Sunday, March 27, 2011

शेर अकेला

फिर यूँ हो, शाम हो, और चार गुना परछाई हो,
फिर यूँ हो, महफ़िल हो, तन्हाई हो

Friday, March 25, 2011

ग़ालिब के पोस्टर लगाने से कोई ग़ालिब नहीं बन जाता।

लोग कहते हैं,
ग़ालिब के पोस्टर लगाने से कोई ग़ालिब नहीं बन जाता।
सच कहते हैं ।

उसका दिल कहाँ से लायें?
कहाँ है वो शौक़-औ-जिग़र,
न इल्म उर्दू का,
उन्स का ज़ौक हमें किधर ।
गौर फरमाइए हुज़ूर,
इस तस्वीर में, मैं उनके साए में खड़ा हूँ,
वो हैं उजला नूर,
मैं स्याह अँधेरा,
बजा फरमाया आपने,
ग़ालिब के पोस्टर लगाने से कोई ग़ालिब नहीं बन जाता

वो बन जाऊँगा तो जुनूँ किसका रहेगा?
किसके अशआर, आयतें मान पढूंगा,
न उन में खुद को देखता हूँ,
न उनसा बन सकूंगा,
आपने कहा- "ग़ालिब के पोस्टर लगाने से मैं ग़ालिब नहीं बन जाऊँगा"
क्या कहा आपने, के दिल को सुकून पहुंचा है,
आपने ग़ालिब का और मेरा नाम, साथ जो ले लिया,
हिंदी में, अंग्रेजी में, या के साफ़ उर्दू में हो,
अब तो हम इसी धोखे में रहते हैं
लोग कहते हैं,
ग़ालिब के पोस्टर लगाने से कोई ग़ालिब नहीं बन जाता
सच कहते हैं

Saturday, March 19, 2011

ग़ालिब की हवेली - सोच



मैंने सोचा था, खूब lighting होगी,
गली क़ासिम जाँ में सिर्फ़ ग़ालिब के शेर,
आयातों की तरह पढ़े जाते होंगे,
उस गली की दुकानों में, ठेलों पर,
सिर्फ़ ग़ालिब की क़िताबें बिकती होंगी,
हवेली पर, rajnikant सा उनका भी,
ये बड़ा सा life-size poster लगा होगा,
दुनिया के तमाम शायर पहुंचे होंगे,
जब मैं जाऊँगा तो कोई बूढ़ा सा आदमी मुझसे कहेगा,

"मुझे लगता है आप यहाँ पहले भी आ चुके हैं,
आपकी दाढ़ी मिर्ज़ा साहब से मिलती है,
आपके लिए ये हवेली हमेशा खुली रहेगी"

ऐसा कुछ न हुआ........ Obviuosly.

न lighting, न ग़ालिब के शेर,
दुकानें थी, पर चप्पल और चश्मों की,
ठेले थे, पर उस पर लहसून बिक रहा था,
न poster, न मेरे अलावा कोई,
एक बूढ़ा सा आदमी ज़रूर बैठा था,
उम्मीद जगी मेरी,
मुझे देख कर भी वो कुछ नहीं बोला,
बड़ी देर बाद, उसने चुप्पी तोड़ी और बोला,
"आप सही वक़्त पर आ गए,
बस अब हवेली बंद ही कर रहा था" ।

Saturday, March 12, 2011

जेब से पुराना पर्चा निकला - version 2

आज जेब से एक पुराना पर्चा निकला
Jeans के साथ धुल गया था,
शायद एहसास भी साफ़ हो गए थे,

कैसे emotional से हैं हम,
कितने emotion निर्जीव सी चीज़ों से जोड़ देते हैं,
उन्हें याद बना कर रख लेते हैं,
नया pen खरीदा था तुमने, याद होगा न,
उस दिन से पहले बहुत बहाने बनाये थे,
मुझे तो तकरीबन यकीन दिला दिया था,
की हम में कुछ न था,
पर Pen खरीदते ही,
इस पर्चे पर सबसे पहले, मेरा नाम ही लिखा था,
ये पर्चा तो अब भी मेरे पास है,
पर तुम... कहाँ चले गए,
पर तुम कहाँ चले गए ।

