जब घर से निकलता हूँ, तो रोज़ देखता हूँ,
पास वाले मोड़ पर एक पेड़ है, सूखा सा,
दो एक दिन में गिर जाएगा शायद ।
पत्ते न रहे, न कोई घोंसला,
उजड़े दयार में किसका बसेरा?
सब छोड़ भागें हैं उसको,
रंग बदल कर, खुद ज़मीन सा दिखने लगा है आज कल,
दो एक दिन में गिर जाएगा शायद ।
हरा था तो मैंने कभी उसे देखा नहीं था,
आज सूखा है, तो सबसे अलग नज़र आता है
हर बार उस मोड़ से गुज़रते,
मेरा ध्यान उसी पर जाता है,
येही सच है शायद,
वक़्त-ऐ-नज़ा पर ही उम्र की पहचान होती है,
और खुद अपनी पहचान बनती है
शरीर गवाही देता है,
जो कुछ सहा और देखा है
दो एक दिन में जब, उस मोड़ से गुज़रुंगा,
तो सर ढक लूँगा,
थक कर लेटा हुआ मिल जाएगा शायद,
पास वाले मोड़ पर एक पेड़ है, सूखा सा,
दो एक दिन में गिर जाएगा शायद ।
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