Thursday, December 18, 2008
मेरे देश में पैसा सिर्फ़ पैसा नही है .
मेरे देश में पैसा सिर्फ़ पैसा नही है ।
सौ सपने, 101 उम्मीदें,
कहीं दिवाली, कभी ईदें ।
दुआ कह उछाला है,
चेहरे का उजाला है ।
बो के उगाया है,
नम्बर देख कर, बटुए में छुपाया है ।
आंखों का भरोसा है,
चाव से परोसा है ।
माथे पे पहना है,
सर का उतारा है,
कभी कहीं चाँद तो,
कहीं आंखों का तारा है ।
सिरहाने चुपके से छोड़ा है,
नया रिश्ता जोड़ा है ।
माथे पर बल पड़ गए,
जो ग़लती से मोड़ा है ।
देश का रंग है,
जैसा भेस बस वैसा येही है ।
मेरे देश में पैसा सिर्फ़ पैसा नही है ।
Thursday, December 11, 2008
Copywriting interview
Writer banna hai toh agency join kar lo!
Yeh raha email-id, resume e-mail kar do!
Tum jaise hindi bhashi bahut demand mein hain,
Saale baaki ke angrez remand mein hain!
Waise shayari kar lete ho na?
Dikhte toh angrez ho,
Par angrezi padh lete ho na!
Interview ke liye jao toh hindi mein baat karna,
Achhi si do linein Ghalib ki yaad karna!
Cut to the interview!
Writer? Achha? Toh shuruaat kisi chhand(couplet) se karo,
Maine kaha pehle aap mera swagat pan pasand se karo!
Maine kaha pappu paas ho gaya hai!
Usne kaha agency kyun?
Maine kaha kyun nahi?
Maine maanga pani ek glass,
Cold drink pakda di aur kaha sar utha ke piyo,
Maine chance pe dance maara aur kaha, papa ne kaha thha advertising,
Ja kar kahoonga unse - sar utha ke jiyo!
Usne kaha aisa kya hai tum mein jo baaki mein nahi,
Maine kaha mera dil roshan, mera mann roshan,
Andhere mein smile kar doon toh light ki zaroorat hi nahi.
Usne kaha kahan ke ho?
Maine kaha youngistan,
Phir bhi, jagah toh batao,
Maine kaha mera number Mumbai ka toh main bhi Mumbai ka
Usne kaha yahin tikoge na, bhag jaoge who knows?
Maine mobile nikaala aur kaha,
Wherever I go your network follows.
Usne poochi umr,
Maine kaha 29 saal ka boodha nahi 29 saal ka jawaan
Usne kaha kya peeyoge, coffe ya chai,
Maine kaha wah taj!
Usne kaha office dhoondne mein problem toh nahi hui,
Maine kaha nahi, hamara bajaj!
Usne kaha recession chal raha hai,
Phir agency ka naam bhi kharab ho gaya hai,
Maine kaha daag achhe hain.
Usne kaha pichhle office se kya kamaya hai?
Maine kaha rishton ki jamapoonji,
Usne kaha 25,000 salary,
Maine kaha kamse-kamse kam hai,
Usne poocha toh doon kya ek lakh?
Maine kaha sahi jawab,
Usne kaha nikal ja warna tujhe doon kya ek laat?
Monday, December 1, 2008
Iss baar
Iss baar iss baat ki khushi nahi ki main bacha hua hoon.
Pichhli baar bhi yehi socha thha ki ab bas.
To iss baar kya naya tey kiya hai?
Phir mombatti le kar gateway par khade ho jaayenge,
Phir radio stations par phone karke gussa jataayenge,
Is baar nahi jhukenge hum, yehi kaha thha pichhli baar,
Iss baar aur bhi tez hua unka vaar.
Jab sadak par koi mar raha hota hai, to kya iss sheher mein koi usse uthaata hai?
Jab neta ke goonde dukaane todte hain, logon ko marte hain,
to andar ka insaan, mombatti liye, kahan dubak kar baith jaata hai?
Jis parivaar mein bhai bhai mein hi nahi banti,
Uss par to vaar hoga hi,
jab aapas mein hi ladai hai,
to dushman to taiyyar hoga hi.
Iss sheher mein ek din ki roti kamaana hi ek jung hai,
Yahan maut ko jeena waise hi roz ka dhang hai.
wo majborri hai yahan ki, jisse chhupane ke liye,
Hum kehte hain ki yehi to iss sheher ka rang hai!
Agar khud ko bachaana hai,
to ghar ke andar ke dushman ko maar giraana hai.
Hawa se dushmani baad mein lenge,
Pehle to iss pedh ki jadon se deemak ko hataana hai!
Darr jo dikhata hai, wahi rasta sahi hai,
To iss baar bahut darr gaya hoon main,
27 november ko mera janmdin thha,
Iss baar mar gaya hoon main.
Immune System
Lighting candles at the gateway?
Silent protest? Or the new fad - the angry protest?
Politicians resigning?
And how can anyone forget 'Spirit' of mumbai!
Just turn on any radio station for the next week and all you can hear is the Spirit of mumbai.
RJ Says - "I know the line is beaten to death, that spirit of mumbai lives on, but seriously man! This time mumbai has shown the world, and not just India, its true spirit."
The RJ lives 10 kms away from his radio station. He was coaxed into coming to work on the usual working day - thursday.
Just announce on any enthusiastic news channel that all the offices will remain shut for a week. And all the employees can consider this as Paid leave. Then lets see the real spirit of mumbai.
Come on man! Lets face it. Everyone in mumbai is as spirited as someone from say jhumritalaiyya. But, we, dont have a choice.
We have to earn that bread. Spirit has got nothing to do with that. Its helplessness.
What is the solution?
When you already have an infection in your body, you catch a cold easily. And that external virus attack happens because of the failure of an internal immune system.
Taking a D'cold can be a temporary solution. Building a new immune system is the permanent one.