Friday, March 11, 2011

निकम्मा

पागल सड़कों पर लापता,
Random पान वालों से पूछता पता
दिल कम्बख्त,
मिल जाये तो साले को इधर भेजना,
इस हफ्ते का classified अच्छा है,
कहीं न कहीं तो लगा दूंगा निकम्मे को ।

Wednesday, March 9, 2011

जेब से पुराना पर्चा निकला - Version 1


आज जेब से एक पुराना पर्चा निकला

Jeans के साथ धुल चुका था,
मरियल सा हो गया था, साबुन का पानी पी कर,
आधा हिस्सा ही मेरे हाथ आया,
अजीब सा लगता है, जब भी ये होता है
डर सा लगता है, की कोई छिपी हुई याद
झट से सामने न आ जाए
हिचकिचाते हुए खोला मैंने,
पेट से मुड़ा हुआ था
लिखा था, ...श्क है ।
पढ़ कर जैसे याद तर-औ-ताज़ा हो गयी,
उस दिन, काजल बह कर गाल काले कर चुका था,
कांपते हाथों से पकड़ा दिया था, ये ख़त मुझे
मैंने बिना पढ़े ही फाड़ दिया
टुकड़े हवा में उछाल दिए थे,
जानता था उस में क्या लिखा था,
उसके जाने के बाद, देर तक टुकड़े बटोरता रहा
आज पर्चे के साथ किस्सा याद आया तो,
उस से जुड़ा बस ग़म याद आया,
मेज़ से एक काग़ज़ का टुकड़ा उठाया,
एक अक्षर लिख कर,
tape से उसे पर्चे से जोड़ दिया,
अब लिखा था "इश्क़ है"
चुपचाप उसे पेट से मोड़ कर,
फिर Jeans की जेब में डाल दिया,
दोबारा कभी मिल गया तो कमबख्त,
"अश्क है" नहीं "इश्क़ है" ।

Friday, March 4, 2011

ईशान कोण

अब तो ३-४ साल हो गए हैं,
कमरे की दीवार पर मेरी नज़र सबसे पहले पड़ी थी,
ईशान कोण का एक निचला हिस्सा, ख़ुद-बा-ख़ुद,
धीरे धीरे, रह रह काला हुआ जाता था।
कई दफा उसे साफ़ करने की कोशिश भी की थी,
पर रह रह लौट आता था ।

एक रात जब मैं गहरी नींद में था, तो लगा जागा हूँ
किसी की धीमी आवाज़ सुनाई दी मुझको
आँखें बंद, कान खुले थे मेरे,
करवट ले, मैं फिर सो गया गहरी नींद,
फिर जागा सा था मैं,
उसने कहा - "अब कुछ दिन अकेली रहना चाहती हूँ "
आँख खुली मेरी तो हथेलियाँ ठंडी थी
न आवाज़, न एहसास,
पर जैसे कोई पास बैठ कर सांस ले रहा था ।

इस बार दीवार की पुताई करवा दी ।
फिर उजली सी हो गयी ।

परछत्ती से मुझे फिर एक दिन, एक किताब मिली
वरक उसके सारे उजले थे
पर दीमक, सिरे कुतर गयी थी ।
महक पुराने कागज़ की, मेरे shelf में उस से बिखर गयी थी ।
पता नहीं क्यूँ रख ली थी मैंने ।
उस रात कुछ नींद ठीक से नहीं आई,
उठा रात को, तो बिजली नहीं थी घर में
कुछ सवा बजा होगा शायद,
shelf से माचिस निकाल कर, मोमबत्ती जला ली
क़िताब भी पीली लगी, उस पीली रौशनी में
पहले ही वर्क पर कुछ शब्दों की परछाईयाँ नज़र आई,
जैसे किसी ने पिछले वर्क पर, कलम ज्यादा दबा कर लिखा हो।
पढने की कोशिश की तो लिखा था
"अब कुछ दिन अकेली रहना चाहती हूँ "
उस रात मैं सुबह सोया ।
अगले दिन देखा तो
कमरे का ईशान कोण, फिर काला सा नज़र आने लगा था ।

