Tuesday, March 6, 2012

उस रात

उस रात एक क़ब्रिस्तान जला था

मग़र ये ख़बर कहीं दफ़्न रही शायद
फैलती तो आग लग जाती
उस रात हवा में कुछ था
या ये फ़क़त गुमा है
उन लपटों में चीखें तो नहीं थी लेकिन
एक-आध सरगोशी सी थी शायद
चाँद भी शायद
एक पहर पहले ढला था
उस रात एक कब्रस्तान जला था

कभी मिलना तो चाहिए उनसे
जो आग लगा के साहिर बन गए कुछ लोग
वहां मज़हब का परचम लिए
मर कर भी, क़ाफ़िर बन गए कुछ लोग
हाँ एक मज़ार बच निकली
पत्थर पर जो नाम लिखा था
सुना है वो काफ़िरों का पला था

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