Sunday, November 9, 2008
एक दिन
गिरने के ज़्यादा, संभलने के कम,
चलने के ज़्यादा, रुकने के कम,
कितने आंसू, कितने मुस्कुराहटें,
कितनी ही कच्ची नींद की आहटें,
कितने लगे अधूरे रिश्ते,
अपने एहसास की भरनी पड़ी कितनी किश्तें,
कितना सिखाया, कितना सीखा,
कितने झूठों को सींचा,
कितनी बार ढूँढा नया तरीका,
कितने सारे शक़, कितने मलाल लगे,
इस एक दिन को कितने साल लगे ।
नाक रही सीधी, सीधी चली हूँ मैं,
कईयों से बुरी, कई ज़्यादा से भली हूँ मैं,
कई बार हार के बैठ अकेले रोई,
कई बार अकेले जली हूँ मैं,
मन मुठी में भर कर,
अपने हाथों पली हूँ मैं,
आज सीधी चली अपनी हर चाल लगे,
इस एक दिन को कितने साल लगे ।
वो छत पर निडर हो कर दौड़ना,
एक हाथ से एक साल पकड़ना,
दूसरे से एक साल छोड़ना,
सर्दी की रातों में सिकुड़ के सोना,
हर साल के साथ ये भी बदल गया,
लोग बदले, जगह बदली,
समय के साथ हर रिश्ता बदल गया,
अब न अंधेरे से डरती हूँ न दुःख से,
न तेज़ हवा का खौफ है,
न डरती हूँ उसके रुख से,
रिश्ता अजीब सा है वैसे सुख से,
कभी वो मुझसे रूठ जाता है,
कभी मैं उस से,
पर हर बार अस्तित्व को संभाला है,
हर बार नए रिश्तों को पाला है,
इन सालों से कहीं, ख़ुद को ढूँढ निकाला है,
हर बीते पल में मेरा एक हिस्सा था,
हर हिस्से का अपना अलग किस्सा था,
हर हिस्सा मुझे बहुत प्यारा है,
हर किस्से को उम्मीदों से संवारा है,
अब कई नई उम्मीदें पल रही हैं,
कई भावनाएं आज आंखों में चल रही हैं,
आज लगता सब कुछ नया, अनोखा है,
आज सचमुच आईने में ख़ुद को देखा है ।
ये आज ही हुआ, आज नया दिन है,
लगता है आज फिर जन्मी हूँ मैं,
मिट गए आंसू सारे, मिट गई हर घिन्न है,
लगता है आज फिर जन्मी हूँ मैं,
लगे जैसे हर बोतल में जिन् है,
लगता है आज फिर जन्मी हूँ मैं,
जीवन से भरे सारे पल-छिन हैं,
लगता है आज फिर जन्मी हूँ मैं,
लगता है आज मेरा पहला दिन है,
आज फिर जन्मी हूँ मैं ।
सब कुछ बदलने को सिर्फ़ एक दिन लगा,
पर इस एक दिन को कितने साल लगे ।
Sunday, October 26, 2008
शरीर - ३
बहुत कुछ कहना बाकि है
जब भी झांकता हूँ,
इस झरोखे में नई झांकी है ।
इस भीड़ में खड़ा, ख़ुद से बेखुद सा,
वो पिता है मेरा,
वो... वहां... बीच में, झुरियों वाला जो चेहरा है ।
उसे याद न दिलाना, की यहाँ जो शरीर पड़ा है वो मेरा है ।
वैसा होगा कुछ न उसे, सुन लेगा, सह लेगा,
अपनी सोच में, तपाक से इससे एक वजह देगा,
सोचेगा, कौन कैसे मेरी जगह लेगा ।
कभी गोद में बैठ झूला नही मैं उसकी,
न कभी सीने से लग के रोया,
न होने पे कुछ पाया उसके,
न नही होने पे कुछ खोया,
हर बार ख़ुद से कहा की अगली बार रो लूँगा,
उसके सारे सपने आंखों में अपनी बो दूँगा,
पर धुंधला सा होता गया चेहरा, वक्त के साथ,
अब तो बीच ये काला घाना अँधेरा है,
यहाँ जो शरीर पड़ा है वो मेरा है ।
पता नही कौन सा रंग भाता था उसको,
कौन सा गाना पूरा आता था उसको,
कभी मैंने पसंद न चुनी उसकी,
आवाज़ भी ध्यान से न सुनी उसकी,
हर बार अगली बार कहा,
पर शिकायत सिर्फ़ ये नही है,
पता नही ग़लत कौन, कौन सही है,
मैं भी तो अकेला था,
पर अब क्या गिले,
फासलों में ही तो ये फासले थे पले,
कांपेंगे आज हाथ उसके,
साथ चलेगा जब वो उठके,
किसका था दोष, और कौन निर्दोष,
बे मतलब हो जायेंगे तर्क सारे, सारे नुस्खे,
उम्र भर, अपनी गलतियों से सीख, मेरी ज़िन्दगी तराशता रहा,
मैं उसमें पिता, वो मुझमें बेटा तलाशता रहा ।
अब ख़ुद पे गुस्सा आयेगा,
न कोई मुझ सा भायेगा,
पहला मलाल मेरी रूह से गुज़रा,
काश के मैं कह पाता,
कि उसकी हर डांट रूह के कोने में दबा रखी है,
कि उसकी एक तस्वीर, अब भी सीने से लगा रखी है,
कि उसकी लिखी कविता, किताबों में छिपा रखी है,
अकेला मैं जाऊँगा, पर कर भी जाऊँगा अकेला,
कि अब ख़त्म हो गया ये झमेला,
कि मेरी उँगलियाँ मुझे हमेशा उसी कि याद दिलाती रही,
कि दूरियां हमेशा उस से मिलाती रही,
कि पानी से कहीं ज़्यादा लहू गहरा है,
कि यहाँ जो शरीर पड़ा है वो मेरा है ।
Realization
Sorry. Just dont want to hurt anyone. What ever is on this blog, is a matter of perception. I have no right whatsoever to comment on that perception.
It has happened once. I will never ever react to such things.
Its just self-realization. I am no one to judge anyone. or his/her feelings. Words give birth to emotions, feelings and perception. Thats actually the victory. The victory of the words. Their power.
And I follow something very clearly in my head and in my life. Victory never comes by defeating. It comes by winning. The difference, is your perception.
Sorry again. No offense meant.
