Wednesday, June 29, 2011

मैं भी तेरे जैसा हूँ

Opening Line from a Ghulam Ali ghazal

अपनी धुन में रहता हूँ, मैं भी तेरे जैसा हूँ ।


तू मुझ सा हो गया, और मैं मेरे जैसा हूँ ।
रह रह कर इन स्याह रातों में
रह-रह नूर से डरता हूँ ।
नुमायाँ और बयां का फ़र्क मिट गया,
जैसा हूँ, मैं कहता हूँ ।
ज़माना तो छोड़ दूं, पर ज़माना छूटे कैसे,
कोई महफ़िल ये नहीं, के कह दूं - 'अच्छा चलता हूँ '।
इस दुनिया को इश्क़ की पहचान, आशिक़ों से बेहतर है
बहुत क़रीब से दुनिया देखी है, तो कहता हूँ ।
बेशक्ली, बेख़याली, बेख़ुदी,
मैं बस मेरे जैसा हूँ ।
अपनी धुन में रहता हूँ, मैं भी तेरे जैसा हूँ
तू मुझसा हो गया, और मैं मेरे जैसा हूँ ।

Saturday, June 25, 2011

शायर की ज़िन्दगी

क़र्ज़ की ज़िन्दगी, शायर की ज़िन्दगी ।

एक मुट्ठी मायूसी,
दो दाने मुफ़लिसी,
जाम भर मसर्रत,
दो पल हसरत,
किसी की दवा, किसी के मर्ज़ की,
क़र्ज़ की ।

नाम का लहू,
ना-काम का ग़ुस्सा,
लफ्ज़ का गुरूर,
बेख़ुदी का सुरूर,
अश्क, उन्स, मन्नत,
दोज़ख़, जन्नत,
ख़्वाब, ख्वाहिश, ख़लिश,
दर्द की तारीख़ जो किसी ने दर्ज की,
क़र्ज़ की ।

जो 'बाक़ी' रह गया,
उस में उम्र काट ले,
बड़ी आसानी से,
ख़ुशी से भी ग़म छाँट ले ।
उम्र से कब्र,
बेसब्र है बेसब्र,
बेज़ार भी बेदार भी,
कुछ ले लिया हर किसी से,
मिला लिया अपनी ख़ुदी में,
सुख़नवर है, दर-बा-दर है,
बहुत खुश-बद-नसीब है,
ख़ुदा का रक़ीब है
ख़ुद से परे,
हर किसी से क़रीब है ।

ख़ुश है, जब बदनाम है,
ख़ुश है, जब ग़मज़दा,
जब है फ़ना, या है फ़िदा,
जब भरा हो पैमाना,
और जब ख़ाली हो मयकदा
इश्क़ है हर किसी के खले से
अपनी कमी मिटा ले,
हर किसी के खले से,
मतलबी है, मासूम नहीं,
मग़रूर है, महरूम नहीं ।
अशआरों में हिम्मत,
हौंसलों के किस्से,
बातें,
मुहब्बत, उसूल, कायदों की,
बातें, बस बातें
किसी से जज़्बात, किसी से हालात,
किसी से चुरायी कहानी फ़र्ज़ की
शायर की ज़िन्दगी, क़र्ज़ की
कायर की ज़िन्दगी
शायर की ज़िन्दगी ।

Friday, June 24, 2011

मिर्ज़ा

चल मिर्ज़ा औथे चलिए, जित्थे सारे अन्ने,
मैं बस आंखां ना तेरा, तूं बस मेरी सुन्ने ।

Thursday, June 23, 2011

महजबीं


महजबीं

पैमानों से देखी दुनिया,
हमेशा रंगीन रही,
उसकी नज़र में,
किसी के चेहरे की सुर्खी कम न हुई
मगर येही रंग ले डूबा ।

किसी के चले जाने के बाद,
उसके 'गुनाह' भी हर कोई,
'दिलेरी' की तरह देखता है
बेवजह की हसरतों में,
बेवजह ही वजह देखता है ।
गुनाह, ग़म, मलाल, मुहब्बत,
खला, ख्वाहिश, इंतज़ार, दिलेरी
महजबीं ।

