Monday, December 31, 2012

तो क्या

यूँ आजकल कुछ कम हो गया है लिखना
ग़म-ए-दिल बाज़ार में उछालें भी तो क्या

उन्हें शौक़ है हमारे इश्क़ को शौक़ कहने का
उनका शौक़ हम उठालें भी तो क्या

जज़्बात कोई जज़्बात में नहीं तोलता
महसूस की कीमत हम लगा लें भी तो क्या

एहद-ए-वफ़ा हमने निभाई है पूरी
वो हमसे अदावत निभालें भी तो क्या

शिकवा तो ग़ैरों से होता है
वो इतना कभी अपना बना लें भी तो क्या

उनका दर ही कआबा-काशी है
निकालें, हटालें बुलालें भी तो क्या

न मलाल, न सवाल न हमें हसरत ही कोई
इस इश्क का मखौल वो उड़ालें भी तो क्या 

Sunday, December 30, 2012

ग़म नहीं

अश्क़ ज़रिया हैं ग़म नहीं

इश्क़ तो ले आया दर पे तेरे
पर जिसने रोका वो भी एहम नहीं

मर्ज़ होता तो जाँ लेता
इश्क़  है, इसका  कोई मरहम नहीं

रात का सुकून वेह्शत लगता है
जैसे रात में भरते  हम दम नहीं

अश्क़ आशिक़ी में बहाए इतने
के अब तुम नहीं या हम नहीं

दर्द से क्या बचेगा आशिक़
जो दर्द न दे वो सनम नहीं

अश्क़ ज़रिया हैं ग़म नहीं
एहसास है, कलम नहीं
बह निकलें तो दरिया
जो रुक जाएँ आँखों में
तो तूफां से कम नहीं

इस बार न बहें, रुके रहें
साहिलों के सर झुके रहें
नज़र से बाँध नज़र ये कह सकूँ
के दर्द तो है पर कोई ग़म नही

Sunday, November 11, 2012

दोपहर

एक कमरा... मखमली दोपहर में ले लूं

इत्मिनान से... आराम से
छनती धूप में
लेट कर उसे याद करूँ 


सर्दी इतनी हो के धूप अच्छी लगे

न जाने इन दोपहरों में क्या है
गुनगुनी हवा और धूप की टुकड़ियों में क्या है
अटकती हैं मन में
रूखी इतनी के खिंचती हैं
बाक़ी पहरों में जो खला, खलता है
उसी खले में इत्मिनान से... आराम से
लेट कर उसे याद करूँ

शेहर पराया हो तो और अच्छा
मैं अजनबी रहूँ
अलग रहूँ, तन्हा रहूँ
थोड़ी सी अल्खत रहे
इक आधा सा डर रहे
शाम होने से पहले का वो आधा घंटा
धूप  के  ठन्डे पड़ने से पहले का
इतना लम्बा चले, इतना लम्बा चले
और मैं लेट कर उसे याद करूँ

लगातार चलने वाले ग़म के बाद का ग़म
नया नया ताज़ा ताज़ा
मज़ा देता रहे
इस मखमली दोपहर में
लेटूं और आँख लगे
आँख लगे, न आँख खुले

Monday, September 10, 2012

एक ऐब न मुझ में

कैसा मैं इंसान बना
एक ऐब न मुझ में

सब सच कहता हूँ
बच बच रहता हूँ
छल से मैं
अपने हिसाब से सच मरोड़ के
कुछ भी कह जाना झूठ थोड़े ही है
अरे ज़रा से मनघडंत है, झूट थोड़े ही है

सच न कहना, झूठ थोड़े ही है

और हाँ नशा भी नहीं करता मैं

खुद से इतना खुश हूँ तो
क्यूँ भुलाऊं खुद को मैं
क्यूँ डूबूँ  नशे में 
क्यूँ धुंधला देखूं मैं
मुझे नशा है खुद का
ये ऐब तो नहीं
खुद से तंग नहीं आता मैं
ये ऐब तो नहीं
खुद से बेहतर दुनिया में कोई भी साथ कहाँ
जी नशा है लहू में, वो मदिरा में बात कहाँ

जो मुझको दर्द करे
मैं उसको दर्द करूँ
जो मुझसे प्रेम करे
मैं उसको दर्द करूँ
फिर रोऊँ खुद पर मैं
ये ऐब तो नहीं
बचपन से इस जग ने
येही पाठ सिखलाया है 
तो मुझे किसी से मोह नहीं
मोह तो यूँ भी माया है
देखा - दो पल में कैसे
जग को दोष दे दिया
इसके नाम ही सारा
आक्रोश दे दिया
ये ऐब तो नहीं

मुझे किसी पे क्रोध नहीं

संत हूँ
भौहें नहीं चढ़ाता मैं
चुपचाप पी जाता हूँ विष सारा
मान गए न?
तो ये झूठ न रहा
तो मैंने झूठ न कहा
देखा
एक ऐब न मुझ में

बात कटु न कहता मैं
पर सच तो कटु ही होता है
तो सच कभी न कहता मैं
ये ऐब तो नहीं

ठेस कोई न पहुंचाई मैंने
कभी किसी को भूले से
पहुंचाई होती तो मुझे पता होता
है न? नहीं पता तो नहीं पहुंचाई होगी
एक ऐब न मुझ में