Saturday, October 25, 2008
खला
उन्स की दीवार है,
है कभी बसेरा तो कभी खार है,
ख़ुद को दबोचे रखा है,
छुपा हूँ तो बचा हूँ,
खूं बहता है नस में,
जुनूँ रहता है बस में,
बस कुछ तन्हाइयों का नया सिलसिला चला है,
पर ये खला सब से भला है ।
मौजूदगी का मंज़र,
मुख्तसर सा है,
वस्ल का वक्त,
बेअसर सा है,
रंजिश सी, खलिश सी है,
बस पे बंदिश सी है,
मिस्रे बे-अक्स,
हर्फ़ खुश्क,
काग़ज़ खुरदरा कम्बख्त,
आफ़ताब भुना, जला है,
पर ये खला सब से भला है ।
हर खले से बेहतर है,
सब से ज़्यादा इसमें असर है,
अपना वजूद है, गहरा है,
वक्त के साथ यारी है, ठहरा है,
मुझसे नज़रें मिलाता है, डरता नही,
जीत गया है मुझसे, मरता नही,
हर खले का देखा-भांपा है,
हर खले के साथ पला है,
ये खला सब से भला है ।
जाता नही, मेरे पास रहता है,
सुनता नही, न ही कुछ कहता है,
मेरे छूने से डरता नही,
सवाल जवाब कुछ करता नही,
मेरी रूह के साथ चलता है,
सोता नही, पर नींद से आँखें मलता है,
नही पालने से ही पलता है,
इस से कुछ इश्क सा हो चला है,
ये खला सबसे भला है ।
Wednesday, October 22, 2008
Ground rules
I have a friend. She thinks all my posts and stuff on the blog is always about 'Me'. I never really justified or explained the real truth to her.
But here goes.
Pick up any of the posts i wrote in 2007. this, my child, is for your enlightenment.
The moment you begin to read a post that goes - 'Mistakes make me' or anything that has the words Me, I, Myself, mine etc. that me becomes You.
Anyone who reads it, when the words are resounding in his/her heart, its always me.
Dont know if you would agree to this, my child, but everything thats here on the blog, becomes your first person, the moment you read it.
Its not my achievement. I just understood what other writers intend to do.
This is the ground rule for my blog. And this, once and for all, stands as a justification. Yes. Justification.
Have fun!
Tuesday, October 21, 2008
Thank God I am not Pawan Mahto
Else this would have been my story.
Name: Pawan mahto
Father’s name: Jagdish mahto
Father’s profession: Farmer
Siblings: NO
Village: Bara-khurd village
District: Nalanda district, Patna
He came to Mumbai on the 19th October for the Railways exams.
Thank God, it wasn’t me.
But my conscience is still alive. So it’s easy, I guess. All I have to do is write a strong ‘piece’, get angry, feel helpless, and make a couple of frantic calls to the like-minded, forward a few angry mails, realize I did my bit and go back to sleep.
So I guess it’s fairly simple. Coz I am not Pawan Mahto. Else I would have been DEAD.
Saturday, October 18, 2008
The name
Anjaan knew he could change people's fates. He had the license for it. The license called a lottery ticket.
It was a thursday. The Sai baba's day. He knew he would definitely change some lives today.
Anjaan lived in a slum in mumbai. Like millions of others, he had dreams of someday buying a 'chawl' of his own. He wanted to make a name for himself. His name though, was quiet ironical.
He left home early. The traffic signal was a good couple of hours walk from his house. He had the money for the local train ticket but, he thought he'd rather use it for a 'wada-pav' indulgence. After all it was a thursday.
The first two BIG cars proved a bit unlucky. The millionaire sitting inside the car preferred the jarring FM music to anjaan's lame 'lakhs of ruppees, in just one ticket' sales pitch. The next one was black in color. Anjaan didnt even try. He was waiting for an orange one to arrive. It did.
The color orange was Sai baba's. Anjaan knew it would work. He didnt want to use his 'guerilla marketing' weapon on it. It was a brave call. His heart, beat rapidly, as his fingers knocked on the glass window. No response. Yet again. The car went past. Anjaan waited. Again.
This time he had no choice but to use the 'guerilla marketing' weapon. He tried on the next car. Again, in vain. That's when he decided to walk away, letting the lottery ticket slip through his hand. Just taking a couple of steps away from the car, he looked for the ticket. Anjaan saw the man sitting in the car from the corner of his eye. Anjaan knew that he was being watched.
He almost ran back towards the car. It was time to unveil the best aspect of the marketing gimmick. Anjaan acted as if all this was an accident. That the ticket fell, where it belonged. The man behind the glass window was amazed. He immediately rolled down the toughened glass window and shed a twenty buck bill, without any second thoughts.
The grin on Anjaan's face was as sunny as his orange shirt. Anjaan, thanked Sai baba. He immediately, mentally allowed himself the luxury of the local train.
He made another mental note. The 'guerilla marketing' weapon shall not be used. Unless the circumstances became unavoidable.
The next day was a Friday. The 'jumma'. His green shirt needed a wash, he thought to himself.
Tuesday, October 14, 2008
Delusion
He was waiting for this to happen. For a very long time now.
He was philosophical. He knew it would happen to him. Someday. It did. After all, it wasn’t a big deal. He just had to use his fingers. It was the other way round for him, the fingers guided the mind. The mind reacted to him. Not vice versa.
This was the day. This was it.
On a computer he always used ‘shift + del’. That deletes the item forever, without pushing it into the ‘recycle bin’. To predict that he used the same law in life, is no rocket science.
What is writing? An expression? A profession? A pass-time? A hobby? He always thought writing was a bit of everything. The past, the present and the future.
He was always confused about the ‘tense’.
What he will do if he didn’t like her? No… this is wrong English. I mixed the tense.
So is it… What would he do if he didn’t like her? May be…
That’s not the point. The point was his fingers had begun. His mind had no choice. His thoughts were at his mercy.
Delusion. That’s the word to begin with, he thought. It’s mysterious. It’s fascinating and it sounded cool. Delusion.
Delusion. What else can be connected to delusion?
What else would connect with delusion? You? Me? Everyone? Anyone? It had universal appeal. Everyone in life, at some point or the other, had felt delusion. Like it was an object.
What would delusion feel like?
It felt like a stone wall. Cold. Hard. And grey. If you closed your eyes and felt it, you would see grey color.
Wait. Something’s changing.
The place where you had put your hand, warmed up. The body heat.
Well that was delusion.
He opened his eyes. He was still typing. He smiled. He knew this would come to an end. An end that was believable, mysterious, fascinating and simple.
He knew, one day he would stand in front of the mirror and not feel ashamed at what he saw. Today was the day.
He stood in front of the mirror. His eyes moistened. He could look at himself in the eye. He moved his fingers to tap the air. The air responded. The clutter of words evaporated.
He touched the wall. Delusion.
What is that strange line that you draw between ‘what you are’ and ‘what you want to be’?
That line is called delusion. In other words, Life.
And all your life, you are fighting that delusion. You want the delusion to end. Imagine what would happen if it did.
He knew he would never want this delusion to end. But a delusion always comes to an end.
An end that’s neither mysterious nor fascinating. It’s simply an end. Because, delusions end.
I got it.
