Friday, April 15, 2011
20 पैसे की जीत
बचपन से उसे ढलान बहुत पसंद थी।
बचपन में एक बार,
ढलान और सीढ़ियों में, उसने ढलान चुनी थी,
४ टाँके लगे थे ठुड्डी पर, जब गिरा था ।
ढलान से उतरना पर आसान था,
इसी लिए शायद
बचपन से उसे ढलान बहुत पसंद थी।
सिक्के देर तक लुडकाता रहता,
अकेला, मन ही मन कुछ फुसफुसाता रहता ।
५ पैसे का सिक्का धीरे चलता था,
चौकोर था, ४ सिरे थे, इसी लिए ।
फिर २० का सिक्का भी कुछ ज्यादा तेज़ न था,
उसके तो ६ सिरे थे।
सबसे तेज़ था १० का सिक्का,
गोल सा, फूल सा था,
धड़ल्ले से भागता ढलान पर,
जैसे ट्रेन पकडनी हो ।
उसको टक्कर दी अट्ठन्नी ने,
पूरी गोल, पहिए सी,
ढलान पर तो मानो मोटर लग जाती थी ।
रोज़ का यही काम था उसका,
इक होड़ लगाता मनघडंत,
कभी एक सिक्का इस तरफ,
कभी दूसरा उस पार,
कभी १० पैसे की जीत,
कभी अट्ठन्नी की हार,
उसका भी दिल, हर किसी सा,
हारने वाले के साथ हार जाता,
होड़ ख़त्म न होती तब तक,
जब तक हारा हुआ सिक्का जीत नहीं जाता ।
दो अलग अलग, छोटी छोटी पोटलियाँ थी,
एक थी बेढबे सिक्कों की बस्ती,
तो दूसरा गोल सुढोल सिक्कों का मोहल्ला ।
दोनों में जंग छिड़ी रहती ।
हर शाम, कभी बाज़ी इधर तो कभी उधर ।
समय के साथ सारी माया बदल गयी,
सारे सिक्के गोल हो गए,
५, १० और २० पैसे के सिक्कों के सिरे,
इस होड़ में उन्हें मेहेंगे पड़ गए ।
जिस ढलान पर रोज़ ये होड़ होती थी,
वो भी इन सालों में काफ़ी बदल गयी थी,
नयी दरारें पड़ गयी थी,
पुरानी और बढ़ गयी थी,
अब तो निष्कासित सिक्के,
कभी जीतते ही नहीं
बुरी तरह से हर बार पीछे रह जाते ।
उसकी भी अब ढलान से अनबन सी होने लगी,
कई महीने तक होड़ जारी रहने लगी ।
हर रोज़ उम्मीद रहती के,
कमबख्त नए सिक्के,
किसी दरार में फँस कर पीछे रह जायेंगे
वो जिनके सिरे ज्यादा हैं, किसी जादू से,
शायद एक बार को आगे निकल जायेंगे ।
सालों तक ऐसा नहीं हुआ ।
हर होड़ के बाद, एक दुसरे का मुंह ताकते,
सिक्के उसके साथ, रात सो जाते ।
वो समझा बुझा कर उन्हें,
अगले दिन की होड़ के लिए, फिर मना लेता ।
वो फिर हार जाते ।
फिर एक दिन,
एक २० पैसे का सिक्का,
जब ढलान के अंत पर पहुंचा,
तो नयी गोल चवन्नी से २ उँगलियाँ आगे था ।
उसने मुस्कुराते हुए, सिक्के को अपने हाथों में उठाया,
गर्व से उसके सिरों को सहलाया,
तो देखा सिरे थोड़े घिस गए थे,
ढलान के साथ पिस गए थे,
सिरे वाले सिक्कों की थैली में उसे वापस रख कर,
वो मुस्कुरा कर, उस रात सो गया ।
एक अरसे बाद फिर कहीं,
ढलान और सीढ़ियों में उसे चुनना था,
चुनना बहुत आसान था ।
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2 comments:
its brilliant! what imagery...once again you've done it! or rather, "outdone". really really loved it.
outstanding son.vo sike maine abhi tak suraxit rakhe hain.
DAD
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