जब ख़ुद ही अधूरे रहे,
तो लफ़्ज़ों का क्या कुसूर,
मगरूर भी, मजबूर भी,
हुए भी तो क्या मशहूर
मंज़ूर, न-मंज़ूर, फिर मंज़ूर,
हुए भी तो क्या मशहूर,
एक ख़ाली पैमाने सी ज़िन्दगी में,
जाने क्यूँ दुनिया रंग भरने पर तुली है,
इस किताब के सारे वर्क़ ख़ाली हैं,
उतनी बंद, जितनी खुली है
पर शायद दुनिया को सुलझानी ये पहेली है,
क्यूँ इतना ख़ूबसूरत था ये सुरूर
इन्ही लोगों ने खोला है ये बाज़ार
हुए भी तो क्या मशहूर ।

लुत्फ़ तो आता है बेलुत्फ़ी से,
वरना जहाँ में किसी को क्या किसी से,
अच्छा किया,
सुफेद और स्याह से परे रखी ये दुनिया
अच्छा किया,
भरे पैमानों से तकी ये दुनिया ।

भला बुरा, सच-झूठ, इश्क़-वजह,
दुनिया देखती रही,
रिश्तों का चश्मा चढ़ा कर,
पैमाना या साक़ी,
जब जी चाहा,
छू लिया हाथ बढ़ा कर
चंद लम्हों के लिए,
बेबसी के लम्हे डुबो दिए,
उन डूबे लम्हों में, मलाल मिला कर,
पी लिया... ज़हर बना कर ।

बेख़ुदी को कमज़ोरी कहता है,
क्यूंकि आधा ज़माना इससे दूर रहता है
बेख़ुद ख़ूबसूरती में कितना ज़ोर है
कौन जाने ।
बेख़ुदी, मयकशी,
महजबीं ।

महजबीं means Beautiful, moon-like in Urdu, while it means 'Strong' in Arabic. Meena Kumari's (1932-72) real name was Mehjabeen Bano.

मुझे से क्यूँ मिल गयी मैं

ये मुझ से क्यूँ मिल गयी मैं ।

सवालों में उलझी,
ख्यालों में उलझी थी, तो बेहतर था,
खुश थी, बोलती थी,
थी बस थी ।
मगर कब, नहीं रही मैं,
ये मुझ से क्यूँ मिल गयी मैं ।

अजनबी से हमेशा से परहेज़ था,
ऐसा भी नहीं के, ये तूफाँ कुछ तेज़ था,
ऐसा भी नहीं के दुनिया एकाएक चलने लगी,
ऐसा भी नहीं के एकाएक रह गयी खड़ी मैं ।

कभी कोई ऐसा इंतज़ार नहीं था,
मगर ऐसा भी नहीं के,
इंतज़ार नहीं था,
तलब क्या है ये कोई नहीं पूछता,
तलब क्यूँ है, ये सब पूछते हैं
नादान हैं, बेसबब ख्वाहिशों का सबब पूछते हैं
काफ़िर हैं, आयतों का मतलब पूछते हैं
जाने किस से मैं क्या कह निकली ।

जब वक़्त आ जाए तो देखो क्या बाक़ी रह गया
उम्र में ये न देखो के क्या कितना किया है
कितना पल पल मरा देखो और बोलो,
कौन कितना जिया है
ख़ाली पैमानों को छोड़ो, आँखों में देखो,
जुनूँ कितना पिया है ।
जलती मय में बेवजह मैं बर्फ़ पिघली ।

क्या इस मोड़ पर बेवजह ही आ गयी हूँ?
या ये कोई मोड़ ही नहीं,
सीधे रास्ते की वो जगह है,
जहाँ से आगे की राह दिखती नहीं
जो भी है, ख़ूबसूरत है,
और अगर ख़ूबसूरत नहीं भी है,
तो क्या फ़र्क पड़ता है ?
आगे रास्ता न भी हुआ,
तो क्या फ़र्क पड़ता है ?
आगे वास्ता न भी हुआ
तो क्या फ़र्क पड़ता है ?
क्या फ़र्क पड़ता है के हक़ीक़त से छिल गयी मैं
ये मुझ से क्यूँ मिल गयी मैं ।

इस बार नहीं बदली मैं,
इस बार नहीं हिली मैं,
इस बार हूँ वही मैं,
इस बार रही नहीं मैं,
बस जैसे उपरी सतेह निकली,
वही रही खड़ी पर,
तिनके की तरह मैं बह निकली ।

Tuesday, June 21, 2011

साहिर


अब साहिर कहाँ रहते हैं ?

