Monday, August 9, 2010

कुछ दिन

मुझे मेरा एक कोना चाहिए,
कुछ दिन अकेला रहना चाहता हूँ ।

दुबक कर बैठ जाना चाहता हूँ,
डरा हुआ सा, हारा हुआ सा,
अँधेरे में छुप जाना चाहता हूँ

खुद से नाराज़,
खुद को सजा देना चाहता हूँ
गुनाह तो हर किसी ने गिना ही दिए
इस मोड़ से आगे कुछ दिन, अकेला रहना चाहता हूँ ।

न दिल में कुछ रहे, न जुबां पे,
न बोलूँ कुछ, न चोट दूं ,
न कोई सही-ग़लत का फैसला सुनाये,
न मुझे दोषी ठहराए,
गुनाहगार तो सबका हूँ मैं
पर कुछ दिन सबके सच नहीं सुनना चाहता
कुछ दिन अपने सच में रहना चाहता हूँ ।

यूँ भी हर कोई अकेला है यहाँ,
खुद अपने बनाए सच में जीता है
फिर हर बार मुझे ही क्यूँ,
अलग होने की सजा मिलती है
ज़रा सा इस बार, खुद को पहचानना चाहता हूँ

इस बार खुद को सजा सुनाई है
हिम्मत जुटा कर, कर जाना चाहता हूँ
बहुत हुआ मज़बूत बन कर जीना
हिम्मत जुटा कर, कमज़ोर पद जाना चाहता हूँ।

यूँ भी तो अब तक, कोई फ़र्ज़ अदा न कर पाया
बेफर्ज़ी की सजा का हक अदा कर जाना चाहता हूँ
कुछ दिन अकेला रहना चाहता हूँ ।

सारे गिले, हर शिकवा... मिटेगा नहीं,
दुगना हो जाएगा
कोई इसके बाद मुझे माफ़ न कर पायेगा,
इस बार, गुनाहगार, बना रहना चाहता हूँ
इस दुनिया से परे, इस जहाँ से दूर,
मुझे मेरा एक कोना चाहिए,
कुछ दिन अकेला रहना चाहता हूँ

इस बार, हार मान ली है
कुछ बदलूँगा नहीं,
ये हार, आखरी बार होगी
इस बार हँसता हुआ आगे नहीं बढूंगा,
इस बार..... नहीं लडूंगा,
जो प्यार न समझ आये तो न सही,
इस बार.... नहीं समझाऊँगा, नहीं समझूंगा,
टूट गया हूँ, थक गया हूँ
न बनूँगा, न फिर जुदूँगा,
हिस्सों में बँट कर ख़तम हो गया हूँ,
इस बार, बहुत अकेला पड़ गया हूँ
अकेला हूँ, तो फैसला भी मेरा होगा,
इस बार दिल से नहीं, दिमाग से सोचना चाहता हूँ
मुझे मेरा एक कोना चाहिए,
अब अकेला... बस अकेला रहना चाहता हूँ ।