Monday, October 13, 2008
Lost and Found
माँ
अम्बर समेट कर मुठी में तेरी भर दूँ,
आकांक्षाएं हैं कितनी,
प्रत्यक्ष सा प्रतीत प्रेम,
प्रारम्भ से प्राप्त सा प्रेम,
निश्छल, निरंतर समान सा प्रेम,
क्या ये तेरा मानवता को वरदान है,
सब कहते हैं,
यही तो कपटी धरती पर भगवान है ।
छत से टपकता नीर,
पत्ते पर पड़ी काछी, अधपकी पौनी रोटी पर पड़ता,
देख अचंभित नयनों से,
मचल उठती, हो जाती अधीर,
ले मैले आँचल का कोना,
दौड़ती मचले कदमों से,
पराजय से ह्रदय जाता चीर,
नीर आँचल को चीर,
जा पड़ता रोटी पर,
अपनी परास्त कृति को,
उठा, सीने से लगा लेती,
मानो मिट गई हो भूख,
सुनो हवा में तीव्र शांत चीख,
गूंथे बालों को खींचता सा,
अविकसित भावनाओं का बहाव,
अपनी शांत आंखों की पीड़ा,
अदृश्य नीर से सींचता सा,
छोड़ निर्बलता का आँचल,
मुस्कुराती, चूम लेती माथा उसका,
पहली बार आज प्रत्यक्ष को प्रमाण है,
यही तो कपटी धरती पर भगवान है ।
टूटे हुए सपनों के टुकड़े समेट,
यादों को बाँध,सीने से लपेट,
असीम मृत बातों से शक्ति जुटा,
फिर बैठा मेज़ पर कलम उठा,
फूलों से खिलता चेहरा,
दीवार का जीवन बढाता,
ह्रदय में रहता कभी,
कभी नयनों में उतर आता,
बिना शब्दों के नए शब्द,
अक्षरों को दे जाता,
वो दीर्घ पवित्र नयन,
दृढ़ कर देते और चयन,
उँगलियों को बल, समस्याओं को विकल्प,
दे जाते मूल्य आधार को,
आधार को देते संकल्प,
जीवंत विजय करती नृत्य,
कह जाती मात्र ये सत्य,
स्मरण करो जब हो जाओ मंद,
"आंखों के साथ साँसे भी हो जाती बंद"
कहना मृत तुझको तो,
जीवन का अपमान है,
यही तो कपटी धरती पर भगवान है ।
बरसों बाद लौटा जब घर,
वही भयभीत सोच, वही विश्वास निडर,
कुछ, समय की झुर्रियों में डूबी,
ऊँगली उतनी ही मज़बूत मगर,
माथे पर लगे हलके से चिन्ह, पर प्रश्नचिन्ह लगा,
सोच में वृद्धि जगा,
आंखों से निश्छल आंसू बहते,
रुक जाती कुछ कहते कहते,
होठों की सिहरन, अधरों की अधीरता,
स्तब्ध कर देती ह्रदय की वीरता,
"कुछ नही बदला बिन तेरे" मुझसे कहा,
"बस रसोई में कोई बातें करने को नही रहा"
मान लिया संसार में हम सब,
मात्र एक लघु इंसान हैं,
यही तो कपटी धरती पर भगवान है ।
Friday, October 10, 2008
शरीर - २
seems like there will be a part three. or may be one more after that.
.....
क्यूँ कुछ बातें, कुछ सिरे - फिर सही?
क्यूँ अब भी, भाग रहा हूँ मैं?
क्यूँ इस हाल में भी जाग रहा हूँ मैं?
अभी नही तो कभी नही,
'फिर सही' कह भागना सही नही ।
मुझे जलाना, नही... दफ्न करना,
मुंह पर उजला कफ़न करना,
न धर्म से कोई ग़रज मुझे,
न उसूलों का कोई ज्ञान,
बस आग से डरता हूँ,
मुर्शदों और पंडितों से छिप कर,
धरती को इस शरीर का समर्पण करना
मुझे जलाना नही... दफ्न करना ।
अब तो चलेगी मर्ज़ी मेरी,
क्यूंकि यहाँ जो शरीर पड़ा है वो मेरा है ।
पर मेरा बस मेरा काबू अब कहाँ,
छू ना पाऊंगा जिसे छूना था,
ज़िन्दगी भर के रिश्तों को,
यूँ ही तमाम होना था,
पीछे भीड़ में कोई खड़ा, उदास है,
आंखों में आंसू नही, पर हताश है
उम्र भर मुझ में ख़ुद को ढूँढता रहा,
आज से शुरू उसकी नई तलाश है,
"क्यूँ ये अचानक हुआ?"
हर सवाल का जवाब आज सिर्फ़ एक "काश" है ।
सालों बिता दिए बंटवारे करते-करते
ये मेरा और ये तेरा है,
लेकिन आज...
यहाँ जो शरीर पड़ा है वो मेरा है। सिर्फ़ मेरा है ।
मैं चाहता हूँ इस भीड़ में खड़े कुछ लोग, कोसें ख़ुद को,
जज्बातों की थाली में रख, मुझसे कहे वो शब्द, परोसें ख़ुद को,
मुझे कोई शर्म नही के ये ख्याल मुझ में अब भी जिंदा हैं,
कहने को सिर्फ़ एक शब्द पर बे मतलब - की हम इन्सां हैं,
हर सच के चारों ओर बनाया एक झूठ का घेरा है,
पर ये सच आजाद है,
की यहाँ जो शरीर पड़ा है वो मेरा है ।
अब ख़ुद से ना भागूंगा, ना डरूंगा,
जो करता आया उम्र भर अब ना करूंगा
मर तो गया, पर अब ना मरूंगा ।
कोने में खड़ी उस औरत से ये कहना है मुझे,
प्यार नही था, झूठ कहा था तुझसे,
पर जब कहा था नही करता प्यार तुझसे,
झूठ कहा था ख़ुद से,
मैं समझता था तुझको, आंसू देखे नही जाते थे,
बटोरे हुए तेरे नाखून के टुकड़े, मुझसे फेंके नही जाते थे,
उम्र भर आलापता, प्यार क्या है मुझे पता है,
आज अब और नही कुछ कहना,
अब तो सब साफ़-साफ़ तुझे पता है ।
हर कोई यहाँ मेरे शरीर की जगह अपने शरीर को देखता होगा,
फिर दीवार का सहारा ले, ख़ुद को समेटता होगा,
एक शांत सी शान्ति है अचानक इस कमरे में,
जैसे कई लाशों का ये डेरा है,
यहाँ जो शरीर पड़ा है वो मेरा है ।
Monday, September 29, 2008
शरीर
This is the first part of the poem. The second part will follow. may be some more parts will follow. the words dont seem to stop.