शायर को उम्र से यूँ भी क्या चाहिए,
इश्क़, ग़ुरूर और मजाल काफ़ी है,
कलम पकड़ने को दो उँगलियाँ,
ज़ौक-औ-क़माल काफ़ी है ।
ज़िन्दगी के तजुर्बे तो स्याही बन ही जाते हैं
मसर्रत इतनी नहीं, एक मलाल काफ़ी है ।

कौन मानता है ख़ुदा इश्क़ को?
कौन कहता है के इश्क़ में हौंसला होता है?
इश्क़ कमज़ोरी है 'साहिर'
हर आशिक़ मायूस-औ-मजबूर है,
वरना हर इंसान क़ायर नहीं होता
हर आशिक़ शायर होता हो शायद,
मगर आशिक़, हर शायर नहीं होता ।
हर शायर, शायर तो होता है लेकिन,
हर शायिर साहिर नहीं होता ।

ऐसा ही है लफ़्ज़ों का कारोबार,
नुख्सान या नफा नहीं होता,
ख़ुदा न समझा अब तक,
शायर उस से कभी ख़फ़ा नहीं होता,
उसका गिला तो इंसानों से है,

न ज़मीं पर न फ़लक पर,
मौसिक़ी तो रह जायेगी हवा में,
उसका पता ठिकाना नहीं होगा,
दुनिया तो रह जायेगी,
मगर वो ज़माना नहीं होगा,
अब उनकी गली से, आना जाना नहीं होगा,
चर्चे होंगे, किस्से होंगे, हिस्से होंगे जिसके,
अब वो फ़साना नहीं होगा ।
अब वो अफ़साना नहीं होगा ।

उम्र को समेट कर रख देने को
एक अशआर काफ़ी है,
दर रहा न रहा,
मकाँ रहे न रहे,
चैन से सोने को, एक मज़ार काफ़ी है
चैन से सोने को एक मज़ार काफ़ी है ।
ता-उम्र और सदियों में जो न हो सका कभी,
वो उनके जाने के बाद हो गया,
उनकी जगह किसी और ने ले ली,
पता नहीं इस बात पर वो क्या बात कहते हैं ?
एक ख़त लिख कर ये बात उनसे पूछनी है,
मगर लिफ़ाफ़े पर, पता क्या लिखूं, कहाँ रहते हैं ?

Sahir was buried at the juhu Muslim cemetery. His tomb was demolished in 2010 to make space for new bodies.

Monday, June 20, 2011

5km लम्बी गुफ़ा

5km लम्बी गुफ़ा के मैं बीचोंबीच रुक गया ।

गुप्प अँधेरा दोनों तरफ था,
मौसम जैसे बरफ था,
इतने अँधेरे में क्या पता,
मुंह से धुआं निकल तो रहा होगा ।
अब यहाँ कुछ मुझे हो जाए तो,
सब कुछ कितना आसान रहेगा,
दूर तक कोई नूर नहीं,
नज़र कुछ आता कहाँ,
क्या ग़लत? क्या सही?
अँधेरा मुंह खोल कर,
मेरे चेहरे पर झुक गया,
5 km लम्बी गुफ़ा के मैं बीचोंबीच रुक गया ।