माफ़ आसानी से कर देता हूँ
एक ग़लती तो भगवान् भी माफ़ करते हैं न

इतना अच्छा हूँ मैं तो
सारे लगते हैं बुरे मुझे
ये ऐब तो नहीं

भला जो देखन मैं चला
भला न मिलेय कोए
जो मन खोजा आपना
मुझसे भला न कोए






Wednesday, August 15, 2012

हम आज़ाद है

सालों पहले एक अधमरा दुबला सा आदमी
अगस्त की आधी रात, हांफता हुआ आया और बोला
"हम आज़ाद है"
मुट्ठी भर मुस्कुराते चेहरों में एक बच्चा भी था
येही कोई छे एक साल का
वो बोल पड़ा
"अब करना क्या है"
तो दुबला सा आदमी दो पल को चुप रहा
फिर बोला - "ये अब तुम जानो"

"अम्मा कल स्कूल में १५ अगस्त मना रहे हैं,
मुझे तिरंगे वाली कमीज़ पहना दो"
"नहीं बेटा - वो हम नहीं कर सकते, गैर कानूनी है"

"यार नौकरी तो काबलियत पे मिलती है न
या local भाषी होने से?"

"हर form में मज़हब का column तो होना चाहिए भाई
पता कैसा चलेगा वरना?"

"२८ साल की लड़की की शादी नहीं हुई तो ठीक नहीं है न? बेचारी "

"५ साल हो गए शादी को???? अब तक बच्चे नहीं हुए???"

"देख बेटा - अब तो तुझे कमाना चाहिए"

"कोई बीमारी है आपको? Heart की? Diabetes?
फिर Medical Insurance नही मिल सकता, sorry"

"पहले Learners' license फिर पक्का वाला"
"पर मुझे गाडी चलानी आती है। License खो गया था बस"

"राज्यों में बांटना चाहिए न देश को। नहीं तो पता कैसे चलेगा
मराठी कौन, बंगाली कौन, गुजराती कौन।

"नाम या उपनाम से मज़हब, मात्रभाषा, जात का पता तो लगना चाहिए भाई
पता तो चले के हम जिस से बात कर रहे हैं वो कहाँ का है"

"देश छोड़ कर जाना है तो सरकार से पूछना पड़ेगा न...
कल को वहां किसी को मार डाला तो?"

"राष्ट्रगान पे खड़े नहीं हुए तो उसकी इज्जत नहीं है समझो"

"लिखो, जो लिखना है लिखो
पर रामायण, महाभारत, गीता, चाचा चौधरी, पिंकी, बिल्लू
वगेरह पर सवाल न उठाना। ये हमारी संस्कृति है न"

"सुबह सुबह नहा लो"
"कितना भी कमाओ, savings ज़रूर करो"
"छोटे भाई/बहन की शादी का खर्चा तो करना ही पड़ेगा"
"कमाओ। returns भरो"
"Contract के हर पन्ने पे sign करो। Same sign"
"खिड़की तोड़ कर Balcony मत बनाओ। बिल्डिंग गिर सकती है।

"गाडी का Insurance तो हो जाएगा, पर plastic parts का नहीं है।
मतलब tyre, bumper, mirrors, handles, wheel caps, seats, dashboard, cladding...
बस इनका नहीं होगा"

"अरे लड़की भेज रहे हैं... उसके कपडे, बिस्तर, ज़ेवर सब साथ में भेजेंगे लड़कीवाले"
"जलो या दफ़न हो जाओ"
"हमने घिसा तुम भी घिसो"
"छोटे हो - सवाल मत पूछो"
"जो बड़ा वो ज्यादा समझदार। बस । बोल दिया न"
"शादी से पहले प्यार मत करो"
"शादी के बाद प्यार मत करो"
"प्यार किया? शादी मत करो"
"जितना कहा जाए उतना करो"
"१८ साल के बाद ही वोट करो"

हम आज़ाद है
1832 में बने british rule के तहत
हम आज़ाद है
1947 में हुई एक छोटी से amendment के तहत
हम आज़ाद हैं
चलो अब जहाँ भी हो
तिरंगे को सलाम करो ।