मैंने एक रात गहरी नींद में फिर कुछ सुना था शायद,
ठीक से याद नहीं पर बात बालों की हो रही थी
आँख खुली तो हथेलियाँ फिर से ठंडी थी,
फिर बगल में कोई सांस ले रहा था

पिछली बारिश में, उस कमरे की छत टपकने लगी
मैंने अपना बिस्तर उस कमरे से हटा लिया,
दिन भर बारिश होती, कमरे में अँधेरा रहता।
फिर रात भर जैसे काले बादल, कमरे में ही रहते,
फिर एक रात जम कर बारिश हुई,
शोर से मैं रात भर जागा रहा,
सुबह के कुछ ५ बजे होंगे, और मेरी आँख लगी
दिन भर बारिश होती रही,
मैं उठ नहीं पाया ।
दिन भर जैसे बातें सुन रहा था
दिन रात, वही बात ।
फिर उठा, गीली हथेलियाँ ।
वापिस उसी कमरे में फिर से बिस्तर डाल लिया मैंने,
कई रातें चैन से सोया ।

एक सुबह जब देखा, तो खाली क़िताब कहीं नहीं थी,
सारा घर उथल-पुथल कर डाला, पर न मिली
एक पल को तो ये लगा, ऐसी कोई क़िताब थी ही नहीं
फिर अपनी किताबों में देखा,
एक भी खाली वर्क़ नहीं था
कुछ खाली खाली सा लगा, क़िताब के न मिलने पर
पर धीरे धीरे सब फिर ठीक हो गया

कमरे का ईशान कोण फिर काला हो चला था
जो मेज़ पड़ा था दूसरे कोने में,
उसकी टांगें भी लड़खड़ाने लगी थी,
एक टांग के नीचे मोटा सा गत्ता रख कर,
उसे बराबर किया हुआ था,
पर जो टांग दीवार से लगी थी,
उसका पेट दीमक खा गयी थी,

मेरे shelf में भी लकड़ी का, बुरादा सा दिखने लगा था
अब तो कुछ करना पड़ेगा
या घर बदलना पड़ेगा
"मैं कुछ दिन अकेला रहना चाहता था"
रातों को सोना बंद कर दिया था कई महीनों से,
दिन में, सोता, तो ठंडी हथेलियों की आदत सी पड़ गयी थी
बातें सुनाई नहीं देती थी
घुटनों में बहुत दर्द रहने लगा था
बहुत ज़्यादा दर्द
वो क़िताब कभी मिली ही नहीं मुझको,
पर ढूँढ ज़रूर लूँगा,
कहाँ जायेगी, यहीं कहीं रख दी होगी मैंने
फिर एक दिन,
जैसे कहा उसने, और मैं थक कर बैठ गया,
ईशान कोण में ही सही, क्या फर्क पड़ता है
कौन सी ये कालिक मुझ पर लग जायेगी ।
कौन सी ये कालिक मुझ पर लग जायेगी

Wednesday, March 2, 2011

सेहर न हो

कभी यूँ भी आ मेरी आँखों में, की मेरी नज़र को खबर न हो,
मुझे एक रात नवाज़ दे, मगर उसके बाद सेहर न हो। - बशीर बद्र

पूरा चाँद हो, चाँद की Outline बनाएं हम,
हम पर चाँद की नज़र न हो ।

जागे रहें पूरे ३ पहर,
रात चौथा पहर न हो ।

ज़हर और सच का स्वाद एक सा होता है,
पर रात जो हो, ज़हर न हो ।

तेरे नाम के पर्चे लिख लिख कर समंदर में डाले हैं,
जिस पर तेरा नाम न हो, ऐसी एक लहर न हो ।