यहाँ रहूँ तो कितने दिन रहूँगा,
मान लो, न कोई गाडी यहाँ से गुज़रे,
न कोई रौशनी आये यहाँ,
हफ्ता दस दिन?
महीना भर ज़्यादा से ज़्यादा ।
नहीं, आत्महत्या का इरादा नहीं है,
न ही इस कायरता की हिम्मत है मुझ में,
पर सारे फ़र्क मिटाना चाहता हूँ ।
महीना भर ज़्यादा से ज़्यादा,
फिर तो चलने फिरने की ताक़त भी नहीं रहेगी,
बाहर निकलने ही हसरत तो भूखी मर ही जायेगी ।
अच्छा है, फिर कोई चारा ही नहीं रहेगा,
ऐसे काले कल की उम्मीद में,
5 km लम्बी गुफ़ा के मैं बीचोंबीच ही रुक गया ।

अब की बार ये जांच भी हो जाए,
की किसी इंसान का क्या हो सकता है,
महीने भर के बाद भी मैं अगर नहीं मारूंगा,
तो अँधेरे से फिर कभी नहीं डरूंगा,
दुनिया इतनी ज़्यादा अभी देखी नहीं,
कहने को अभी तजुर्बा भी इतना नहीं,
पर सोचा अब कुछ दिन,
अँधेरे में ही रहना चाहिए, इसी लिए
5 km लम्बी गुफ़ा के मैं बीचोंबीच रुक गया ।

Sunday, June 19, 2011

ख़ैर

ये बादल उड़ कर कहाँ जाते हैं ?

हल्की हल्की बारिश हो रही थी
मैं बैठ कर इंसानों की कीमत लगाता रहा शाम भर,
कुछ महेंगे पड़ गए, कुछ मेरी औकात में थे,
कई रिश्ते भी नाप रहा था
कुछ उधड़ रहे थे, और कुछ में गाँठ पड़ गयी थी,
कुछ अब मुझे नहीं आते, छोटे पड़ने लगे थे,
कुछ शायद ज़्यादा गहरे लगने लगे थे,
कुछ शायद कम ठहरे लगने लगे थे
अधूरे छूटे रास्तों की दुहाई देनी जब बंद की,
तो शायद दो पल को सांसें भी थोड़ी मंद की,
और सोचा - ये बादल उड़ कर कहाँ जाते हैं ।

जिस मोड़ पर मैं खड़ा था,
आगे काफ़ी रास्ता पड़ा था
पर जाता कहाँ था, क्या पता?
पीछे यूँ तो कभी मैं देखता नहीं,
क्यूंकि गुज़रा हुआ पल 'सच' होता है
बदला नहीं जा सकता,
तो देखने का फायदा क्या था, क्या पता?
और यूँ भी ख़ुशी से ज़्यादा ग़म याद रहते हैं
और सोचो तो लगता है,
जहाँ कल खड़े थे, वहीँ खड़े हैं
तो सालों आगे बढ़ा कहाँ था, क्या पता?
मर के कोई गढ़ा कहाँ था, क्या पता?
पर सोचो तो - ये बादल उड़ कर कहाँ जाते हैं?

गिरा था, तभी तो उठा था,
ग़लत था, तभी तो सही था
तजुर्बे का अभिमान क्यूँ होता है,
तजुर्बा तो सिर्फ़ ग़लतियों से होता है,
पर इंसान को अभिमान का बहाना चाहिए ।
मैं जहाँ हूँ, शायद कोई मेरी जगह होना चाहता होगा,
जिस बात पर मैं हँसता हूँ,
वो उसी बात पर रोना चाहता होगा,
पर वो वहीँ है, और मैं भी यहीं हूँ,
पता नहीं यहाँ से - ये बादल उड़ कर कहाँ जाते हैं ?