Will try and cover another aspect in the next one.
यहाँ जो शरीर पड़ा है, वो मेरा है ।
रिश्तों के झूठे-मूठे ढकोसलों का,
कुछ टूटे-फूटे हौंसलों का,
बची कुची धडकनों का,
कटी फटी अड़चनों का,
हिसाब बाकी रह गया... फिर सही !
भीड़ में मिले-जुले कुछ चेहरों का,
जज्बातों की आधी अधूरी नेहरों का,
चली अन्चली कुछ चालों का,
सुने अनसुने कुछ सवालों का,
जवाब बाकी रह गया... फिर सही !
उजाले नए कई देखे,
अब देखने वाला तो ये नया अँधेरा है ।
यहाँ जो शरीर पड़ा है, वो मेरा है ।
बहेंगे कुछ आंसू, सच्चे कम, झूठे ज़्यादा,
मेरे फैसलों से सहमत थे कम, रूठे ज़्यादा,
रख बैठेंगे अब दिल में मलाल,
करते रहेंगे ख़ुद से सवाल, ख़ुद से बवाल,
जब माथे पर मेरे जडेंगे गुलाल,
इस बार नही खुलेंगी ये आँखें,
न उठेंगी ये मृत भोहें,
बस दोहराते रहना अपने मन में मेरी बातें,
सोचते रहना काश क्या 'नही' किया होता,
भूल जाओगे मेरी, बस याद रह जायेंगी अपनी घातें,
याद रहे, बचे कुचे रिश्तों को निभाना, नाम देना, अब काम तेरा है ।
यहाँ जो शरीर पड़ा है, वो मेरा है ।
कितना कठिन था जीना, जीता था तब नही लगा,
इस नींद में सोया तो अच्छा लगा जब नहीं जगा,
सबकी सोच में ख़ुद की सोच कहीं खो बैठा था,
कई बार किसी और के आंसू रो बैठा था,
किसी और की अदा पर कई बार मैं ऐंठा था,
कितनी बातें, कितने पल, कितने एहसास,
कितने आंसू, छिपा कर रखे थे अपने पास,
सोचा था वक्त आएगा तो रो दूँगा,
सारी जमापूंजी खो दूँगा,
सब रह गया, मैं बह गया,
हिसाब बाकी रह गया... फिर सही !
किसी पे क्रोध नही, न किसी पर ग्लानी है,
रह जाता बस दो खुली मुठी पानी है,
सब खो दिया रिश्तों को बनाते बनाते,
सब पा लिया यहाँ से जाते जाते ।
ये ठंडा फर्श, ये ठंडा जल,
ये ताजे फूल, जो मुरझा जायेंगे कल,
न रहेगा मुह में पड़ा छाला,
जल जाएगा साथ ये घृत का प्याला,
सोचूंगा येही मैं शायद, पर अजीब लगेगा,
की यहाँ जो शरीर पड़ा है, वो मेरा है ।
Sunday, September 28, 2008
तुम
नहा लूँ उस रौशनी में मैं, जो बिखेरे हो तुम,
कभी साया बनके, कभी अक्स बनके मुझे घेरे हो तुम,
रोज़ इसी तरह दिन निकले, तो लगे की मेरे हो तुम ।
छूअन की मदहोशी अभी नसों में बाकि है,
अच्छा है नसें दफ्न हैं, महफूस हैं,
साँसों के आने जाने से, धडकनों के रुकने चलने से,
बदलता नही ये मंज़र,
हलकी सी बेहोशी अभी नसों में बाकि है,
शायद ये इबादत का है सिला जो इस तरह नसों में ठहरे हो तुम,
रोज़ इसी तरह दिन निकले, तो लगे की मेरे हो तुम ।
आँखें खुलीं, फिर उन आंखों में खो गयीं,
आंसू न बहे, खामोश रो गयीं,
पाना हो गया खोना, खोना पाना हुआ,
सूरज की किरणों सा ये तो,
एक नई सुबह का आना हुआ,
आज नम हुईं आँखें तो लगा,
हमें खुश हुए था एक ज़माना हुआ,
पलकों के झपकने में तेरा ओझल होना,
रूह पर चोट खाना हुआ,
यादों की पर्तों से पता चलता है, रूह पर कितने गहरे हो तुम,
रोज़ इसी तरह दिन निकले, तो लगे की मेरे हो तुम ।
Monday, September 22, 2008
कुछ किया है!
आसानी से डर लगता है ।
सीखी, रची, फिर आदत बनाई,
हर मुश्किल आसान बनाई,
जब आसान हर मुश्किल है,
फिर पाने में क्या हासिल है,
कर जाने में जीत अगर है,
न कर पाने में क्या होगा?
पा जाने में जीत अगर है,
न पाने में क्या होगा?
गिर कर, उठ जाने में जीत अगर है,
न उठ पाने में क्या होगा?
'न आने' में ही कला है,
आ जाने पर एक नया खला है,
सुबह उठ चेहरा देखूं, तो कुछ अधूरा लगे,
विचलन हो मन में तो कुछ पूरा लगे,
मुश्किल हो तभी तो आसान करूंगा,
आसानी में सब सूना लगे ।
नही होगा, तभी करुँ मैं,
जब जी सकूं तभी मरूं मैं,
न चल पाऊँ, तभी चलूँ मैं,
न कर पाऊँ, तभी करुँ मैं,
मुश्किल नई नही तो जीना कैसा?
क्या कहूँगा कल ख़ुद को? क्या किया है?
साँसे तो चलती ही थी, क्या जिया है?
आसान है अंत तक जाना,
शुरुआत करुँ तो लगे कुछ किया है ।
Tuesday, September 16, 2008
Can't!
I havent been writing for a long time now. Was just thinking, why?
I think my mind has stopped functioning. It has refused to read the newspapers, or watch the news or even stay awake for that matter.
Anyway... I decided i will write something today.
So here goes.
Nothing in the recent past has moved me. All I know is that I have thrown myself into a situation which i thought i wouldnt be able to handle.
Thats all. So I guess I am too busy being nervous to have anytime or any thought about anything else.
Again... another mindless post. Another wasted effort for the ones who read this. Some more words gone down the drain. Some more emotions, gone unnoticed.
But why? Why cant i write? And I am ok with it? Why?
Sunday, September 14, 2008
I was just fooling around!
