Sunday, July 27, 2008

पलकें

मैं पलकें नही झपकता,
डर लगता है ।

उस एक पल में,
कितनी जिंदगी है,
उस एक पल में,
कितनी है मौत,
उजाले से अँधेरा,
अंधेरे से फिर उजाला हो न हो,
मैं उस अंधविश्वासियों में से हूँ
जिसे अँधेरा मौत का घर लगता है,

मैं पलकें नही झपकता,
डर लगता है ।

आंखों में पानी रहता है,
कभी रुकता, कभी बहता है,
कैद करता रहता हूँ छवियों को,
बेच दूँगा किसी दिन कवियों को,
पुतलियाँ जब जवाब दे जायेंगी,
पलकें जब भारी हो जायेंगी,
रंग छूटने लगेंगे पहले,
नहले लगने लगेंगे दहले,
त्रुटियां ओझल हो जाएँगी,
जब पलकें बोझल सो जायेंगी,
सिखाया है इनको, पर प्रवृति से हैं पोस्ती,
पर हो न पायेगी अंधेरे से दोस्ती,
उस दिन आत्मबल बढ़ा पलकों पर लपकूंगा,
न रहेंगी, न झपकूंगा ।

फिर देखूँगा,
हर पल क्या मंज़र लगता है,
मैं पलकें नही झपकता,
डर लगता है ।

3 comments:

Anonymous said...

want to know the inspiration for this! badly!

Mojo said...

A beautiful thought. Very nice.

Unknown said...

really good stuff sid!
very impressed