कहाँ क्या कमी है?
कहाँ क्या नहीं है?
मैं क्या तलाश रहा हूँ?
ज़्यादा खुश? या ज़्यादा उदास रहा हूँ?
इतने लोग, रात, रोज़ घर जाते हैं?
क्या कभी कुछ काफ़ी होगा?
किसने आखिर पहना है चोगा?
हर मोड़ से आगे, क्या रास्ते कहीं ले जाते हैं?
या सालों बाद भी वहीँ छोड़ आते हैं ?
ये बादल उड़ कर कहाँ जाते हैं?
ख़ैर ।

Wednesday, June 15, 2011

ये दुनिया ये महफ़िल

ये दुनिया, ये महफ़िल मेरे काम की नहीं ।
न मैं समझ पाया इसे
न ये समझी ।
ये मुझे ढूँढती रही,
मैं इसे ।
जब अशआर कहीं निकलेंगे मेरे,
जब ज़िक्र होगा भूले से,
तो अश्क दो भी काफी होंगे,
दो अश्कों में हिसाब सारा हो जाएगा,
जी ली जितनी जीनी थी,
जो न जी, वो नाम की नहीं
ये दुनिया, ये महफ़िल मेरे काम की नहीं ।
मेरे नाम के नीचे बस जगह खाली रख देना,
अलफ़ाज़ कहीं किताबों में कैद रख देना
आना न पड़े तो अच्छा, पर दुबारा यहाँ आया तो,
नाम के नीचे की खाली जगह से पहचान लूँगा,
जगह रहेगी, खाली जगह की, मेरे नाम की नहीं
ये दुनिया, ये महफ़िल मेरे काम की नहीं
उम्र की सरहद तो तय है, पर तमाम की नहीं ।
लफ्ज़ मेरे पढ़ कर कोई न रोये तो बेहतर,
कद्र रहे उम्र की, अंजाम की नहीं ।
इस दुनिया में, दुनिया तलाशता रहा,
मिल गयी तो परेशान हूँ,
मैं न मिलूंगा, क्यूंकि मैं नहीं हूँ,
न ये परेशान थी, न होगी,
मुझ सा कोई मिल जाए तो याद तो आएगी,
मेरे जाने के बाद तो आएगी
हर लफ्ज़ में रह जाऊंगा,
मैं भी तो इसके अब कुछ काम का नहीं
और ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहीं ।

Sunday, June 12, 2011

शिक़ायत

शिक़ायत अंधेरों से क्यूँ हो, ये नूर से लड़ते हैं
शिक़ायत नूर से हो, जिससे अँधेरे बनते हैं

Friday, June 10, 2011

Signal पर एक लड़का मिलता है

Signal पर एक लड़का मिलता है,
ग़म बेचता है ।

अखबार में लपेट कर,
सुर्ख़ खूँ से दीखते हैं हु-ब-हु
पुरानी मुस्कुराहटों की याद दिलाते हैं
तो ज़ाहिर है, आज के ग़म हैं,
पता नहीं कोई उसे क्यूँ,
दो थप्पड़ रख के नहीं देता,
जिस दाम पर लोगों ने बाज़ार से उठाया है,
उस से भी कहीं कम बेचता है
Signal पर एक लड़का मिलता है,
ग़म बेचता है

Signal पर एक लड़का मिलता है,
ख़ुशी बेचता है ।
सुनहरी धूप सी मुस्कुराती,
सुर्ख़ - होंटों सी,
हंसी से बनी, हंसी
किसी भी गुस्से की दवा
एक मुट्ठी मेहेकी हवा,
एक इज़हार,
एक इंतज़ार की ज़िन्दगी,
१० रुपये में जैसे,
एक आशिक़ की आशिक़ी
एक शायर की मौसिक़ी बेचता है
Signal पर एक लड़का मिलता है,
ख़ुशी बेचता है ।

Signal पर एक लड़का मिलता है,
उम्मीद बेचता है ।
शायद कभी, भूले से,
एक १० का नोट इतना काम आ जाएगा,
उम्र के सारे मायने ताज़ा कर जाएगा,
शायद इनकी परछाई,
उसकी आँखों को किसी दिन सियाह कर देगी,
शायद कभी, उसकी आँखों में
मेरा अक्स नज़र आएगा,
किसी दिन शायद,
मेरी जुबां की भाषा में इनका स्याह रंग भर जाएगा,
अमावस्या की रात में जैसे,
फ़रेब-ऐ-ईद बेचता है,
Signal पर एक लड़का मिलता है,
उम्मीद बेचता है ।

