जितना अजब दुनिया का ये मेला होता गया, मैं अकेला होता गया
उम्र जुआरी निकली,
इसकी पूरी तैय्यारी निकली,
खुश था मैं बादशाही से,
इसकी इक्कों से यारी निकली,
जब आखरी हाथ, मेरा पहला होता गया, मैं अकेला होता गया
दिल ने भी तो साथ न दिया,
हाथ बढ़ाया, हाथ न दिया,
उम्मीद ही थी, उम्मीद रही,
चाँद न था, पर ईद रही
मेरा दिल से, दिल से मेरा,
जब जब झमेला होता गया, मैं अकेला होता गया
तजुर्बों में घाव ढूँढे,
मुखौटों में भाव ढूँढे,
क्या नाम दोगे उसको,
जो धुप को सर-ए-छाँव ढूँढे
पानी से जब धुल धुल कर,
पानी से मैला होता गया, मैं अकेला होता गया .
कलम हाथ में रह गयी,
बदज़ुबान! किस्सा कह गयी,
सच तो था बस एक मगर,
उस सच की थीं वजह कई
शायद इसी वजह से उजला सच, मटमैला होता गया, मैं अकेला होता गया
दुनिया से यारी कब थी,
मुझे में तलबगारी कब थी
वो तो बेखुदी का ज़ौक चढ़ा था शाम से,
वरना महफिलों से यारी कब थी,
दिन-ब-दिन, महफ़िल महफ़िल, मेला-दर-मेला होता गया
मैं अकेला होता गया
मैं अकेला होता गया
1 comment:
very very beautiful! love the 'ikkon se yaari' bit. its like a song actually. and as ive always told you, your poems flow beautifully. its like you know exactly where what needs to come. thats the skill of a great poet i guess! love the layering in each stanza. mukhaauton ke bhaav, haath badhaya haath na diya, paani se maila. kalam ka kissa kehna. wah! bahut khoobsoorat. great piece this one!
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