Saturday, August 4, 2012

ग़ज़ब किया

ग़ज़ब किया तेरे वादे पे ऐतबार किया
तमाम रात क़यामत का इंतज़ार किया

ये शायद साँसों से कोई राब्ता रह गया
के यूँ तो हमें चलता मज़ार किया

बेबसी ख़ुद की पर फ़ितने कसते हैं हम
अपनी मायूसी पे ख़ुद अशआर किया

नींदों ने अब दस्तक भी न बख्शी
के इतना हमने उन्हें बेदार किया

हम तन्हा हसरत-ए-वस्ल लिए जागते रहे
बयान-ए-फ़ुर्कत उन्होंने सर-ए-बाज़ार किया

Sunday, June 24, 2012

अच्छा

क्या ऐसा नहीं हो सकता
के मैं बेदस्तक, दबे पाँव
आ जाऊं और बैठ कर देखा करूँ

देखूं जब मेरे रोज़ मर्रा के फैसले तू ले
और मैं हाथ में चाय का कप लिए
ऊंघती आँखों से मुस्कुराऊँ
देखूं
जब तू छीन ले सब मुझसे
और बात न करे अब मुझसे
न तू मुझसे करे सवाल
के क्यूँ ताकता मैं हूँ
देखूं
जब खेल के मेरे आंसुओं से
तू ज़ख्म इलज़ाम दे मुझे
जब थाम के हाथ तू काट ले मुझे
देखूं
जब थक के शाम को
तू पड़ जाए बिस्तर पर
और गुस्सा अपना मुझ पे निकाले
मारे दो थप्पड़ और चूम के होश उड़ा ले
क्या ऐसा नहीं हो सकता
के मैं बेजान, लिए घाव
आ जाऊं और बैठ कर देखा करूँ

तेरे हाथ से दूध की थैली फिसले, बिखरे
किसी राह चलती बिल्ली का नाश्ता हो
देखूं
जब आँख से निकले आंसू लापता हों
जब नाराज़ रहे तू मुझसे
और जब आवाज़ दे मुझे
तो मैं न आऊँ पहले
फिर पल में आ जाऊं
क्या ऐसा नहीं हो सकता
के मैं बेजुबान, गूंगे भाव
आ जाऊं और बैठ कर देखा करूँ

दोपहर के बादल से तू बात करे
और वो टूट के बरसात करे
जब किसी कबूतर की बीट
गिरे सर पे तेरे, मैं हंसूं और
किसी अच्छी खबर का इंतज़ार करूँ
सड़क पार करते हुए कोई गाड़ी उड़ा दे तुझे
टांकें लगें मुंह के अन्दर
न बोल सके तू और मैं बात करूँ
देखूं
जब तू कुछ चबा न पाए
जब दर्द से कार्राहे
आंसू न आये पहले
फिर पल में आ जाए
क्या ऐसा नहीं हो सकता
के मैं बेनिगाह, पूरे ताव
आ जाऊं और बैठ कर देखा करूँ

जब जोड़ों में दर्द रहने लगे
दूर का कम दिखने लगे
बच्चे कटे कटे
बच के निकलने लगें
पीठ पीछे बुराइयाँ करें सब
जब तू बालों में चांदनी भर दे
हड्डियों को पानी कर दे
अगले दिन की बात हो
फिर पल में रात हो
मैं बेलगाम, खुली नाव
आ जाऊं और बैठ कर देखा करूँ
क्या ऐसा नहीं हो सकता ?

हो तो सकता है शायद
पर न हो तो अच्छा
या हो जाए तो अच्छा शायद
हो जाए तो अच्छा
तो हो ही जाए
या न हो तो बेहतर
पर हो जाए तो अच्छा

Sunday, April 15, 2012

हो गया

उल्फ़त के लिए याद करेगा ज़माना हमको
जीने का सबब ही मरने की वजह हो गया

जिस दर्द की उम्मीद में जीते रहे
जाँ तक आते आते सज़ा हो गया

क़त्ल तो क़त्ल है फिर भी
नज़र-ए-शौक़ से हुआ तो अदा हो गया

ये दिल जब तक रहा बेज़ार रहा
काम का हुआ तो क्या हो गया

पहले पहल चैन और अब ये आखरी दर्द
जो था उनके नाम से हवा हो गया

मैं न रहा बन्दा न रहा
जब से कोई ख़ुदा हो गया

सुना है हर घर में नाम हमारा लेते हैं
छोटी सी बात से नाम बड़ा हो गया

ख़त मेज़ पर ही पड़ा रहा रात भर
अब ये मर्ज़ बेदवा हो गया

Monday, April 9, 2012

सलाम

रोज़ गली में दिख जाते थे
हम मुस्कुरा कर, नज़र झुका कर सलाम कर लेते
बस तभी से सिलसिला जारी है इबादत का

सब कुछ लुटा चुके हैं इस धंधे में हम
हमें न था इल्म इस तिजारत का

परस्तिश ही करनी थी सो कर ली
हमें क्या दैर-ओ-हरम की ईमारत का

इश्क़ में तो सब बराबर होते हैं
फिर क्यूँ उन्हें है ज़ौक खुदाई का
क्यूँ हमें है इंतज़ार इनायत का

Sunday, April 8, 2012

चाँद वाला आदमी

मस्त चाल चलते थे वो

न दीन-दुनिया की चिंता
न कोई उनके लिए ख़ास दिन था
रातों से ख़ासा लगाव था शायद
चाँद सा कोई घाव था शायद

समेटने को कुछ था नहीं
पर थैलियाँ जमा करने का शौक़ था
मिठाईयों का ऐब कह लो चलो
पर हंसी का उनको ज़ौक था

झूलते से, लटकते से
चुटकियाँ बजा बजा के चलते थे
जैसे हर चीज़ का अचम्भा हो
ऐसे आँखें मलते थे

एक थैली में बंद कर रखे थे भगवान्
जैसे बुतों में बसी थी उनकी जान
बैठ कर उनके सामने कोई भी बात कह लो
किसी को खबर न होगी कानो-कान

