उठ मेरी जान, मेरे साथ ही चलना है तुझे
ज़िन्दगी जेहद में है सब्र के क़ाबू में नहीं
नब्ज़-एक-हस्ती का लहू कांपते आंसू में नहीं
उड़ने खुलने में है नेह्क़त खमे-गेसू में नहीं
जन्नत एक और है जो मर्द के पहलु में नहीं
उसकी आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे
उठ मेरी जान, मेरे साथ ही चलना है तुझे
क़द्र अब तक तेरी तारीख़ ने जानी ही नहीं
तुझमें शोले भी हैं बस अश्कफिशानी ही नहीं
तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है एक चीज़ जवानी ही नहीं
अपनी तारीख़ का उनवान बदलना है तुझे
उठ मेरी जान, मेरे साथ ही चलना है तुझे
- कैफ़ी आज़मी
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