Sunday, September 28, 2008

तुम

हर रोज़ जो सवेरा करे, वो सूरज की किरण हो तुम,
नहा लूँ उस रौशनी में मैं, जो बिखेरे हो तुम,
कभी साया बनके, कभी अक्स बनके मुझे घेरे हो तुम,
रोज़ इसी तरह दिन निकले, तो लगे की मेरे हो तुम ।

छूअन की मदहोशी अभी नसों में बाकि है,
अच्छा है नसें दफ्न हैं, महफूस हैं,
साँसों के आने जाने से, धडकनों के रुकने चलने से,
बदलता नही ये मंज़र,
हलकी सी बेहोशी अभी नसों में बाकि है,
शायद ये इबादत का है सिला जो इस तरह नसों में ठहरे हो तुम,
रोज़ इसी तरह दिन निकले, तो लगे की मेरे हो तुम

आँखें खुलीं, फिर उन आंखों में खो गयीं,
आंसू न बहे, खामोश रो गयीं,
पाना हो गया खोना, खोना पाना हुआ,
सूरज की किरणों सा ये तो,
एक नई सुबह का आना हुआ,
आज नम हुईं आँखें तो लगा,
हमें खुश हुए था एक ज़माना हुआ,
पलकों के झपकने में तेरा ओझल होना,
रूह पर चोट खाना हुआ,
यादों की पर्तों से पता चलता है, रूह पर कितने गहरे हो तुम,
रोज़ इसी तरह दिन निकले, तो लगे की मेरे हो तुम

1 comment:

atin said...

kamal kardiya sir..har din ko ek naya rang de diya roz