सिर्फ ठन्डे पानी से नहाते थे
और अपने पजामे का नाड़ा ख़ुद ही बांधते थे
बिन शब्दों के बात करते
आवाज़ में भाव कह जाते थे

रात रात रोना शुरू कर दिया था कुछ दिनों से
उखड़े उखड़े रहने लगे थे अपनों से
अस्पताल भी सीटी बजाते हुए गए
रिश्ता जुड़ने लगा था सपनों से

घंटों चाँद ताकते
जैसे पडोसी की खिड़की हो
ऐसे आसमान में झांकते
और उन्हें चाँद सा कोई घाव था शायद

एक बंधी ज़िन्दगी चलती रहेगी
कुछ दिन को दिनचर्या में कमी खलती रहेगी
अब कमरे की दीवारें हाथ मालती रहेंगी
थैलियाँ चैन की सांसें लेती रहेंगी
अब रात कमरे से रोने की आवाजें नहीं आएँगी
थैलियों में बंद भगवान् रिहा हो गए
बहुत चालू थे, जाने का वक़्त भी क्या चुना
चाँद पूरा है आज

एक तरह से अच्छा है
हम और वो - दोनों रिहा हो गए
पर तब हुए, जब बंधन की आदत हो चुकी थी
पर आदत का क्या है
साँसों सी है
एक दिन छूट ही जायेगी
जब रोज़ खाली कमरा दिखेगा
अपने आप उम्मीद टूट जायेगी

१०० मुश्किलों को पल में हल गए वो
मस्त चाल तो चलते थे
पर क्या मस्त चाल चल गए वो ।

Thursday, April 5, 2012

इत्र

उनके नाम का इक लिफ़ाफ़ा
कमीज़ की जेब में रख कर चले
जो क़रीब से गुज़रा पूछता है
ये कौन सा इत्र है जनाब

Tuesday, April 3, 2012

यूँ ही

इश्क़ ने तेरे ख़ुदा ही माना मुझको
हाँ पर कभी बंदा न जाना मुझको

हर आशिक़ को ख़लिश में लुत्फ़ आता है
इस में मज़ा न आना मुझको

मुझसे परस्तिश का इख्तियार भी छीन लिया
न रास आया मेरा ही बुतख़ाना मुझको

ख़ुदा से शिकवा रहा ता उम्र
अब ख़ुद से ही होगा बचाना मुझको

छीन लिया मेरा जहां मुझसे
थमा दिया सारा ज़माना मुझको

तेरी नाराज़गी का इल्म नहीं
उम्र रही तो कभी समझाना मुझको

अच्छा था जब बुतों पे सौंप रखा था
अब कौन कहेगा की कब है ख़ाक हो जाना मुझको

Friday, March 30, 2012

गमसर्रत

आज बेदारी में एक काम किया मैंने
कागज़ पर इक तरफ़ ग़म लिखे
और दूसरी तरफ़ मसर्रत
फिर एक कोने में खांचा उम्मीद का बनाया

ख़ुद-ब-ख़ुद चलने लगी कलम मेरी
जैसे तीरगी में तीर कोई चलता है
जैसे शब् को दिया कोई खलता है
एक तरफ़ से वर्क़ भारी होता गया
ज़ाहिर है वो खांचा ग़म का था

दो दफ़ा कुछ लिख कर काटा था
मसर्रत के हिस्से में जो बांटा था
क्यूंकि याद आया
की मसर्रत का ये किस्सा भी तो
मैंने ग़म से ही छांटा था

इस ग़म से निजात क्या हो
दरमान्दा हूँ, नशात क्या हो
इस ग़म की वजह कोई पूछे तो
मुस्कुराता हूँ
अजब है ग़म और मसर्रत का ये राब्ता
एक ही दूसरे का रास्ता बनाता है
पुकारो एक को तो दूसरा चला आता है
अगर ये दिन है तो रात क्या हो

फिर सोचा की चलो कुछ तो मसर्रत में भी डाल दूं
ग़म पे उठाने को, कुछ तो सवाल दूं
वो जो दो पल तेरे साथ गुज़रे थे
मसर्रत के नाम किये
जो नाम लिया था तूने लरजते लबों से एक बार
मसर्रत के नाम किया
जो अपने अरमान में मेरा ज़िक्र किया था
मसर्रत के नाम किया
और सोच कर वक़्त ज़ाया न किया मैंने
ग़म के खांचे को उसकी औकात पे ला दिया मैंने
पर एक हलकी सी हंसी से पहले देखा
की उम्मीद का भी खांचा एक बनाया था कोने में

अब औकात भी दिखाने के लिए इसको भरे कौन
इस सिलसिले से तो भागता फिरा हूँ
अब इसे रवां करे कौन

Thursday, March 29, 2012

लफ़्ज़ों का फ़रेब

इन लफ़्ज़ों के फरेब में मत आना
जब इनकी सबसे ज्यादा ज़रुरत होती है
तब ये गायब होते हैं ।

अक्सर एक लम्बे चौड़े सवाल का जवाब
खाली होता है
और इल्जामों का तो ऐसा है
मार जाते हैं लफ़्ज़ों को
बदहवासी, बेख़ुदी, बेदारी
मौका मिला और खिसक लिए ।

