Friday, April 10, 2009

समेट

समेट रहा हूँ ।

बिखरे पड़े ख्यालों को,
उलझे पड़े सवालों को,
ज़ंग लगे तालों को,
धूल जमी चालों को,
नेस्त-औ-नाबूत ढालों को,
रंज को मलालों को,
बुझी हुई मशालों को,
उधडी हुई खालों को,
वक्त के उबालों को,
सूखे पत्तों से लदि डालों को,
समेट रहा हूँ ।

कोने कोने में कहीं बिखरे हुए,
पल पड़े हैं तितरे-बितरे हुए,
पड़ी रहेंगी टूटी पलकें,
आंखों के नीचे की काली गहरी खाई में,
उलझी रहेंगी यादें, लम्हों की गीली काई में,
अब बस... समेट रहा हूँ ।

मैं तो यूँ भी सक्षम रहा हूँ,
ऐसे हालात में हर दम रहा हूँ,
तो दर्द न होगा मुझको,
सबकी आंखों का भ्रम रहा हूँ,

सही है, ख़ुद से परे न कोई किसी को जानता है,
अपने दर्द के आगे न किसी के दर्द को कुछ मानता है,
ख़ुद से निकलेगा तो बाहर देखेगा,
ख़ुद से निकलेगा तो ये मंज़र देखेगा,
समेट रहा हूँ ।

3 comments:

Garima said...

"padi rahengi tooti palkein aankhon ke neeche kaali gahri khaai mein"...is sheer brilliance.

Garima said...

bikhra rahe toh kya bura hai,
ab aisa hi sahi
sametne ki jaldi mein
ugdi chaadaron ko
geele tauliyon ko
silwaton mein phanse baalon ko
harek pe baithe sawaalon ko
taar taar kar diya karte hain
yeh simat ke bhi wahin lautenge
yeh faile bikhre toh jiya karte hain

Smruti said...

सही है, ख़ुद से परे न कोई किसी को जानता है,
अपने दर्द के आगे न किसी के दर्द को कुछ मानता है,
ख़ुद से निकलेगा तो बाहर देखेगा
Thats my fav line. Funny, but i've been thinking on those lines these past few days...

And Garima..very nice too!! Though having done jhadu pocha bartan dusting (bai on vacation) this morning, I have a problem with the line "Bikhra rahe toh kya bura hai"!!