Saturday, March 19, 2011

ग़ालिब की हवेली - सोच



मैंने सोचा था, खूब lighting होगी,
गली क़ासिम जाँ में सिर्फ़ ग़ालिब के शेर,
आयातों की तरह पढ़े जाते होंगे,
उस गली की दुकानों में, ठेलों पर,
सिर्फ़ ग़ालिब की क़िताबें बिकती होंगी,
हवेली पर, rajnikant सा उनका भी,
ये बड़ा सा life-size poster लगा होगा,
दुनिया के तमाम शायर पहुंचे होंगे,
जब मैं जाऊँगा तो कोई बूढ़ा सा आदमी मुझसे कहेगा,

"मुझे लगता है आप यहाँ पहले भी आ चुके हैं,
आपकी दाढ़ी मिर्ज़ा साहब से मिलती है,
आपके लिए ये हवेली हमेशा खुली रहेगी"

ऐसा कुछ न हुआ........ Obviuosly.

न lighting, न ग़ालिब के शेर,
दुकानें थी, पर चप्पल और चश्मों की,
ठेले थे, पर उस पर लहसून बिक रहा था,
न poster, न मेरे अलावा कोई,
एक बूढ़ा सा आदमी ज़रूर बैठा था,
उम्मीद जगी मेरी,
मुझे देख कर भी वो कुछ नहीं बोला,
बड़ी देर बाद, उसने चुप्पी तोड़ी और बोला,
"आप सही वक़्त पर आ गए,
बस अब हवेली बंद ही कर रहा था" ।

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