हमने जज़्बात अपंग कर रखे हैं
हालांकि जज़्बात तो यूँ भी बेजुबान होते हैं
मसलन इश्क़
अच्छे अच्छे गूंगे पड़ जाते हैं
क्यूंकि घर से निकले थे
बयान तैयार करके
वक़्त आया और लफ्ज़ फिर खिसक लिए

मुआफी का मौका
फिर गायब
इंतज़ार, वस्ल, फुरक़त, ग़म
गायब
जहाँ एक बात में बात बन जाती
वहां गायब

इसी लिए शायरों ने इनको
ख़रीद रखा है
स्याही से बाँध कर
क़रीब रखा है
अब वहां से खिसकें भी तो कैसे ?
पर साले हैं बड़े कमीने
मौकापरस्त इतने के बस चले तो
किताबों से भी खिसक लें
वक़्त रहते वहां भी कहाँ मिलते हैं बेवफ़ा

चुपी से ऐतराज़ है ज़माने को
तैयार रहता है आज़माने को
और ये कमबख्त
अकेला छोड़ जाते हैं

मुझसे कोई शायरी की तरकार न रखो
शायर की कुर्सी मेरी नहीं
मुझ पर तुम सरकार न रखो
कहनी अपनी बात
हमें न कुछ ख़ास आई
जो ख़ामोशी से हुई है
हमें तो बात वही रास आई

Friday, March 16, 2012

सूई

एक कशमकश में ख़ुद को खोता रहा रात भर
इक सूई सी कोई चुभोता रहा रात भर

इक मसर्रत की लहर सी उठी है
यही फरेब होता रहा रात भर

दुनिया की नज़र से बचा कर
अपना नसीब धोता रहा रात भर

ये किसकी ख़ाक उड़के आँखों में आ रुकी
ये किसके आंसू रोता रहा रात भर

दिल की बस्ती में आग लगी थी शायद
चैन की नींद सोता रहा रात भर

नाउम्मीदी से रिश्ता रहा यूँ भी
क़ायम ये समझौता रहा रात भर

हर लम्हा हिम्मत दगा दे गयी
सिरहाने पड़ा सरौता रहा रात भर

इक

इक होवे जो इश्क़ करे
इक होवे जो क़द्र करे

Thursday, March 15, 2012

दूर

कुछ तो ऐसा मेरे लफ्ज़ ज़रूर कहते हैं
जो सुनने वाले इनसे दूर-दूर रहते हैं

Wednesday, March 14, 2012

आशिक़ शायर आशिक़

मेरे लफ़्ज़ों से धोखा खा जाते हैं शायद
नादान एक शायर में आशिक़ ढूँढ़ते हैं
फिर आँखों के फ़रेब में आ जाते हैं शायद
नादान एक आशिक़ में शायर ढूँढ़ते हैं

जो भी कहूँ, झूठ समझते हैं
मेरे ग़म पर फ़ितने कसते, हँसते हैं
अब जब अपने पे हंसने लगा हूँ
तो मुझ में कायर ढूँढ़ते हैं
नादान एक आशिक़ में शायर ढूँढ़ते हैं

बेख़ुदी में जब भी नाम लिया कोई
जैसे जलता खंजर थाम लिया कोई
आ गए, सही, मज़हब, दायरे में तोलने वाले
आ गए मेरी हस्ती टटोलने वाले
ज़र्रा-ज़र्रा क़तरा-क़तरा इक-इक ढूँढ़ते हैं
एक शायर में आशिक़ ढूँढ़ते हैं

ये दुनिया तो ठीक थी
पर तुझे क्या हुआ यार मेरे
क्यूँ तुझे भी लगते हैं हाव-भाव बेदार मेरे
क्या तुझे नहीं लगते अलफ़ाज़ तलबगार मेरे
मैं वो शायर नहीं जिसे इश्क़ हो गया
मैं तो वो आशिक़ हूँ जो शायर हो गया

Friday, March 9, 2012

इश्क़ ग़रीब

आशिक़ सारे फुक्रे होते हैं

जब देखो जुबां लटकाए
दर-एक-बज़्म पे पड़े रहते हैं
दिन ढले चाँद चढ़े
यार के इंतज़ार में खड़े होते हैं
जब हाथ न कुछ लगा
तो इंतज़ार को धन-दौलत कह लिया
बड़े बेश्कीमती इनके दिल के टुकड़े होते हैं
आशिक़ सारे फुक्रे होते हैं

शायर जो हो गए आशिक़
तो जैसे मुफ़लिसी को चाँद लग गए
इंतज़ार, उम्मीद, हसरत
हर बात पे मिसरे होते हैं
हर शायर को इश्क़ हुआ
आशिक़ चाहे शायर हो
आशिक़ सारे फुक्रे होते हैं

