Thursday, May 21, 2009

दो नैना

दो नैना इक कहानी ।

मैं ही हर किरदार हूँ,
मैं ही सूत्रधार,
हर मोड़ का रोमांच मैं,
हर छोटी बात की आंच मैं,
मैं ही रावण, राम मैं ही,
मैं ही रास्ता, मुकाम मैं ही,
मैं ही संजीदगी, मैं ही रवानी।
दो नैना इक कहानी

काला चाँद आंखों में है,
आंसूओं के काफ़िले लाखों में हैं,
पलकों को नाज़ नही इन पर,
हर दूसरे पल छिपाती रहती है,
वही संवाद है, सारा विवाद है,
अंत है शुरुआत, कहानी उसके बाद है,
एक गलती, उम्र भर निभानी,
दो नैना इक कहानी

इनके दायरे में चली,
इनकी ज़िन्दगी के साथ पली,
उसकी यादों को सींचेंगी,
मेरे लिए भी, उसके लिए भी,
चेहरे का आईना,
लम्होंकी निशानी,
दो नैना इक कहानी

नींद को पालती है,
ताकि ख्वाब पलते रहें,
उसके मिलन के सिलसिले,
ता-उम्र चलते रहें,
रिश्ता रहे उससे, सूरत सुहानी,
दो नैना इक कहानी

मैं इन्हें दोष देती रही,
अब सब सही लगता है,
झूठ कहते हैं शायर सब,
नैनों से कहाँ कोई ठगता है,
उसकी आँखें, इन्हें ढूँढती आ जाती,
रुक जाती, ठहर, बंध जाती,
यही धर्म, यही जाति,
नए एहसास, गाथा पुरानी,
दो नैना इक कहानी

Friday, May 8, 2009

शाम

शाम पड़ी है बिस्तर पर ।

जाती हुई किरणें जला गई,
सारा बदला चुका गई,
ज़ख्म सारे हैं लाल लाल,
गहरा वार हुआ है जैसे सर पर,
और अब शाम पड़ी है बिस्तर पर ।

अब जनाज़ा निकलेगा,
सारा गुनाह भी निकलेगा,
हर याद बनी है फफोला,
चमड़ी के नीचे जैसे हो पानी भरा,
पर ये फफोले न फूटेंगे,
अब हर रोज़, इस वक्त, साए न रूठेंगे,
कल की सोच देती है डर,
अब शाम पड़ी है बिस्तर पर ।

बुझी सी यूँ भी रहती थी,
सिर्फ़ सुनती, कुछ न कहती थी,
मन की सारी आग बुझा देती थी,
और आज ख़ुद ही जली पड़ी है,
अम्बर की चादर का लेप मली पड़ी है
छूने से अब इसको मैं भी डरता हूँ,
साथ में, चुप चाप, मैं भी मरता हूँ,
हर घाव बना है नश्तर,
शाम पड़ी है बिस्तर पर ।

कल नया सूरज जब आएगा,
अकेला वापस जाएगा
मलाल रहेगा उम्र भर,
काम करेगा अपने सब्र पर,
उगलेगा यूँ ही आग पर ।

चाँद का फकत इंतज़ार है,
खुली हैं आँखें, आंसूओं का गुबार है,
देखेगी उसको एक नज़र भर,
शाम पड़ी थी बिस्तर पर ।

तस्सल्ली

अब तस्सल्ली देना बहुत हुआ ।

कितनी बार इसे प्यार कह झुठलाया है
हर गलती का ज़िम्मा उठाया है,
कितनी बार हालात को दोषी ठहराया है,
कभी उसकी नज़रों से, कभी ख़ुद की,
ख़ुद को आजमाया है,
अब ये गोरख धंधा बहुत हुआ,
अब तस्सल्ली देना बहुत हुआ

ज़ुल्म के ज़ौक में यहाँ तक तो,
घसीट लाया हूँ नब्ज़ मैं,
फ़ुर्कत-ऐ-हयात के हाल को,
पर दे न पाया लफ़्ज़ मैं,
ख़ुद पर तरस खाता तो गुरूर मात खाता,
फिर एक बार अब्र,
अँधेरा कर जाता,
ये काला मेला बहुत हुआ,
अब तस्सल्ली देना बहुत हुआ

Friday, May 1, 2009

राख

जला मत राख कर दे ।

इस राह पर चलते चलते जलने लगे हैं तलवे,
उफान आ चला है साँसों में,
उबाल आ चुका आंसूओं, आंखों में,
अर्पण कर, समर्पण कर,
आंच है भस्म कर, पाक़ कर दे।
जला मत राख कर दे

कैफ़ पा चुका है इश्क
रूह को है इत्मीनान अब,
किसी की मय्यत पर अब खुशी नही होती,
किसी के अश्कों पर अब आँखें नही रोती,
बहुत बुरा है, ले बदला, ख़ाक कर दे,
जला मत राख कर दे