Sunday, August 17, 2008
उम्र
सबकी आहों में असर हो, ये ज़रूरी तो नही ।
कायदा बरता है हमने फुरकत में भी,
पर हर हुक्म की ख़बर हो, ये ज़रूरी तो नही ।
परस्तिश कैद है बुतखानों में,
खुदा काबू में मगर हो, ये ज़रूरी तो नही ।
Tuesday, August 12, 2008
एक और आज़ादी
१५ अगस्त के आस पास, मुझे कुछ हो जाता है,
सारा संयम अकस्मात जैसे खो जाता है,
देश प्रेम उमड़ने लगता है,
सिगनल की लाल बत्ती पर खड़े हुए,
मन विचलित हो, तन से बिछड़ने लगता है,
याद आता है गाँधी मुझको,
'जन गण मन' हवा में छिड़ने लगता है,
इस महीने के वेतन को, व्यर्थ नही करूंगा मैं,
अपनी मासिक किश्तों के साथ,
किसी भूखे का पेट भी भरूँगा मैं,
इस महीने... अ ... अ... चलो अगले महीने ये करूंगा मैं,
गाड़ियों की आवाजों में,
मुझे सुनाई देती है वो क्रांति की पुकार,
बाग़डोर आई थी अपने हाथ, देखता था सारा संसार ।
इतना देश प्रेम २८ सालों में पहले न समझा था मैंने,
एक छोटे से बच्चे से खरीद,
एक तिरंगा अपनी गाड़ी में जड़ दिया ला मैंने,
२० रुपये कहा था, १० में मना लिया था मैंने,
ये उनके नाम है, जिन्होंने खोयी अपनी जवानी थी,
पढ़ी थी एक कविता बचपन में,
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी,
मैंने कहा था, १५ अगस्त के आस पास मुझे कुछ हो जाता है,
सारा संयम अकस्मात जैसे खो जाता है ।
आज सिर्फ़ सुनूंगा, स्वदेस (शाह रुख वाली),
बॉर्डर, हक़ीक़त या परदेस के गाने,
जाऊंगा गीली आँखें लिए, तिरंगे को लहराता देखूँगा,
न्यूज़ चैनल्स पर बमों की ख़बरों से थक,
नए चैनल पर जोधा अकबर देखूँगा ।
ad agencies के दुःख में शामिल हो,
पेपर में आधा अधूरा तिरंगा देखूँगा ।
law है - तिरंगा पेपर में नही छपेगा,
कुछ देर फिर अधिकारियों को कोसूँगा ।
देखूंगा सुबह का दिल्ली में आज़ादी समारोह,
सुनूंगा मुस्कुराता प्रधानमंत्री का भाषण,
देखूँगा रुआंसा हो, सिपाहियों की समाधी,
लो आ गई एक और आज़ादी ।
ये flag hoisting के पेढे, क्यूँ इतने मीठे होते हैं,
मरे से क्यूँ हैं ये फूल झंडे से जो गिरे हैं,
क्या colony वाले रात में ही इन्हें झंडे में बाँध कर सोते हैं ?
ये अगस्त के महीने हर साल बारिश के ही क्यूँ होते हैं ?
चलो कोई चिंता नही है,
कल सब ठीक हो जायेगा,
सारा संयम फिर से मुझको प्राप्त हो जायेगा
तिरंगा अख़बार से, टीवी से, मेरी गाड़ी से लुप्त हो जायेगा
मात्र १० रुपये में मिलता है, अगले साल फिर ले लूँगा,
घर में किताबों के पीछे उसकी जगह भी बना दी,
लो आ गई एक और आज़ादी ।
Sunday, August 3, 2008
तगफ़ुल
पर आज तगफ़ुल करना होगा ।
उन आंखों में रंज ज़्यादा था,
इतने रंज का इल्म हमें न था,
लफ्ज़ ख़बीदा थे,
मायूस थे, आबीदा थे ।
अश्क़ दीवाने थे,
बस अभी बह जाने थे,
इस दिल को ख्वाहिशों से,
उन ख्वाहिशों को दिल से डरना होगा,
तगफ़ुल करना फ़ितरत में तो नही,
पर आज तगफ़ुल करना होगा ।
रंजिशों पे बंदिशें लगी,
काफ़ी तब्दीली थी हरक़त में,
एक मिस्रा निकलेगा वस्ल में,
कई निकलेंगे फ़ुर्कत में,
ऐसा होता है अकीदत में,
या कदम रखा है वहशत में ?
इक्थियार पर एक अशआर करना होगा,
तगफ़ुल करना फितरत में तो नही,
पर आज तगफ़ुल करना होगा ।
एक ही अफ़सोस है,
उन्स फिरदौस है,
ये भी ख़बर है,
अभी आयतों में असर है,
पर शायद इस तगफ़ुल का अंजाम मुक्कद्दर का मरना होगा,
नूर-ऐ-उल्फत-ऐ ख़ुदा अंधेरों से डरना होगा,
उन आंखों का रंज रूह में है,
इस दिल के ग़म का क्या वरना होगा,
क्यूंकि तगफ़ुल करना फितरत में तो नही,
पर आज तगफ़ुल करना होगा ।
तमाम तगफ़ुल तमाम हो ।
Sunday, July 27, 2008
पलकें
डर लगता है ।
उस एक पल में,
कितनी जिंदगी है,
उस एक पल में,
कितनी है मौत,
उजाले से अँधेरा,
अंधेरे से फिर उजाला हो न हो,
मैं उस अंधविश्वासियों में से हूँ
जिसे अँधेरा मौत का घर लगता है,
मैं पलकें नही झपकता,
डर लगता है ।
आंखों में पानी रहता है,
कभी रुकता, कभी बहता है,
कैद करता रहता हूँ छवियों को,
बेच दूँगा किसी दिन कवियों को,
पुतलियाँ जब जवाब दे जायेंगी,
पलकें जब भारी हो जायेंगी,
रंग छूटने लगेंगे पहले,
नहले लगने लगेंगे दहले,
त्रुटियां ओझल हो जाएँगी,
जब पलकें बोझल सो जायेंगी,
सिखाया है इनको, पर प्रवृति से हैं पोस्ती,
पर हो न पायेगी अंधेरे से दोस्ती,
उस दिन आत्मबल बढ़ा पलकों पर लपकूंगा,
न रहेंगी, न झपकूंगा ।
फिर देखूँगा,
हर पल क्या मंज़र लगता है,
मैं पलकें नही झपकता,
डर लगता है ।
सूरज
आज सूरज कुरेदना है।
छुपता है बादलों के पीछे,
आज तू देख नीचे,
नीचा दिखाना है तुझे,
बुझा न पाया तो,
कुछ मंद बनाना है तुझे,
बहुत उगली आग तुने,
अब तुझ पे अंगार उंडेलना है,
बस अब बहुत हुआ,
आज सूरज कुरेदना है ।
तुझे छीलूंगा,
तो रोशनी नाखूनों में भर जायेगी,
तपन, खाल में घर कर जायेगी,
फिर भी निहथा आऊंगा,
तेरी जिद्द को अपनी जिद्द से मिलवाऊँगा,
तेरी ही आग में तुझे जलाऊँगा,
समेट ले जिन किरणों को समेटना है,
बस अब बहुत हुआ,
आज सूरज कुरेदना है ।
नया दिन, नई रोशनी,
इसी बात का न तुझे गुरूर है,
नही बदलती जिंदगी,
ये तेरा ही क़सूर है,
हँसता है, मज़ाक उडाता है,
रोज़ वही कहानी लिए आ जाता है ।
पर अब और नही,
न नई रोशनी, न नया दिन,
न नई उम्मीद, न पल कठिन,
कल ये किस्सा ख़त्म,
अब बस तेरे लिए थोडी संवेदना है ।
बस अब बहुत हुआ,
आज सूरज कुरेदना है ।
कल सुबह फिर रात होगी ।
न होगा कल, न कल की बात होगी ।
Thursday, July 24, 2008
आसमान
आज आसमान सफ़ेद है,
थोडी मस्ती हो जाए!
