Just found a very old poem written somewhere by me.
माँ
अम्बर समेट कर मुठी में तेरी भर दूँ,
आकांक्षाएं हैं कितनी,
प्रत्यक्ष सा प्रतीत प्रेम,
प्रारम्भ से प्राप्त सा प्रेम,
निश्छल, निरंतर समान सा प्रेम,
क्या ये तेरा मानवता को वरदान है,
सब कहते हैं,
यही तो कपटी धरती पर भगवान है ।
छत से टपकता नीर,
पत्ते पर पड़ी काछी, अधपकी पौनी रोटी पर पड़ता,
देख अचंभित नयनों से,
मचल उठती, हो जाती अधीर,
ले मैले आँचल का कोना,
दौड़ती मचले कदमों से,
पराजय से ह्रदय जाता चीर,
नीर आँचल को चीर,
जा पड़ता रोटी पर,
अपनी परास्त कृति को,
उठा, सीने से लगा लेती,
मानो मिट गई हो भूख,
सुनो हवा में तीव्र शांत चीख,
गूंथे बालों को खींचता सा,
अविकसित भावनाओं का बहाव,
अपनी शांत आंखों की पीड़ा,
अदृश्य नीर से सींचता सा,
छोड़ निर्बलता का आँचल,
मुस्कुराती, चूम लेती माथा उसका,
पहली बार आज प्रत्यक्ष को प्रमाण है,
यही तो कपटी धरती पर भगवान है ।
टूटे हुए सपनों के टुकड़े समेट,
यादों को बाँध,सीने से लपेट,
असीम मृत बातों से शक्ति जुटा,
फिर बैठा मेज़ पर कलम उठा,
फूलों से खिलता चेहरा,
दीवार का जीवन बढाता,
ह्रदय में रहता कभी,
कभी नयनों में उतर आता,
बिना शब्दों के नए शब्द,
अक्षरों को दे जाता,
वो दीर्घ पवित्र नयन,
दृढ़ कर देते और चयन,
उँगलियों को बल, समस्याओं को विकल्प,
दे जाते मूल्य आधार को,
आधार को देते संकल्प,
जीवंत विजय करती नृत्य,
कह जाती मात्र ये सत्य,
स्मरण करो जब हो जाओ मंद,
"आंखों के साथ साँसे भी हो जाती बंद"
कहना मृत तुझको तो,
जीवन का अपमान है,
यही तो कपटी धरती पर भगवान है ।
बरसों बाद लौटा जब घर,
वही भयभीत सोच, वही विश्वास निडर,
कुछ, समय की झुर्रियों में डूबी,
ऊँगली उतनी ही मज़बूत मगर,
माथे पर लगे हलके से चिन्ह, पर प्रश्नचिन्ह लगा,
सोच में वृद्धि जगा,
आंखों से निश्छल आंसू बहते,
रुक जाती कुछ कहते कहते,
होठों की सिहरन, अधरों की अधीरता,
स्तब्ध कर देती ह्रदय की वीरता,
"कुछ नही बदला बिन तेरे" मुझसे कहा,
"बस रसोई में कोई बातें करने को नही रहा"
मान लिया संसार में हम सब,
मात्र एक लघु इंसान हैं,
यही तो कपटी धरती पर भगवान है ।
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