सीधी सी बात है न
जिसे हसरत है - ग़रीब है
ख्वाब-औ-ख्वाहिश है - ग़रीब है
जिसे इंतज़ार है - ग़रीब है
भीख मांगता है - ग़रीब है
हाथ फैलाता है - ग़रीब है
अब ये मत कहना के
आशिक़ होंगे ग़रीब पर इश्क़
नायाब, महान, बेश्कीमती है
पर भाई ग़रीबी ही तो ग़रीब रखती है
आशिक़ ग़रीब तो इश्क़ ग़रीब
और दिया भी क्या है इश्क़ ने
होश, नींद, चैन, अक्ल,
ख़ुदी, खून... सब तो छीन लिया
इश्क़ वो ग़रीबी है जो जान के साथ ही जाती है

मीर, ज़फर, ग़ालिब, ज़ौक
फिर हरिवंश, कैफ़ी, अमृता, साहिर
कौन सा शायर जिसे इश्क़ न हुआ
कौन सा, जो मुफ़लिस न मरा
मसर्रत के किस्से कहाँ
सुनाने को बस नाला-औ-दुखड़े होते हैं
आशिक़ सारे फुक्रे होते हैं

दुनिया से छिपा फिरता है
रोज़ अपनी ही नज़र में गिरता है
शैतान का जाना है ये इश्क़
हमेशा अधूरा ही रखेगा
आशिक़ और इंसां के बीच
एक ग़रीबी की लकीर बनाके रखेगा
बन्दे से हो या भगवान् से
ये कमबख्त फ़कीर बना के रखेगा

Core thought - Garima

उठ मेरी जान

उठ मेरी जान, मेरे साथ ही चलना है तुझे

ज़िन्दगी जेहद में है सब्र के क़ाबू में नहीं
नब्ज़-एक-हस्ती का लहू कांपते आंसू में नहीं
उड़ने खुलने में है नेह्क़त खमे-गेसू में नहीं
जन्नत एक और है जो मर्द के पहलु में नहीं
उसकी आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे
उठ मेरी जान, मेरे साथ ही चलना है तुझे

क़द्र अब तक तेरी तारीख़ ने जानी ही नहीं
तुझमें शोले भी हैं बस अश्कफिशानी ही नहीं
तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है एक चीज़ जवानी ही नहीं
अपनी तारीख़ का उनवान बदलना है तुझे
उठ मेरी जान, मेरे साथ ही चलना है तुझे

- कैफ़ी आज़मी

मीर


आज कल
एक-आध घंटे के लिए
मीर की एक क़िताब
सीने से लगा के घूम रहा हूँ
कुछ तो ज़हन में चला जाएगा

क्या तक़लीफ़ थी इन शायरों को
इतना रंज, इतना दर्द क्यूँ था इन्हें ?

हाँ सुना तो है
के स्याह ग़म, स्याही में ढल जाता है
ग़म से ही तो
मिसरों में वज़न आता है
भई हर किसी को
दुसरे के ग़म से लुत्फ़ आता है
और शायर-जात का हर उस्ताद
सुरूरज़दा हो, हर शब्
अपने ही ग़म का जश्न मनाता है
एक डोर और है
हर शायर जिस से बंधा है
ये धागा है इश्क़ का
ज़ाहिर है, क्यूंकि
इश्क़ से बड़ा क्या ग़म ?

एक बात और परेशां करती है मुझे
ये सारी नज्में, बे-वक़्त, बे-तारीख़ क्यूँ हैं?
पर ख़ुदा--सुख़न 'मीर' तो ख़ुद भी बे-तारीख़ हैं
ख़ुदा कब जन्मा, ये बन्दे कब जाने हैं

अब भी अशआर कहो तो नए से लगते हैं
या तो हम आगे न बढें हैं तब से
या वो शायर मरे नहीं
लिख कर हाल-ए-दिल ज़रिया-ऐ-तक्खलुस
वो कायर डरे नहीं

काली सी क़िताब है
इक तरफ़ उर्दू है
इक तरफ़ हिंदी
इक तरफ़ उलटी, इक तरफ़ सीधी
वक़्त रहते वरक़ पीले हो चुके हैं
इतिहास और रेख्ते में
हाथ मेरा ज़रा ढीला है
शायद ज़रा सी 'मीरगी' आ जाए

सुना है जहाँ मज़ार थी मीर की
आज वहां रेल की पटरी है
मिट्टी अब भी गर्म है आतिश--जिग़र से
जाने अनजाने में लोहा चलना ही था

मैं भी कुछ भी बोल रहा हूँ
कभी क़िताब की बात
तो कभी मज़ार
कभी रंज-औ-ग़म का ज़िक्र
तो कभी तारीख़ की फ़िक्र
न तुक बैठा है न जुबां साफ़ है
पढ़ेया मीर क़सीदा पढ़ेया
इस नशे में सब माफ़ है

दीवान-ए - मीर में बाज़ार है ग़म का
ख़रीद नहीं पाया कोई मगर
दाम किसी न लगाया भी नहीं
न कोई बोली उठी
न अब अहर्फियों का ज़माना रहा
न कोई कुछ दे पाया, के व्योपार होता
ये तो आशिक़ी पे बिकता है
होता है तो
एक नज़र में खरीदार दिखता है
इक खुशनुमा सी दीद हुई - ख़रीद हुई