हरे - हरे पत्तों की पेस्ट बना कर,
थोड़ा सा गुलाब का रंग निकाल कर,
छिड़केंगे आसमान पर,
या फिर मिट्टी में पानी मिलाकर,
पोथेंगे और भूरा कर देंगे सारा आकाश,
फिर थोडी रौशनी के टुकड़े उठा कर,
छोटे-छोटे तारे बना कर,
टांगेंगे आसमान पर।
अच्छा है उस से पहले, मिट्टी थोडी सस्ती हो जाए,
आज आसमान सफ़ेद है, थोडी मस्ती हो जाए!
रंग लेकर जामुन से, समुन्दर से नीला पानी ले कर,
लेंगे नारंगी - संतरों से, hari hari क्यारियों से लेंगे हरियाली,
शिमला के सेबों से ले लेंगे लाली,
बनाएँगे नया एक इन्द्रधनुष, चाहे कितना भी दांते माली,
पर पहले सारी बस्ती सो जाए,
आज आसमान सफ़ेद है, थोडी मस्ती हो जाए!
खेतों की पकती धान से, चुरा लेंगे सुनेहरा रंग,
उस में थोड़ा गुड़ मिला कर, करेंगे थोड़ा गहरा रंग,
खाने की प्लेट से, एक गोला बनेगा,
सीधी-सीधी लइनों से, किरणों को रूप मिलेगा,
लो बन गया है सूरज, अब थोडी सी धूप हो जाए,
आज आसमान सफ़ेद है, थोडी मस्ती हो जाए!
Mummy की चमकीली साड़ी है,
कोना लेंगे उस में से,
सफ़ेद-सफ़ेद पानी मिला कर उस में,
चमकीला कर देंगे और थोड़ा,
बंटी की छोटी प्लेट से फिर बनेगा एक छोटा गोला,
अच्छा है इस में किरणें नही है,
इसी लिए चाँद बनाना ही सही है,
पर सफ़ेद आसमान में सफ़ेद चाँद कहीं न खो जाए!
कोई बात नही, आज आसमान सफ़ेद है, थोडी मस्ती हो जाए!
सच
बार-बार पलकें झपकाते,
खड़े पैरों पर डगमगाते... आते,
सच भी है - बच्चे ने "माँ" कहा था पहले,
"बाबा" कहने में कुछ दिन लगे थे,
माँ की उस जीत पर,
पिता ने कई आंसू ठगे थे,
सुबह दो नन्हे हाथ,
सिर्फ माँ की ही गर्दन से लगे थे,
मामूली सी खांसी पर जब,
रात भर माँ-बाबा दोनों बराबर जगे थे।
एक हाथ में दामन का कोना,
दूसरे में मेरी ऊँगली रही थी,
चलना सीखा, छूठी ऊँगली,
हर शाम तो उसके बाद भी, माँ के दामन में ही ढली थी।
जलती पूरियों का दोष ख़ुद पे लेता,
क्यूँ न हो? था तो - "अपनी माँ का लाडला बेटा" ।
हर सवाल, हर राज़, हर बात,
माँ के ही कानों में पहले पड़ती,
शायद मेरे दुःख में, मेरे आंसू शामिल नहीं हैं न,
क्या करुँ ? मेरे पास माँ का दिल नहीं है न ।
सालों बाद आज जब घर लौटा है,
माँ के गले लग, बच्चे की तरह रोता है,
पता नहीं क्यूँ माँ को देख, आँखें भावी हो जाती हैं,
पिता के आगे, सारी शिकायतें आंसूओं पर हावी हो जाती हैं ।
पर आज गले लगा तो, गला भर आया,
सालों का ग़म, आंखों में उतर आया,
पुछा मैंने, "क्यूँ तेरी माँ, तेरे पीछे, तेरे आगे, इतना रोती है?"
सोचा... फिर बोला... " आप नहीं समझोगे बाबा, आपके पास माँ का दिल नहीं है न ।"
बीते साल, एकाएक, मेरे सामने उतर आए
आज इस पिता के आंसू भर आए।
मुझसे बोला, "बाबा आप को क्या हुआ ?"
मैं मुस्कुरा के बोला, "तू समझेगा पर कई सालों बाद...
"तू समझेगा...
