Sunday, December 19, 2010

मयकशी

खा के कसम मयकशी छोड़ दी,
ये कब मुझे छोड़ती है देखें ।

मय से मोहब्बत नहीं थी इतनी
बस रंग से दिल लगा लिया था,
छलकते मयकदे को,
छलकने से बचा लिया था,
रिन्दों ने थामा बैठा लिया,
साक़ी के हाथों चढ़ा दिया,
ये कब मुझे छोड़ती है देखें ।

इस सुरूर से ज़रा सा इश्क तो ज़रूर है
सब कहते हैं मगर,
साक़ी की आँख का न कोई कुसूर है
हर पैमाने पर नज़र रखती है
होठों पर लगे तो साँसों में आंच आती है
ये कब मुझे छोड़ती है देखें ।

ख़ाक से यारी है

ये ख़ाक से यारी है,
ग़ुबार का जूनून है,
के ख़्वाब देख गुज़र गए
हक़ीक़त से मोहब्बत है ।

ख़्वाब में रहते जो एक लम्हा,
गमख्वार की हसरत न होती,
दिल के हाथों नहीफ़ होते,
ज़्यादा दिलफेंक कम शरीफ़ होते
पर हम तो यूँ ही,
ख़्वाब देख गुज़र गए,
हक़ीक़त से मोहब्बत है ।

कारवाँ में यूँ भी कभी शामिल न थे,
उसकी राहों से गिला रहा है शायद,
फ़र्क दोनों में रहा ता-उम्र,
ग़ुबार ने आँखों को न सताया कभी,
आँखों में ग़ुबार रहा
नज़र में सहराँ
रब्त सा बनता गया,
यारी सी हो गयी ।

ग़ुबार का जूनून है,
इस बात का सुकून है
ज़माने भर की तरह, कोई खौफ़,
आये तूफाँ, पूरी तैय्यारी है,
अपनी तो ख़ाक से यारी है ।