Monday, June 20, 2011

5km लम्बी गुफ़ा

5km लम्बी गुफ़ा के मैं बीचोंबीच रुक गया ।

गुप्प अँधेरा दोनों तरफ था,
मौसम जैसे बरफ था,
इतने अँधेरे में क्या पता,
मुंह से धुआं निकल तो रहा होगा ।
अब यहाँ कुछ मुझे हो जाए तो,
सब कुछ कितना आसान रहेगा,
दूर तक कोई नूर नहीं,
नज़र कुछ आता कहाँ,
क्या ग़लत? क्या सही?
अँधेरा मुंह खोल कर,
मेरे चेहरे पर झुक गया,
5 km लम्बी गुफ़ा के मैं बीचोंबीच रुक गया ।

यहाँ रहूँ तो कितने दिन रहूँगा,
मान लो, न कोई गाडी यहाँ से गुज़रे,
न कोई रौशनी आये यहाँ,
हफ्ता दस दिन?
महीना भर ज़्यादा से ज़्यादा ।
नहीं, आत्महत्या का इरादा नहीं है,
न ही इस कायरता की हिम्मत है मुझ में,
पर सारे फ़र्क मिटाना चाहता हूँ ।
महीना भर ज़्यादा से ज़्यादा,
फिर तो चलने फिरने की ताक़त भी नहीं रहेगी,
बाहर निकलने ही हसरत तो भूखी मर ही जायेगी ।
अच्छा है, फिर कोई चारा ही नहीं रहेगा,
ऐसे काले कल की उम्मीद में,
5 km लम्बी गुफ़ा के मैं बीचोंबीच ही रुक गया ।

अब की बार ये जांच भी हो जाए,
की किसी इंसान का क्या हो सकता है,
महीने भर के बाद भी मैं अगर नहीं मारूंगा,
तो अँधेरे से फिर कभी नहीं डरूंगा,
दुनिया इतनी ज़्यादा अभी देखी नहीं,
कहने को अभी तजुर्बा भी इतना नहीं,
पर सोचा अब कुछ दिन,
अँधेरे में ही रहना चाहिए, इसी लिए
5 km लम्बी गुफ़ा के मैं बीचोंबीच रुक गया ।

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