मसर्रत के सौ दरीचे,
रंज को काफ़ी है एक रोशनदान ।
दरीचों पे परदे लगा कर,
मसर्रत को हर कोई मौका देता है,
अन्दर आने की इजाज़त मांगने का,
रोशनदान से रंज, बिन बुलाये आ बैठता है
जाने कौन मेज़बान, कौन मेहमान ।
आज कल तो हम,
छोटे छोटे flats में रहने लगे हैं,
इनमें रोशनदान नहीं होते
अब इजाज़त तो रंज को भी लेनी पड़ती है ।
पर इसके गुरूर का कोई क्या करे?
बाप का राज समझ कर
आदत से मजबूर,
ये बेदस्तक आ बैठता है
कैसे बदले कोई पहचान ?
जिन्होंने ये flats बनाये हैं,
उन्होंने रंज के रोशनदान बंद नहीं किये,
उनके लिए बड़े बड़े दरीचे खोल दिए हैं ।
मगर रंज को तो काफ़ी है एक रोशनदान ।
Opening couplet by Garima.
2 comments:
!!!!!! superbbbb it is! kahan se kahan le gaye thought ko! kitni khoobsoorti se visual bana diya iss roshandaan aur ranj ko :) i love the last para. and the line - masarrat ke sau dareeche! very very nice
ranj ka attitude aur masarrat ki humble nature badi pasand aayi mujhe! kya baat hai! kitna sach
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