अब तो ३-४ साल हो गए हैं,
कमरे की दीवार पर मेरी नज़र सबसे पहले पड़ी थी,
ईशान कोण का एक निचला हिस्सा, ख़ुद-बा-ख़ुद,
धीरे धीरे, रह रह काला हुआ जाता था।
कई दफा उसे साफ़ करने की कोशिश भी की थी,
पर रह रह लौट आता था ।
एक रात जब मैं गहरी नींद में था, तो लगा जागा हूँ
किसी की धीमी आवाज़ सुनाई दी मुझको
आँखें बंद, कान खुले थे मेरे,
करवट ले, मैं फिर सो गया गहरी नींद,
फिर जागा सा था मैं,
उसने कहा - "अब कुछ दिन अकेली रहना चाहती हूँ "
आँख खुली मेरी तो हथेलियाँ ठंडी थी
न आवाज़, न एहसास,
पर जैसे कोई पास बैठ कर सांस ले रहा था ।
इस बार दीवार की पुताई करवा दी ।
फिर उजली सी हो गयी ।
परछत्ती से मुझे फिर एक दिन, एक किताब मिली
वरक उसके सारे उजले थे
पर दीमक, सिरे कुतर गयी थी ।
महक पुराने कागज़ की, मेरे shelf में उस से बिखर गयी थी ।
पता नहीं क्यूँ रख ली थी मैंने ।
उस रात कुछ नींद ठीक से नहीं आई,
उठा रात को, तो बिजली नहीं थी घर में
कुछ सवा बजा होगा शायद,
shelf से माचिस निकाल कर, मोमबत्ती जला ली
क़िताब भी पीली लगी, उस पीली रौशनी में
पहले ही वर्क पर कुछ शब्दों की परछाईयाँ नज़र आई,
जैसे किसी ने पिछले वर्क पर, कलम ज्यादा दबा कर लिखा हो।
पढने की कोशिश की तो लिखा था
"अब कुछ दिन अकेली रहना चाहती हूँ "
उस रात मैं सुबह सोया ।
अगले दिन देखा तो
कमरे का ईशान कोण, फिर काला सा नज़र आने लगा था ।
मैंने एक रात गहरी नींद में फिर कुछ सुना था शायद,
ठीक से याद नहीं पर बात बालों की हो रही थी
आँख खुली तो हथेलियाँ फिर से ठंडी थी,
फिर बगल में कोई सांस ले रहा था
पिछली बारिश में, उस कमरे की छत टपकने लगी
मैंने अपना बिस्तर उस कमरे से हटा लिया,
दिन भर बारिश होती, कमरे में अँधेरा रहता।
फिर रात भर जैसे काले बादल, कमरे में ही रहते,
फिर एक रात जम कर बारिश हुई,
शोर से मैं रात भर जागा रहा,
सुबह के कुछ ५ बजे होंगे, और मेरी आँख लगी
दिन भर बारिश होती रही,
मैं उठ नहीं पाया ।
दिन भर जैसे बातें सुन रहा था
दिन रात, वही बात ।
फिर उठा, गीली हथेलियाँ ।
वापिस उसी कमरे में फिर से बिस्तर डाल लिया मैंने,
कई रातें चैन से सोया ।
एक सुबह जब देखा, तो खाली क़िताब कहीं नहीं थी,
सारा घर उथल-पुथल कर डाला, पर न मिली
एक पल को तो ये लगा, ऐसी कोई क़िताब थी ही नहीं
फिर अपनी किताबों में देखा,
एक भी खाली वर्क़ नहीं था
कुछ खाली खाली सा लगा, क़िताब के न मिलने पर
पर धीरे धीरे सब फिर ठीक हो गया
कमरे का ईशान कोण फिर काला हो चला था
जो मेज़ पड़ा था दूसरे कोने में,
उसकी टांगें भी लड़खड़ाने लगी थी,
एक टांग के नीचे मोटा सा गत्ता रख कर,
उसे बराबर किया हुआ था,
पर जो टांग दीवार से लगी थी,
उसका पेट दीमक खा गयी थी,
मेरे shelf में भी लकड़ी का, बुरादा सा दिखने लगा था
अब तो कुछ करना पड़ेगा
या घर बदलना पड़ेगा
"मैं कुछ दिन अकेला रहना चाहता था"
रातों को सोना बंद कर दिया था कई महीनों से,
दिन में, सोता, तो ठंडी हथेलियों की आदत सी पड़ गयी थी
बातें सुनाई नहीं देती थी
घुटनों में बहुत दर्द रहने लगा था
बहुत ज़्यादा दर्द
वो क़िताब कभी मिली ही नहीं मुझको,
पर ढूँढ ज़रूर लूँगा,
कहाँ जायेगी, यहीं कहीं रख दी होगी मैंने
फिर एक दिन,
जैसे कहा उसने, और मैं थक कर बैठ गया,
ईशान कोण में ही सही, क्या फर्क पड़ता है
कौन सी ये कालिक मुझ पर लग जायेगी ।
कौन सी ये कालिक मुझ पर लग जायेगी ।
No comments:
Post a Comment