Friday, March 9, 2012

मीर


आज कल
एक-आध घंटे के लिए
मीर की एक क़िताब
सीने से लगा के घूम रहा हूँ
कुछ तो ज़हन में चला जाएगा

क्या तक़लीफ़ थी इन शायरों को
इतना रंज, इतना दर्द क्यूँ था इन्हें ?

हाँ सुना तो है
के स्याह ग़म, स्याही में ढल जाता है
ग़म से ही तो
मिसरों में वज़न आता है
भई हर किसी को
दुसरे के ग़म से लुत्फ़ आता है
और शायर-जात का हर उस्ताद
सुरूरज़दा हो, हर शब्
अपने ही ग़म का जश्न मनाता है
एक डोर और है
हर शायर जिस से बंधा है
ये धागा है इश्क़ का
ज़ाहिर है, क्यूंकि
इश्क़ से बड़ा क्या ग़म ?

एक बात और परेशां करती है मुझे
ये सारी नज्में, बे-वक़्त, बे-तारीख़ क्यूँ हैं?
पर ख़ुदा--सुख़न 'मीर' तो ख़ुद भी बे-तारीख़ हैं
ख़ुदा कब जन्मा, ये बन्दे कब जाने हैं

अब भी अशआर कहो तो नए से लगते हैं
या तो हम आगे न बढें हैं तब से
या वो शायर मरे नहीं
लिख कर हाल-ए-दिल ज़रिया-ऐ-तक्खलुस
वो कायर डरे नहीं

काली सी क़िताब है
इक तरफ़ उर्दू है
इक तरफ़ हिंदी
इक तरफ़ उलटी, इक तरफ़ सीधी
वक़्त रहते वरक़ पीले हो चुके हैं
इतिहास और रेख्ते में
हाथ मेरा ज़रा ढीला है
शायद ज़रा सी 'मीरगी' आ जाए

सुना है जहाँ मज़ार थी मीर की
आज वहां रेल की पटरी है
मिट्टी अब भी गर्म है आतिश--जिग़र से
जाने अनजाने में लोहा चलना ही था

मैं भी कुछ भी बोल रहा हूँ
कभी क़िताब की बात
तो कभी मज़ार
कभी रंज-औ-ग़म का ज़िक्र
तो कभी तारीख़ की फ़िक्र
न तुक बैठा है न जुबां साफ़ है
पढ़ेया मीर क़सीदा पढ़ेया
इस नशे में सब माफ़ है

दीवान-ए - मीर में बाज़ार है ग़म का
ख़रीद नहीं पाया कोई मगर
दाम किसी न लगाया भी नहीं
न कोई बोली उठी
न अब अहर्फियों का ज़माना रहा
न कोई कुछ दे पाया, के व्योपार होता
ये तो आशिक़ी पे बिकता है
होता है तो
एक नज़र में खरीदार दिखता है
इक खुशनुमा सी दीद हुई - ख़रीद हुई

ये ज़ौक अब कहाँ रहा
ये कोई आयतें नहीं जो
दिन में पांच बार पढ़ी जाती हैं
और ये भी तो बस कहने की बात है
कौन सी ये मुझ में उतर आएगी
न मेरी भाषा है ये, न मेरा धर्म
पर अभी तो सीने से लगाई है क़िताब
आगे आगे देखिये होता है क्या
यहाँ हम मीर बनने का ख़्वाब देखते हैं
कहता है ज़माना जगा कर हमको
तुझे मीर बनना है सोता है क्या
पर अभी तो सीने से लगाई है क़िताब
आगे आगे देखिये होता है क्या

1 comment:

Garima said...

Superb! Superb! superb! itna saccha hai harek stanza...how do you write so clean? its beautiful!