Signal पर एक लड़का मिलता है,
याद बेचता है ।
उसके चेहरे में भी एक मलाल सा रहता है,
शायद उसने भी खोया हो कोई,
उस दिन से ही शायद ये काम कर लिया उसने,
इतनी सुर्खी किसी के जाने के बाद ही नज़र आती है,
काली-उजली ज़िन्दगी में रंग भर जाती है,
हर साल, मेरी हर बात, उस तक पहुंचाती है,
क्यूँ गया वो? रंग सारे ले गया वो?
अब जैसे उसी का है ये रंग,
जो कोई उसके जाने के बाद बेचता है ।
Signal पर एक लड़का मिलता है,
याद बेचता है ।

आज बहुत मुद्दतों बाद मैं घर से निकला,
तो एक ख्याल, याद आया,
सोच में खोया सा मैं, जब उस Signal पर आया
तो याद आया,
इसी Signal पर एक लड़का मिलता था,
फूल बेचता था ।

Saturday, June 4, 2011

तू बन्दा, मैं ख़ुदा

चल अब तक जो खेल हुआ, अब बहुत हुआ,
आज से तू बन्दा मेरा, मैं तेरा ख़ुदा ।

चल भाई, अब बना Plans,
बना अपना सही और ग़लत,
फिर कर फैसले,
और बोल के ये फैसला तेरा है,
अब तू मत मान के मैं हूँ,
अब तू भी सोच के ऐसा तेरे साथ ही क्यूँ हुआ
आज से तू बन्दा मेरा, मैं तेरा ख़ुदा

लगा मंदिरों के चक्कर, या पढ़ नमाज़,
अब कर ढकोसले,
मान रीति-रिवाज़,
अब तू डर मुझसे,
अब तू मर मुझसे,
अब अपनी मेहनत की कमाई का हिस्सा,
तू मुझ पर लुटा,
अब तू याद रख, कोई है जो है सच-झूठ से बड़ा,
आज से तू बन्दा मेरा, मैं तेरा ख़ुदा

अब हर निवाले के पहले तू नाम ले मेरा,
अब जन्नत और जहाँनुम का फ़र्क
तू अपने दिमाग़ में बना,
अब मेरा नाम ले कर,
तू जान ले किसी की,
अब मेरा नाम ले कर,
तू मेरा काम कर,
चल अब बहुत हुआ ये खेल,
अब मैं तुझे दो रास्ते दिखाऊँगा,
और फिर सोचने की ताक़त छीन लूँगा
फिर भी चुन लेगा जब तू एक को,
तो दूसरे रास्ते को सही कर दूंगा,
और तेरे सोचने की शक्ति लौटा दूंगा,
फिर सोचना के रास्ता तो तूने चुना था,
फिर पछताना और मेरा नाम लेना,
फिर मैं बोलूँगा - तू ग़लत रास्ते पर है, अब भी संभल जा बन्दे,
फिर तू कहना
अब तेरा ही आसरा है, मुझे बचा ले ऐ ख़ुदा ।
अब तब बात करेंगे,
जब तू बंदगी से हार जाएगा
और मेरा खुदाई से मन भर जाएगा ।

Friday, June 3, 2011

10 December 1998

60 Second के लिए सोचो,
अगर 10 December 1998 को मैं मर जाता तो ?

मेरी सारी गलतियाँ माफ़ हो जातीं न ?
तब क्या पूछते मुझसे?
क्या शिकवे करते?
सच और झूठ के फ़रेब में ज़िन्दगी निकाल लेते ?
कुछ भी हो, मुझे तो नहीं कोसते ।
हर किसी ने कभी न कभी,
मौत के बारे में सोचा होगा,
पर मैं तो चला ही गया था,
उन २ दिनों के बाद लौट कर न आता तो?
अगर 10 December 1998 को मैं मर जाता तो ?

