पता नहीं आज सुबह से चश्मा कहाँ रख दिया है ।
ढूँढ-ढूँढ कर थक गयी हूँ,
ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ,
10-15 मिनट में याद आ ही जाता था
आज पता नहीं ध्यान कहाँ है ।
हर जगह ढूँढ भी लिया,
Laptop के पास भी नहीं था,
वैसे तो मैं वहां कभी रखती नहीं,
पर हर window sill पर भी देख लिया,
पता नहीं आज सुबह से चश्मा कहाँ रख दिया है ।
अखबार भी नहीं पढ़ पायी,
अक्षर कहाँ दिखते हैं ?
जब हार कर खिड़की पर बैठी,
तो लगा जैसे बाहर धुंध सी है,
गर्मी की इस सुबह में,
एक काल्पनिक सी सिहरन शरीर में दौड़ गयी,
पता नहीं था चश्मे का खोना,
मौसम बदल देगा,
गर्मी में जाड़ों का छल देगा ।
चेहरों में फ़र्क भी कम दिख रहा है,
सारे एक से दिखने लगे हैं,
यूँ हमेशा होता तो ठीक ही था वैसे,
सब बस दीखते इंसानों जैसे,
8 साल में पहली बार ऐसा कुछ किया,
पता नहीं आज सुबह से चश्मा कहाँ रख दिया है ।
जब मिलेगा तो ऐसी जगह मिलेगा,
जो आँखों के सामने ही रही अब तक,
ऐसी जगह जहाँ मुझे शायद,
सबसे पहले ढूँढना चाहिए था,
पर कोई नहीं...
ये चंद घंटों की धुंध,
ये चंद घंटों का नया मौसम,
ये चंद घंटों का धुंधला सच,
ये चंद घंटों का धुंधला झूठ,
ये मिटता सा फ़र्क
ये धुंधला सा अखबार का वर्क़
चंद घंटों के लिए सच से बचना,
इतना बुरा भी नहीं है ।
लगता है जैसे कल रात से,
अपना नज़रिया उतार कर कहीं रख दिया है ।
पता नहीं आज सुबह से चश्मा कहाँ रख दिया है ।
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