पिता का दिल है न ।
Friday, July 18, 2008
आज चाँद पूरा है
अब्र फिर अदावत पर उतर आयेंगे।
ढकेंगे, छुपायेंगे, दफ्न कर देंगे नूर,
आदत नही है ये, है गुरूर,
हर रेशे को चुन-चुन, क़त्ल किया जायेगा
आज फिर हिज्र को तमगा-ऐ-गुनाह-ऐ-वस्ल दिया जायेगा।
घेरा जायेगा फिर माहताब को,
आसमान भर के साये, फ़क़त एक हरारत पर उतर आयेंगे ।
आज चाँद पूरा है
अब्र फिर अदावत पर उतर आयेंगे।
हर सितारे के क़स्बे पर हक़ जमाने की कोशिश को,
आज फिर नाकाम किया जायेगा,
सदियों से चली आई इस अदावत को,
आज तमाम किया जायेगा
नज़रों में लहू आज आया है,
आज के फैसले रिवायत पर उतर आयेंगे
आज चाँद पूरा है
अब्र फिर अदावत पर उतर आयेंगे।
क़स्बे, रियासतें, होंगी लहुलुहान,
सदियाँ करेंगी बखान,
आज टुकड़े होंगे,
सदियों दुखड़े होंगे,
इनायत हुई अगर तो,
कबीलों के काफ़िले विलायत पर उतर आयेंगे
आज चाँद पूरा है
अब्र फिर अदावत पर उतर आयेंगे।
कल चाँद कटेगा,
कल चाँद कटेगा ।
Thursday, July 10, 2008
मैं मर रहा हूँ
साँसों से मन भर गया, मैं मर रहा हूँ।
मेरा सच, करोड़ों का झूठ है, उनका झूठ मेरा सच,
उन्हें मुझसे खेद है, मुझे उनसे हर्ज,
खुदाई में बंदगी से डर रहा हूँ।
साँसों से मन भर गया, मैं मर रहा हूँ।
न किसी के अश्कों की मैं वजह बना,
फिर भी हर अश्क की वजह हूँ,
कहने को इक तरफ़,
फिर भी हर जगह हूँ,
बंदगी में खुदाई से डर रहा हूँ।
साँसों से मन भर गया, मैं मर रहा हूँ।
ज़्यादा खुशी और ज़्यादा ग़म में फर्क नहीं,
दोनों में ही भीगती हैं आँखें,
दोबारा चलने से पहले,
एक पल रुकती हैं सांसें,
उस एक पल की मौत में जिंदगी भर रहा हूँ,
साँसों से मन भर गया, मैं मर रहा हूँ।
मेरी नज़रों के प्यार को तरसता हो कोई,
ख़ुद से नफरत हुई जाती है ऐसे प्यार से,
जिंदगी ने खूब देखा मुझे इस ओर से,
अब जिंदगी को मैं देखूँगा उस पार से
बिखरे लम्हों से ख़ुद को समेट, संवर रहा हूँ।
साँसों से मन भर गया, मैं मर रहा हूँ।
Tuesday, June 24, 2008
Why?
The biggest challenge in life is to understand love.
It’s not a technical piece of information but its equally challenging. The reason why I think people don’t understand it is because people try to do it. They are desperately making an attempt to understand it.
There’s so much written, read, analyzed, spoken about it that everyone in the world seems to be trying too hard to crack it.
Ground rules:
Say ‘I love you’, at least once a day. What the heck? Don’t u f<>#% know it?
Call. Why? Isn’t the feeling enough? That someone loves you?
Be there. You can’t really define this one. Calling, meeting nothing is enough.
All I want to say is if you love someone, it stays. For life. That defines you. That makes you understand the world better. That makes you feel special. That makes you happy. That brings a smile on your face.
But here we are, trying to feel more loved, trying to reason it out, trying to enjoy the feeling. In the process, ending up doing jackshit!
It’s simple. When you know you love someone and that someone knows you love him/her, that’s it. It’s a feeling. Not a science report. Don’t reason it.
Trust me. These seem like only words and you Think you are already doing it. Trust me, no one is. And its more difficult than making rocket fuel.
Monday, June 9, 2008
आपकी याद
चश्म-ऐ-नम मुस्कुराती रही, रात भर ।
रंग-औ-बू की पहचान हमें रही ता-उम्र,
सारी इल्म डगमगाती रही, रात भर।
वस्ल का वास्ता दिया हिज्र को,
तमन्ना मात खाती रही, रात भर ।
रंगत का सबब आईना पूछता रहा,
नाम तेरा झुठलाती रही, रात भर ।
अश्कों को धमका रखा था, तो,
चश्म-ऐ-नम मुस्कुराती रही, रात भर ।
Sunday, June 8, 2008
उसे छूना है
उसके जिस्म के रुओं के एहसास की प्यास, इन उँगलियों की मुलायम सी सतह को है,
रूह चाहती उसे किसी वजह से नही, इश्क़ तो फ़कत उसी वजह से है ।
Romantic: Prasoon joshi style
मन करता है, हथेलियों को हथेलियों में, उँगलियों को उँगलियों में, खो दूँ,
मेरी हँसी वो हँसे, मैं उसके आंसू रो दूँ,
उसके नाखूनों के उगते सूरज की रंगत, मैं अपने नाखूनों में बो दूँ ।
Romantic: Normal
उसकी छुअन का एहसास साँसों में घुला है, रंग कुछ अलग ... मिला-जुला है ।
दिल है की जिद्द पे अडा है, उसके जिस्म के एहसास को महसूस करने पे तुला है ।
Wednesday, June 4, 2008
A new day - Prelude - Book 1 - Draft 3
It was a beautiful morning.
Rohan's eyes were still sleepy. He was smiling. A smile that was pure, serene and flawless. He had seen everything. Broken promises, made new ones and broken them again. He had no regrets. About anything. And absolutely no complaints.
He knew he was responsible for a lot of strained relationships and a lot of incomplete emotions.
Thats how all of us are. Life is about incompleteness.
His mind was at peace. No thoughts, no images, no naked school girls... nothing. He was not thinking about anyone. His heart was at peace. He was at peace.
Without an iota of change in his expression, he tightened the grip on the knife, which was already half-buried into the veins of his left hand.
This is going to be a little difficult. The up and down movement of the knife. But thats how everything in life is. A 'little' difficult.
He slowly moved the knife. Up. Down. Up. Down. The smile was brighter now.
He then artistically bent the upper portion of the knife, so that it sinks further deep into his wrist. And it did. Now, it was the lower portion. The blood flew. It felt relieved. For the first time, it was set free.
Up. Down. Up. Down.
The first ray of light touched Rohan's eyelashes. The smell of the light was mesmerising. Rohan knew it would absorb the droplet of water from his eyelash. It would absorb the darkness, thus the impurities.
Within seconds his room was lit. His gaze moved from his hand to rachna. She was still asleep. The light trying to wake her up. She blocked the light by her hand. The sheet barely covered her body.
She is beautiful. The most beautiful woman on the planet.
He did not want to blink. He wanted to keep looking at her body. He wanted to feel the warmth of her body against his. He loved her.
He tightened the grip even further and this time the action was vigorous. This time, he knew, he wont lose.
He saw the view outside. Yet again.
A new day in my life. A beautiful new day.