आज मेरी आदत है,
मेरे प्यार की आदत है,
इतनी के, शायद अब आदत सी नहीं लगती,
मेरे होने की,
मुझसे बात करने की,
बैठ कर उन २ दिनों पर रोने की, आदत है
इतनी के, शायद अब आदत सी नहीं लगती
मेरी परवाह की परवाह है,
मुझे पाने के एहसास से प्यार है,
मुझे खोने का डर,
मेरा ध्यान खींचने की कोशिश है,
मुझसे रूठने को हर कोई तैयार है ।

मुझ में कमियां हैं, ग़लतियाँ हैं,
मेरा गुस्सा बर्दाश्त नहीं होता न?
शायद प्यार भी है मुझसे... शायद ।
पर शिकायतें हैं
मेरे होने की वजह से, शायद कहीं एक कमी सी भी है
मेरे वक़्त के लिए मुझी से लड़ाई भी है
मेरा होना काफी नहीं किसी को ।
शायद हम इंसानों का खेल ही ऐसा हो
किसी का होना काफी नहीं,
उसके होने से उम्मीद का घेरा और बढ़ ही जाता हो
पर अगर 10 December 1998 को मैं मर जाता तो

कौन इतना ख़ास महसूस करवाता?
कौन हमेशा अपने पास बुलाता?
किसके पास आ कर,
हर ग़म का असर कम हो जाता?
किस पर अपने हक का ग़ुस्सा जताते?
किस पर ग़ुस्से का हक बन जाता ?
किसके बारे में बात कर, कहते - "बदल गया है?"
किसकी हमेशा कमियां गिनाते?
किसके प्यार पर फ़ैसले सुनाते?
किसके फ़ैसलों को ग़लत बताते?
किसे धोखा देते? लौट कर किसके पास आते?
किसे धोखा देते? लौट कर किसके पास आते?
किसके पास आ कर, सारे ग़लत सही हो जाते?
किस से उम्मीद लगाते?
किस पर हक़ जताते?
सोचो... क्या ऐसा मिल जाता कोई और?

उस वक़्त की दुआ थी, इसी लिए आज हूँ मैं
ये तो पता है की जब मिल गया, तो क्या हुआ
60 Second के लिए सोचो,
अगर 10 December 1998 को मैं मर जाता तो ?

वैसे तो पहले ज़िंदगी, फिर मौत का डर होता है ।
जहाँ तक मेरा सवाल है
मैंने तो ज़िंदगी उल्टी जी है,
मौत से मिल कर ही ज़िंदगी शुरू की है,
इसी लिए शायद सब कुछ उल्टा देखता हूँ मैं ।
मुझ में... मेरे प्यार में... मेरे होने में...
कमियां हैं भी, और नज़र भी आती हैं ,
और शायद खूबियों से ज़्यादा निकाली भी जाती हैं,
उम्र पड़ी है ये करने के लिए,
पर सिर्फ - 60 Second के लिए सोचो,
अगर 10 December 1998 को मैं मर जाता तो ?

मैं हूँ - ये काफ़ी नहीं,
आपने जैसा चाहा और सोचा वैसा मुझे बनाना चाहते हो
पर 60 Second के लिए सोचो,
अगर 10 December 1998 को मैं मर जाता तो ?

मुझे ख़ुदा न बनाओ, मुझे कोई ख़ास न बनाओ,
बस इतने सवाल न उठाओ,
जैसा हूँ... रहने दो,
जैसे हर किसी को कमियों के साथ अपना रखा है,
वैसे ही... रहने दो,
मुझसे उम्मीद मत लगाओ,
मेरे इम्तिहान मत लो,
अच्छे बुरे की कसौटी पर मत चढाओ,
इतनी चोट मत लगाओ,
मैं तो यूँ भी नहीं होने वाला था,
जब हूँ... तो रहने दो ।

मुजरिम

इतना ग़लत तूने मेरे साथ किया है ख़ुदा,
के आज से तू ही मेरा मुजरिम है ।

Thursday, June 2, 2011

मुझे भूल जाएँ

एक दिन यूँ हो,
मुझे कहीं रख कर, सब भूल जाएँ
फिर सोचें मुझे ही, के कहाँ रख दिया है ।
उनके दिमाग़ में बस मैं रहूँ,
पर कोई मुझे न ढूँढ पाएं,
एक दिन यूँ हो,
मुझे कहीं रख कर, सब भूल जाएँ

