Thursday, April 7, 2011

10 से 5 ही खुलती है ग़ालिब की हवेली

न हवा में ज़ौक था,
न नुक्कड़ों में मौसिक़ी,
न अंदाज़ वहां का शायराना ।

बल्लीमारां जाने को रिक्शा किया था,
रिक्शे वाले को हवेली पता थी,
२० रुपये में बात तय हो गयी,
गली में घुसते ही, पहला दायें ले लिया,
'खान चप्पल' से थोडा सा आगे ही पड़ता है,
बायें हाथ पर तीसरा मकान है ग़ालिब का ।

अन्दर घुसने से पहले, एक छोटा सा लड़का,
दौड़ता हुआ आया मेरे पास,
हँसते-हँसते बोला - "ग़ालिब की हवेली?"
सुफेद रंग का पठानी,
और सर पर उजली टोपी,
स्कूल का बस्ता कन्धों से झूल रहा था,
उर्दू मीडियम में पढता होगा ।

कितना कुछ सोचा था, इस पल के बारे में,
सोचा था, खूब शोर होगा, चहल-पहल होगी,
कोई न था, कुछ न था, न कोई सुर,
मेनेजर सा एक आदमी बैठा था,
बोला - "जल्दी से देख लो जो देखना है,
१० से ५ ही खुलती है ग़ालिब की हवेली ।

अन्दर जाते ही दायीं तरफ़,
एक पीली रौशनी से सराबोर कमरा है,
मिर्ज़ा साहब का एक बुत्त, नज़रें मिलाता खड़ा है,
बुत्त परस्तिश में यकीं नहीं मुझे,
मगर एक बन्दे सा, हाथ बाँध कर,
बुत्त के साए में खड़ा हो गया ।

कुछ न था इस शायर में,
बस एक हारा हुआ आशिक़ था,
फिक्रे कसने का शौक़ था उसे,
मोहब्बत का ज़ौक था उसे,
न मोहब्बत मिली, न शोहरत,
न चाहत, न दौलत,
बस 'न मिलने' का इल्म था उसे,
'न पाने' का तजुर्बा,
गुरूर था पर ज़रूर,
ऐब भी थे बन्दों से, थे बन्दों से ही फ़तूर,
इस हवेली में, बड़े से परिवार में, अकेला रहता था,
कटाक्ष तेज़ थे, दिल की कहता था,
मगर ज्यादा बात अन हो पायी,
१० से ५ ही खुलती है ग़ालिब की हवेली ।

चेह्चाहती, शोर मचाती गली में,
एक मायूस से शायर सी खड़ी थी नंगी ईंट की दीवारें,
वक़्त बता रही थी ।
न कुछ अलग था, न कुछ कहने को था - एक शायर की ही तरह
ग़ुबार सारा अन्दर भर लिया था ।

बाहर जब निकला मैं तो,
मेनेजर के साथ - एक दुबला-पतला आदमी और था,
कंधे के नीचे, क़मीज़ की कच्छ में सूखे पसीने थे,
उजले से दाग़, उर्दू के हर्फ़ बना रहे थे ।
बाहर दरवाज़े के ठीक सामने,
एक ठेले पर, लहसुन बिक रहा था,
5:15 का वक़्त था - हवेली के बंद होने का वक़्त,
अन्दर हवेली में एक नल था, जो रुकता नहीं था,
पत्तियां बंधी थी, बाल्टी राखी थी,
बाल्टी भरते ही, कोई उसे खली करता,
वहीँ रख जाता, वो फिर भर जाती,
सिलसिला चलता रहता ।

काफी देर तक मैं सोचता रहा,
इन लम्हों के बारे,
इस वक़्त के बारे,
इस वाक्ये, इस हवेली के बारे,
क्या लिखूं,
न तो हवा में ज़ौक था,
न नुक्कड़ों में मौसिक़ी,
न अंदाज़ वहां का शायराना,
क्या लिखूं उस हारे हुए शायर के बारे,
जिसके बारे अब किसी को नहीं सुनना,
क्या लिखूं उस आशिक़ के बारे,
जिसका इश्क़ ख़ुद लफ़्ज़ों में बह गया,
क्या लिखूं उस हवेली के बारे,
जिस में चंद तस्वीर-औ-बुत्त
और फ़क़त चंद अशआर बाकी रहे,
उन दीवारों के बारे,
जिन में चंद खामोश ग़ुबार बाक़ी रहे,
न दिल रहा, न जाँ लिखने को,
वो शेहेर में होते तो जाते, हम बाज़ार से ले आते,
दिल-औ-जाँ और,
पर अब तो
बस १० से ५ ही खुलती है ग़ालिब की हवेली ।

1 comment:

Dasbehn said...

Disappointed with the experience kya? Very nicely written though...ghalob ki koi biography type hai kya?