Monday, December 31, 2012

तो क्या

यूँ आजकल कुछ कम हो गया है लिखना
ग़म-ए-दिल बाज़ार में उछालें भी तो क्या

उन्हें शौक़ है हमारे इश्क़ को शौक़ कहने का
उनका शौक़ हम उठालें भी तो क्या

जज़्बात कोई जज़्बात में नहीं तोलता
महसूस की कीमत हम लगा लें भी तो क्या

एहद-ए-वफ़ा हमने निभाई है पूरी
वो हमसे अदावत निभालें भी तो क्या

शिकवा तो ग़ैरों से होता है
वो इतना कभी अपना बना लें भी तो क्या

उनका दर ही कआबा-काशी है
निकालें, हटालें बुलालें भी तो क्या

न मलाल, न सवाल न हमें हसरत ही कोई
इस इश्क का मखौल वो उड़ालें भी तो क्या 

Sunday, December 30, 2012

ग़म नहीं

अश्क़ ज़रिया हैं ग़म नहीं

इश्क़ तो ले आया दर पे तेरे
पर जिसने रोका वो भी एहम नहीं

मर्ज़ होता तो जाँ लेता
इश्क़  है, इसका  कोई मरहम नहीं

रात का सुकून वेह्शत लगता है
जैसे रात में भरते  हम दम नहीं

अश्क़ आशिक़ी में बहाए इतने
के अब तुम नहीं या हम नहीं

दर्द से क्या बचेगा आशिक़
जो दर्द न दे वो सनम नहीं

अश्क़ ज़रिया हैं ग़म नहीं
एहसास है, कलम नहीं
बह निकलें तो दरिया
जो रुक जाएँ आँखों में
तो तूफां से कम नहीं

इस बार न बहें, रुके रहें
साहिलों के सर झुके रहें
नज़र से बाँध नज़र ये कह सकूँ
के दर्द तो है पर कोई ग़म नही