Tuesday, June 21, 2011
साहिर
अब साहिर कहाँ रहते हैं ?
शायर को उम्र से यूँ भी क्या चाहिए,
इश्क़, ग़ुरूर और मजाल काफ़ी है,
कलम पकड़ने को दो उँगलियाँ,
ज़ौक-औ-क़माल काफ़ी है ।
ज़िन्दगी के तजुर्बे तो स्याही बन ही जाते हैं
मसर्रत इतनी नहीं, एक मलाल काफ़ी है ।
कौन मानता है ख़ुदा इश्क़ को?
कौन कहता है के इश्क़ में हौंसला होता है?
इश्क़ कमज़ोरी है 'साहिर'
हर आशिक़ मायूस-औ-मजबूर है,
वरना हर इंसान क़ायर नहीं होता
हर आशिक़ शायर होता हो शायद,
मगर आशिक़, हर शायर नहीं होता ।
हर शायर, शायर तो होता है लेकिन,
हर शायिर साहिर नहीं होता ।
ऐसा ही है लफ़्ज़ों का कारोबार,
नुख्सान या नफा नहीं होता,
ख़ुदा न समझा अब तक,
शायर उस से कभी ख़फ़ा नहीं होता,
उसका गिला तो इंसानों से है,
न ज़मीं पर न फ़लक पर,
मौसिक़ी तो रह जायेगी हवा में,
उसका पता ठिकाना नहीं होगा,
दुनिया तो रह जायेगी,
मगर वो ज़माना नहीं होगा,
अब उनकी गली से, आना जाना नहीं होगा,
चर्चे होंगे, किस्से होंगे, हिस्से होंगे जिसके,
अब वो फ़साना नहीं होगा ।
अब वो अफ़साना नहीं होगा ।
उम्र को समेट कर रख देने को
एक अशआर काफ़ी है,
दर रहा न रहा,
मकाँ रहे न रहे,
चैन से सोने को, एक मज़ार काफ़ी है
चैन से सोने को एक मज़ार काफ़ी है ।
ता-उम्र और सदियों में जो न हो सका कभी,
वो उनके जाने के बाद हो गया,
उनकी जगह किसी और ने ले ली,
पता नहीं इस बात पर वो क्या बात कहते हैं ?
एक ख़त लिख कर ये बात उनसे पूछनी है,
मगर लिफ़ाफ़े पर, पता क्या लिखूं, कहाँ रहते हैं ?
Sahir was buried at the juhu Muslim cemetery. His tomb was demolished in 2010 to make space for new bodies.
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1 comment:
Seene mein ek shola to uttha tha, ae dost, yeh khabar sunkar.
Tere kalam ne aaj ek dehekti aag lagaa di.
Lafzon ka tha woh sahir, maut ko bhi akela na choda.
Aur aaj uski gehri neend mein bhi humne usse akela na choda.
Lovely Sid. Lovely.
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