Thursday, March 29, 2012

लफ़्ज़ों का फ़रेब

इन लफ़्ज़ों के फरेब में मत आना
जब इनकी सबसे ज्यादा ज़रुरत होती है
तब ये गायब होते हैं ।

अक्सर एक लम्बे चौड़े सवाल का जवाब
खाली होता है
और इल्जामों का तो ऐसा है
मार जाते हैं लफ़्ज़ों को
बदहवासी, बेख़ुदी, बेदारी
मौका मिला और खिसक लिए ।

हमने जज़्बात अपंग कर रखे हैं
हालांकि जज़्बात तो यूँ भी बेजुबान होते हैं
मसलन इश्क़
अच्छे अच्छे गूंगे पड़ जाते हैं
क्यूंकि घर से निकले थे
बयान तैयार करके
वक़्त आया और लफ्ज़ फिर खिसक लिए

मुआफी का मौका
फिर गायब
इंतज़ार, वस्ल, फुरक़त, ग़म
गायब
जहाँ एक बात में बात बन जाती
वहां गायब

इसी लिए शायरों ने इनको
ख़रीद रखा है
स्याही से बाँध कर
क़रीब रखा है
अब वहां से खिसकें भी तो कैसे ?
पर साले हैं बड़े कमीने
मौकापरस्त इतने के बस चले तो
किताबों से भी खिसक लें
वक़्त रहते वहां भी कहाँ मिलते हैं बेवफ़ा

चुपी से ऐतराज़ है ज़माने को
तैयार रहता है आज़माने को
और ये कमबख्त
अकेला छोड़ जाते हैं

मुझसे कोई शायरी की तरकार न रखो
शायर की कुर्सी मेरी नहीं
मुझ पर तुम सरकार न रखो
कहनी अपनी बात
हमें न कुछ ख़ास आई
जो ख़ामोशी से हुई है
हमें तो बात वही रास आई

1 comment:

Garima said...

Mindblowing! Mindblowing! Mindblowing sid!!! kya kahun...lafz gaayab hain!!!....................................................................................kamaal likha hai. aisa likha hai ki ispe likhne ko jee chahta hai. kya baat keh di hai, itne simple, aam bolchaal ke dhang mein. esp "humne jazbaat apang kar rakhe hain", "isiliye shayaron ne inhein khareed rakha hai" "muaafi ka mauka, phir gaayab" loved it! aur baaki poems ke jaise, your last line is a killer. truly great poetry. reading every line again. i totally enjoy this brand of poetry!