लोग कहते हैं,
ग़ालिब के पोस्टर लगाने से कोई ग़ालिब नहीं बन जाता।
सच कहते हैं ।
उसका दिल कहाँ से लायें?
कहाँ है वो शौक़-औ-जिग़र,
न इल्म उर्दू का,
उन्स का ज़ौक हमें किधर ।
गौर फरमाइए हुज़ूर,
इस तस्वीर में, मैं उनके साए में खड़ा हूँ,
वो हैं उजला नूर,
मैं स्याह अँधेरा,
बजा फरमाया आपने,
ग़ालिब के पोस्टर लगाने से कोई ग़ालिब नहीं बन जाता।
वो बन जाऊँगा तो जुनूँ किसका रहेगा?
किसके अशआर, आयतें मान पढूंगा,
न उन में खुद को देखता हूँ,
न उनसा बन सकूंगा,
आपने कहा- "ग़ालिब के पोस्टर लगाने से मैं ग़ालिब नहीं बन जाऊँगा"
क्या कहा आपने, के दिल को सुकून पहुंचा है,
आपने ग़ालिब का और मेरा नाम, साथ जो ले लिया,
हिंदी में, अंग्रेजी में, या के साफ़ उर्दू में हो,
अब तो हम इसी धोखे में रहते हैं
लोग कहते हैं,
ग़ालिब के पोस्टर लगाने से कोई ग़ालिब नहीं बन जाता।
सच कहते हैं ।
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