Thursday, June 23, 2011

मुझे से क्यूँ मिल गयी मैं

ये मुझ से क्यूँ मिल गयी मैं ।

सवालों में उलझी,
ख्यालों में उलझी थी, तो बेहतर था,
खुश थी, बोलती थी,
थी बस थी ।
मगर कब, नहीं रही मैं,
ये मुझ से क्यूँ मिल गयी मैं ।

अजनबी से हमेशा से परहेज़ था,
ऐसा भी नहीं के, ये तूफाँ कुछ तेज़ था,
ऐसा भी नहीं के दुनिया एकाएक चलने लगी,
ऐसा भी नहीं के एकाएक रह गयी खड़ी मैं ।

कभी कोई ऐसा इंतज़ार नहीं था,
मगर ऐसा भी नहीं के,
इंतज़ार नहीं था,
तलब क्या है ये कोई नहीं पूछता,
तलब क्यूँ है, ये सब पूछते हैं
नादान हैं, बेसबब ख्वाहिशों का सबब पूछते हैं
काफ़िर हैं, आयतों का मतलब पूछते हैं
जाने किस से मैं क्या कह निकली ।

जब वक़्त आ जाए तो देखो क्या बाक़ी रह गया
उम्र में ये न देखो के क्या कितना किया है
कितना पल पल मरा देखो और बोलो,
कौन कितना जिया है
ख़ाली पैमानों को छोड़ो, आँखों में देखो,
जुनूँ कितना पिया है ।
जलती मय में बेवजह मैं बर्फ़ पिघली ।

क्या इस मोड़ पर बेवजह ही आ गयी हूँ?
या ये कोई मोड़ ही नहीं,
सीधे रास्ते की वो जगह है,
जहाँ से आगे की राह दिखती नहीं
जो भी है, ख़ूबसूरत है,
और अगर ख़ूबसूरत नहीं भी है,
तो क्या फ़र्क पड़ता है ?
आगे रास्ता न भी हुआ,
तो क्या फ़र्क पड़ता है ?
आगे वास्ता न भी हुआ
तो क्या फ़र्क पड़ता है ?
क्या फ़र्क पड़ता है के हक़ीक़त से छिल गयी मैं
ये मुझ से क्यूँ मिल गयी मैं ।

इस बार नहीं बदली मैं,
इस बार नहीं हिली मैं,
इस बार हूँ वही मैं,
इस बार रही नहीं मैं,
बस जैसे उपरी सतेह निकली,
वही रही खड़ी पर,
तिनके की तरह मैं बह निकली ।

1 comment:

Dasbehn said...

Its amazing..I absolutely love it. especially... तलब क्या है ये कोई नहीं पूछता, तलब क्यूँ है, ये सब पूछते हैं..