Sunday, June 19, 2011

ख़ैर

ये बादल उड़ कर कहाँ जाते हैं ?

हल्की हल्की बारिश हो रही थी
मैं बैठ कर इंसानों की कीमत लगाता रहा शाम भर,
कुछ महेंगे पड़ गए, कुछ मेरी औकात में थे,
कई रिश्ते भी नाप रहा था
कुछ उधड़ रहे थे, और कुछ में गाँठ पड़ गयी थी,
कुछ अब मुझे नहीं आते, छोटे पड़ने लगे थे,
कुछ शायद ज़्यादा गहरे लगने लगे थे,
कुछ शायद कम ठहरे लगने लगे थे
अधूरे छूटे रास्तों की दुहाई देनी जब बंद की,
तो शायद दो पल को सांसें भी थोड़ी मंद की,
और सोचा - ये बादल उड़ कर कहाँ जाते हैं ।

जिस मोड़ पर मैं खड़ा था,
आगे काफ़ी रास्ता पड़ा था
पर जाता कहाँ था, क्या पता?
पीछे यूँ तो कभी मैं देखता नहीं,
क्यूंकि गुज़रा हुआ पल 'सच' होता है
बदला नहीं जा सकता,
तो देखने का फायदा क्या था, क्या पता?
और यूँ भी ख़ुशी से ज़्यादा ग़म याद रहते हैं
और सोचो तो लगता है,
जहाँ कल खड़े थे, वहीँ खड़े हैं
तो सालों आगे बढ़ा कहाँ था, क्या पता?
मर के कोई गढ़ा कहाँ था, क्या पता?
पर सोचो तो - ये बादल उड़ कर कहाँ जाते हैं?

गिरा था, तभी तो उठा था,
ग़लत था, तभी तो सही था
तजुर्बे का अभिमान क्यूँ होता है,
तजुर्बा तो सिर्फ़ ग़लतियों से होता है,
पर इंसान को अभिमान का बहाना चाहिए ।
मैं जहाँ हूँ, शायद कोई मेरी जगह होना चाहता होगा,
जिस बात पर मैं हँसता हूँ,
वो उसी बात पर रोना चाहता होगा,
पर वो वहीँ है, और मैं भी यहीं हूँ,
पता नहीं यहाँ से - ये बादल उड़ कर कहाँ जाते हैं ?

कहाँ क्या कमी है?
कहाँ क्या नहीं है?
मैं क्या तलाश रहा हूँ?
ज़्यादा खुश? या ज़्यादा उदास रहा हूँ?
इतने लोग, रात, रोज़ घर जाते हैं?
क्या कभी कुछ काफ़ी होगा?
किसने आखिर पहना है चोगा?
हर मोड़ से आगे, क्या रास्ते कहीं ले जाते हैं?
या सालों बाद भी वहीँ छोड़ आते हैं ?
ये बादल उड़ कर कहाँ जाते हैं?
ख़ैर ।

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