तुझ से दूर रहने की आदत हो चली है,
सांस लूँगा, जी लूँगा,
मुझे तय करके अपनी अलमारी में रख ले

हर कोई मुझे तुझसे दूर करने की बात करता है
इस दुनिया से यूँ भी थक गया हूँ मैं,
तेरी अलमारी,
तेरा सामान,
तेरी महक,
सब कुछ तुझ से भर लूँगा,
हाथ बाँध कर, गर्दन झुका कर,
मैं फिर चैन से मर लूँगा,
न धुप, न हवा की अब ज़रुरत है
बस मुझे मेरी जगह दे दे, इस अलमारी में,
तय
करके अपनी अलमारी में रख ले

मैं नहीं जंचता साथ तेरे,
मेरी बाजुओं से लम्बे हैं हाथ तेरे,
पर मैं तो जीवन बाँध चुका हूँ,
सारी सीमा फांद चुका हूँ,
न मुश्किल हो मुझसे,
न तकलीफ़ दूं,
मुझसे जुडा कोई फैसला न लेना पड़े,
मैं रहूँ वहां, जहाँ तुझे लगे मैं नहीं रहा,
मैं रहूँ वहां, तेरे जगह न लूं जहाँ,
मैं रहूँ वहां, जहाँ मुझे रख कर तू भूल जाए,
मेरी गलती पर न कभी तेरी नज़र जाए,
अँधेरे में जब मैं डर जागूँ,
मेरे साथ तू न डर जाए,
घर में रहूँ, तेरी सोच में न रहूँ,
तेरे साथ रहूँ, तेरे साथ न रहूँ,
तेरे सामान में रहूँ,
तेरे ध्यान में न रहूँ,
मैं रहूँ वहां, जहाँ न रहूँ,
इसी लिए,
मुझे तय करके अपनी अलमारी में रख ले

सब कुछ लाद दे मुझ पर,
सारे रंगों में दबा दे मुझे
ख्याल न रख, चिंता न कर,
बस मुझे तय करके अपनी अलमारी में रख ले

Sunday, January 23, 2011

गंगा सागर एक बार

कह गए पंडित, संत सभी,
मैला गंद, कपटी संसार,
मोक्ष मिले, मन धुले,
पञ्च-स्नानी, कह गए महा ग्यानी,
जो करना हो बेड़ा पार,
तो सब तीर्थ बार बार,
गंगा सागर एक बार ।

भगीरथ कुल का एक युवराज,
छोड़ कर सारे राज - काज,
शिव वंदन में जुट गया,
फिर निकली गंगा,
बैकुंठ का द्वार भी उठ गया।
एक डुबकी कर दे संहार,
सब तीर्थ बार बार,
गंगा सागर एक बार।

पाप धुले, पापी का क्या?
हर साल, पापी वही, पाप नया
बुद्धू हैं हम, न समझे,
थक गए कहते संत सभी,
वही बात है, सोचो फिर,
जब डुबकी ले, इस बार वो,
सर पर उसके हाथ धरो,
५ नहीं, १० नहीं, १०० तक गिनो,
सब तीर्थ बार बार,
गंगा सागर एक बार ।
आये थे नंगे, गए हैं नंगे,
सारे बोलो हर हर गंगे!

Wednesday, January 19, 2011

ग़ालिब

सौ कोस से बा-जुबां- ए - कलम बातें किया करो,
हिज्र में विसाल के मज़े लिया करो । - ग़ालिब

अक्खां दे रोज़े

चढ़ कोठे उत्ते तक्दी हाँ राह्वा,
सुंजे सुपने, सुन्जियाँ ने बाहवां,
धड़कन चलदी रुक्के, रुक रुक चल्ले,
राँझा वेहड़े वदेया,
अक्खां दे रोज़े मुक्क चल्ले ।

लोक्की कहंदे कमली मैनू,
मैं हिक्क नु न लाया,
राँझा मेरा - जग मेरा,
बचेया जो, सब मोह माया
नज़रान दी प्यास लुक चले
अक्खां दे रोज़े मुक्क चल्ले ।

Wednesday, January 5, 2011

सेहर तो नहीं

ये दाग़, दाग़ उजला, ये शब्गजीदा सेहर,
वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सेहर तो नहीं ।

उनके शेहेर की आब-औ-हवा हमें पहचानती है
मगर अब पहले जैसा ये शेहर तो नहीं ।
फुरकत में सांस आती है एहसान जता कर,
फिर भी ये कज़ा, ये क़ेहर तो नहीं ।
उँगलियों के आफ़ताब की सेहर कहाँ,
वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सेहर तो नहीं

इश्क़ के लिए कोई जगह मुक्कम्मल कहाँ,
किधर हो सफ़र, ठहर कहाँ ।
शब सा धुंधला उजाला चार-सू
ग़म कहाँ असर कहाँ ।
वो हसरत कहाँ, उम्मीद कहाँ,
वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सेहर तो नहीं ।