Wednesday, June 1, 2011

पुताई

इस दिवाली, सोच रहा हूँ,
दिल के घर की पुताई कर लूं ।

पिछले कुछ सालों में नहीं करवाई
हर बार, अगले साल कह कर टाल दिया,
अब एक पुराने घर जैसा लगने लगा है,
रंग उड़ गया है, उजली दीवारें में वक़्त बस गया है,
वक़्त ने पता नहीं कब, इन्हें मैला कर दिया,
बड़े बड़े कमरे हैं, ऊंची ऊंची दीवारें भी हैं,
नए रंग खरीद लाऊंगा थोड़े से,
इस से पहले के और बढे मेहेंगाई, कर लूं,
इस दिवाली, सोच रहा हूँ,
दिल के घर की पुताई कर लूं

जितना छोटा-छोटा सामान है, बाहर रख दूंगा,
बड़े बड़े सामान पर एक मैली चादर डाल दूंगा,
इस बार दीवारों पर सोच रहा हूँ, तस्वीरें नहीं लगाऊँगा,
एक मैल का डिब्बा सा छोड़ जाती हैं,
उतना हिस्सा बाक़ी दीवार से ज्यादा उजला रह जाता है,
उनके नीचे वक़्त भी ठहर जाता है ।
अगली बार और भी तकलीफ़ होगी,
वक़्त को जमने से नहीं बचाऊंगा,
इस बार दीवारों पर सोच रहा हूँ, तस्वीरें नहीं लगाऊँगा

ये Lights भी दीवारों पर ही क्यूँ लगतीं हैं,
इस बार इन्हें छत्त पर लगवा दूंगा,
ये यूँ भी अंधेरों में क्या ख़ाक रौशनी देती हैं
दीवारों को इस बार इस धोखे से बचा लूँगा ।

अजीब सी बात है,
फ़क़त दीवारों की वजह से,
घर पुराना सा लगने लगता है,
रंग दूंगा तो नया हो जाएगा,
थोडा सा ख़र्च है,
पर इसका किराया भी तो बढ़ जाएगा,
किराए पर चढ़ाऊँगा नहीं पर,
सिर्फ ज़मींदारों को चिढाऊँगा ।

मैली चादरें उतार कर,
सारा सामान नए सिरे से सजाऊँगा,
इस बार सोचा है, किसी एक दीवार पर,
तस्वीर के खांचे में एक आईना लगा दूं,
जो सारे सच बतायेगा,
घर में जो आएगा,
वो ख़ुद को देख पायेगा,
शायद उसके नीचे, वक़्त भी न जम पायेगा ।

और हाँ, दर पर जो घंटी लगी है,
उसको भी उजला पोत कर, दीवार में मिला दूंगा,
किसी को नज़र नहीं आएगी,
इस बार आनेवाले का पता पहले से होगा ।

नए घर का फ़रेब ख़ूबसूरत है,
इस फ़रेब में ज़रा,
धुंधली सच्चाई कर लूं,
इस दिवाली, सोच रहा हूँ,
दिल के घर की पुताई कर लूं

दिल के दीवारो दर - सुदर्शन

दिल के दीवारो दर पे क्या देखा
बस तेरा नाम ही लिखा देखा। (सुदर्शन फाकिर)

बातों में तेरी, गुरूर सा,
उस गुरूर का हमें सुरूर सा,
ये चर्चा महफ़िल में मशहूर सा,
आधा तो झूठ ज़रूर था,
था उतना ही सच, हमने जितना देखा ।

इस नाम का ता-उम्र दम भरते रहे,
आयत सा, इसे पढ़ते रहे,
इस में हमने पाक़ खुदा देखा,
इसी बहाने, दिल का बुत्त्खाना बना देखा ।

एक मुक्कम्मल से अरमान का धोखा देखा
आँखों में शायद अश्क रहे,
दिल के दीवार-औ-दर पे तेरा नाम,
इस बार जो देखा, तो ज़रा धुंधला देखा ।