ये ज़ौक अब कहाँ रहा
ये कोई आयतें नहीं जो
दिन में पांच बार पढ़ी जाती हैं
और ये भी तो बस कहने की बात है
कौन सी ये मुझ में उतर आएगी
न मेरी भाषा है ये, न मेरा धर्म
पर अभी तो सीने से लगाई है क़िताब
आगे आगे देखिये होता है क्या
यहाँ हम मीर बनने का ख़्वाब देखते हैं
कहता है ज़माना जगा कर हमको
तुझे मीर बनना है सोता है क्या
पर अभी तो सीने से लगाई है क़िताब
आगे आगे देखिये होता है क्या

Wednesday, March 7, 2012

आज हूँ, कल नहीं

इतना न मेरे पास आओ
आज हूँ मैं, कल नहीं

ख़ुद अपने लिए
'बेकस' लफ्ज़ का इस्तेमाल करता हूँ
कायर हूँ,
लफ़्ज़ों के पीछे छुपता हूँ
तन्हाई से इश्क़ है मुझे
क्यूँ तन्हाई से इश्क़ करता हूँ
ये राज़ ज़रा सुलझा लूं, पर तुम
इतना न मेरे पास आओ

नाराज़ है ये शबे-तारीक़
आज चाँद भी साथ न लायी
इस अदावत की वजह कौन जाने
ये बेदार क़दम
बंधे किस गिरह कौन जाने
इस सहरा में सहर न हो तो अच्छा
आगे कोई शेहर न हो तो अच्छा
जिस जगह से तुम आवाज़ लगा पाओ
इतना न मेरे पास आओ

बेबसी के सिवा है भी क्या
इसी से तो सब परेशां रहते हैं
कुछ शिकस्ता से जज़्बात के सिवा है भी क्या
हम रहते हैं, फ़ना रहते हैं
शक्ल-औ-सूरत पे न जाओ
आग हूँ
आज हूँ, कल नहीं

मेरी बेईश्की से शिकायत है
यानी मेरे इश्क़ को पहचानते हो
तो बेवजह न कोई इलज़ाम लगाओ
आज हूँ मैं, कल नहीं
अपने दर्द को मेरा रकीब न बनाओ
इतना न मेरे पास आओ
आज हूँ मैं, कल नहीं ।

Tuesday, March 6, 2012

उस रात

उस रात एक क़ब्रिस्तान जला था

मग़र ये ख़बर कहीं दफ़्न रही शायद
फैलती तो आग लग जाती
उस रात हवा में कुछ था
या ये फ़क़त गुमा है
उन लपटों में चीखें तो नहीं थी लेकिन
एक-आध सरगोशी सी थी शायद
चाँद भी शायद
एक पहर पहले ढला था
उस रात एक कब्रस्तान जला था

कभी मिलना तो चाहिए उनसे
जो आग लगा के साहिर बन गए कुछ लोग
वहां मज़हब का परचम लिए
मर कर भी, क़ाफ़िर बन गए कुछ लोग
हाँ एक मज़ार बच निकली
पत्थर पर जो नाम लिखा था
सुना है वो काफ़िरों का पला था

Thursday, March 1, 2012

लफ़्ज़ों में क्या रखा है

वो ढूंढते हैं इश्क़ मेरे लफ़्ज़ों में
कोई कहे क्या के लफ़्ज़ों में क्या रखा है

इसका सबब तो वही जानें
एक तो शौक़ है शायरी का
एक कहते हैं हमने बातों में फंसा रखा है

मुआमले में दिल के अक्सर हम सोचते हैं
अक्सर हम सोचते हैं के सोचने में क्या रखा है

उनकी बज़्म में आ कर सब तमाम हुआ जाता है
इसे छोडें तो दुनिया में क्या रखा है

इस उम्र से पहले का राब्ता है
वर्ना इस उम्र का तो सब कुछ यहाँ रखा है

हर सवाल का जवाब है तो हमारे पास
पर इन बेतुके सवालों में क्या रखा है

साया तो बेतुका सा है, सो है
उस कम्बख्त का क्या जिसने ये साया बना रखा है

मेरे मज़हब से परहेज़ है उनको
यां मेरे मज़हब ने मुझे क़ाफ़िर बना रखा है

Saturday, February 25, 2012

बंजर चांदनी

और कितने अश्क़ पीयेगी,
ये ख़ुश्क रहेगी,
बंजर चांदनी

हर दरार प्यासी है
एक हसीं उदासी है
जैसे आज सीने में लिए बैठी है
खंजर चांदनी

इस ज़मीं से ख़ासा इश्क़ है इसे
हर बार उतर आती है
न सोचती है किसी का न देखती है
मंज़र चांदनी

उसकी आँखों के उजाले से
साँसों की उम्मीद है
दो पल को और जी लूं जो भर लूं
अन्दर चांदनी
मगर क्या ज़िन्दगी देगी ये
बंजर चांदनी

मगर लगता है जैसे
इस ज़मीं से चाँद उगाती है ये
बंजर चांदनी ।

Monday, February 20, 2012

ये दुनिया है किसके पास

अरे यार ये दुनिया है किसके पास ?

आशिक़ तो कहते हैं उन्होंने छोड़ रखी है,
अपनी ही किसी और दुनिया में रहते हैं
उनके पास जिन्होंने इसे डुबा रखा है
रंगीले, बदमस्त पैमानों में ?
या उनके पास जो दुनिया भुला कर,
और ही किसी नशे से परस्त हैं ?

