और कितने अश्क़ पीयेगी,
ये ख़ुश्क रहेगी,
बंजर चांदनी
हर दरार प्यासी है
एक हसीं उदासी है
जैसे आज सीने में लिए बैठी है
खंजर चांदनी
इस ज़मीं से ख़ासा इश्क़ है इसे
हर बार उतर आती है
न सोचती है किसी का न देखती है
मंज़र चांदनी
उसकी आँखों के उजाले से
साँसों की उम्मीद है
दो पल को और जी लूं जो भर लूं
अन्दर चांदनी
मगर क्या ज़िन्दगी देगी ये
बंजर चांदनी
मगर लगता है जैसे
इस ज़मीं से चाँद उगाती है ये
बंजर चांदनी ।
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