Sunday, December 30, 2012

ग़म नहीं

अश्क़ ज़रिया हैं ग़म नहीं

इश्क़ तो ले आया दर पे तेरे
पर जिसने रोका वो भी एहम नहीं

मर्ज़ होता तो जाँ लेता
इश्क़  है, इसका  कोई मरहम नहीं

रात का सुकून वेह्शत लगता है
जैसे रात में भरते  हम दम नहीं

अश्क़ आशिक़ी में बहाए इतने
के अब तुम नहीं या हम नहीं

दर्द से क्या बचेगा आशिक़
जो दर्द न दे वो सनम नहीं

अश्क़ ज़रिया हैं ग़म नहीं
एहसास है, कलम नहीं
बह निकलें तो दरिया
जो रुक जाएँ आँखों में
तो तूफां से कम नहीं

इस बार न बहें, रुके रहें
साहिलों के सर झुके रहें
नज़र से बाँध नज़र ये कह सकूँ
के दर्द तो है पर कोई ग़म नही

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