Friday, March 30, 2012

गमसर्रत

आज बेदारी में एक काम किया मैंने
कागज़ पर इक तरफ़ ग़म लिखे
और दूसरी तरफ़ मसर्रत
फिर एक कोने में खांचा उम्मीद का बनाया

ख़ुद-ब-ख़ुद चलने लगी कलम मेरी
जैसे तीरगी में तीर कोई चलता है
जैसे शब् को दिया कोई खलता है
एक तरफ़ से वर्क़ भारी होता गया
ज़ाहिर है वो खांचा ग़म का था

दो दफ़ा कुछ लिख कर काटा था
मसर्रत के हिस्से में जो बांटा था
क्यूंकि याद आया
की मसर्रत का ये किस्सा भी तो
मैंने ग़म से ही छांटा था

इस ग़म से निजात क्या हो
दरमान्दा हूँ, नशात क्या हो
इस ग़म की वजह कोई पूछे तो
मुस्कुराता हूँ
अजब है ग़म और मसर्रत का ये राब्ता
एक ही दूसरे का रास्ता बनाता है
पुकारो एक को तो दूसरा चला आता है
अगर ये दिन है तो रात क्या हो

फिर सोचा की चलो कुछ तो मसर्रत में भी डाल दूं
ग़म पे उठाने को, कुछ तो सवाल दूं
वो जो दो पल तेरे साथ गुज़रे थे
मसर्रत के नाम किये
जो नाम लिया था तूने लरजते लबों से एक बार
मसर्रत के नाम किया
जो अपने अरमान में मेरा ज़िक्र किया था
मसर्रत के नाम किया
और सोच कर वक़्त ज़ाया न किया मैंने
ग़म के खांचे को उसकी औकात पे ला दिया मैंने
पर एक हलकी सी हंसी से पहले देखा
की उम्मीद का भी खांचा एक बनाया था कोने में

अब औकात भी दिखाने के लिए इसको भरे कौन
इस सिलसिले से तो भागता फिरा हूँ
अब इसे रवां करे कौन

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