पंडितों और मुर्शदों से तो ये 'मसला' दूर ही रखो
हाँ भई 'मसला'
ज़रा सी बात पूछो तो 'मसला' बन जाता है
और ये तो यूँ भी बड़ा मसला है की
ये दुनिया है किसके पास ?

शायर ता-उम्र मुंह फेरते रहे
जाने किस दुनिया पे फ़ितने कसते रहे
उनकी नज़र से देखो तो हराम थी ये
पर शायर की नज़र का क्या ऐतबार ?
शायर तो उस नस्ल का है
जिसे नुख्स में मज़ा आता है
जब उसकी नहीं तो कैसे हक़ जताता है
के ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है ?
ठोकर मारने का हक़ रखते हो तो बताओ
ये दुनिया है किसके पास ?

इंसानों के बाज़ारों में मिलती है क्या?
कितने की पड़ेगी?
मिल गयी तो कितना चलेगी?
गारंटी या छूट मिलेगी?

मैंने कहीं बिकते देखी तो नहीं
मगर मुझ में भी तो शायर वाला कीड़ा है
हक़ से लात मार सकता हूँ
पर ग़ालिब, साहिर, फैज़ के मुक़ाबले
मेरा वक़्त दूसरा है
उन जैसा पागल नहीं हूँ
और उनके जैसा, पूरा दिल के भरोसे नहीं
ज़रा सी अक्ल से काम लेता हूँ
इसी लिए तो कहता हूँ
के हक़ से लात मार सकता हूँ
मगर कोई कम्बख्त ये तो बता दे
के ये दुनिया है किसके पास
बस एक बार मिल जाए, तो छोड़ दूं ।

Wednesday, February 15, 2012

जंग जायज़ इश्क़ गुनाह

जंग जायज़ इश्क़ गुनाह

जग ये छीन लेता है, जग से छीन लेता है
सुकूं नहीं ये कुसूर है
बेशुमार हो तो कर दे बेपनाह,
इलज़ाम जायज़, इश्क़ गुनाह

जो इश्क़ कर सके, वही बैर रख पाता है
जग से लड़ने की आदत में,
ख़ुद से, इश्क़ से रोज़ ये लड़ जाता है
लड़ने के सौ कारण, इश्क़ बेवजह
इलज़ाम जायज़, इश्क़ गुनाह

Tuesday, February 7, 2012

Middle क्लासिये

कुछ लोग free की नसीहत देते नहीं थकते हैं
उन्हें हम सारे फ़िज़ूलख़र्ची लगते हैं
उन्हें ये नहीं पता, हर चीज़ के लिए,
हम उनसे ज़्यादा घिसते हैं
भई हम so called नए ज़माने के लोग,
किश्तों में पिसते हैं ।

२० साल पहले चर्चे हो जाते थे,
जब घर पर Phone लग जाता था,
आज कल उस से ज़्यादा आसानी से
२० लाख का Loan लग जाता है
हर महीने जान खाने, आते फ़रिश्ते हैं
और हम, किश्तों में पिसते हैं

जितनी जल्दी आगे बढ़ने की है,
उतनी जल्दी zero balance होने की भी है
पहले
गेहूं ख़ुद पिसवानी पड़ती थी, अब पिसी मिलती है
idli के लिए दालें, अब पिसी मिलती हैं
पहले लोग मर्ज़ी से घिसवाते थे,
अब हर घर में ख़ुद-बा-ख़ुद घिसे मिलते हैं,
बड़े बड़े, बेवकूफ़ों से, आँखों में सपने लिए,
हम middle क्लासिये,
किश्तों में पिसते हैं ।

Saturday, January 28, 2012

गिद्ध

क्यूँ बन्दे क्यूँ तू, गिद्धों से घबराता है
जीते - जी जब हर कोई तुझको, नोच नोच के खाता है ।

Sunday, January 1, 2012

वापिस दे जा

सुन बे, जाते जाते 2-4 दिन,
और चंद घंटे वापिस दे जा ।

ज़ाहिर सी बात है,
मुझे जो चाहिए,
तू भी जानता है
एक आधा phone call होगा,
और शायद हर मौसम के कुछ पल
एक किताब जो आधी पढ़ी होगी,
एक जो आधी लिखी होगी,
तू क्या करेगा इनका?
ये तो मेरे हैं टंटे, वापिस दे जा ।

तेरे आने पे जो वादे किये थे मैंने,
शराफ़त से लौटा देना,
साल की पहली तारीख़ को ज़रुरत होगी मुझको,
तेरी तरह इसे भी बेवकूफ़ बनाना है
के इस साल तो वज़न घटाना है
ये सब मेरे हैं टंटे, वापिस दे जा

अब ज़मींदारों की तरह मत पूछना,
"इतना वापिस दूंगा तो बदले में क्या लूँगा ?"
क्यूंकि जो 12 महीनों में ले लिया है तूने,
उसका हिसाब शुरू कर दिया तो
साले नंगा वापिस जाएगा ।
शराफ़त से, कपड़े रहते, वापिस दे जा ।