रोज़ गली में दिख जाते थे
हम मुस्कुरा कर, नज़र झुका कर सलाम कर लेते
बस तभी से सिलसिला जारी है इबादत का
सब कुछ लुटा चुके हैं इस धंधे में हम
हमें न था इल्म इस तिजारत का
परस्तिश ही करनी थी सो कर ली
हमें क्या दैर-ओ-हरम की ईमारत का
इश्क़ में तो सब बराबर होते हैं
फिर क्यूँ उन्हें है ज़ौक खुदाई का
क्यूँ हमें है इंतज़ार इनायत का
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