Tuesday, March 17, 2009

मैं तेरी नज़र का सुरूर हूँ

मैं तेरी नज़र का सुरूर हूँ, तुझे याद हो के न हो,
तेरे पास रह के भी दूर हूँ, तुझे याद हो के न याद हो ।

ख्वाबों का तेरे सबब हूँ मैं,
उँगलियों की तलब हूँ मैं,
जो आंखों में रह के भी चुभे नही,
ऐसा बिस्मिल फ़तूर हूँ, तुझे याद हो के न याद हो ।

उन लबों पे मेरा ही नाम था,
उस नज़र को मुझसे ही काम था,
तेरी रातों का मैं ही सवेरा था,
तेरा हर सवेरा बस मेरा था,
जो डरे अंधेरों के नाम से,
ऐसा बेबस मैं नूर हूँ, तुझे याद हो के न याद हो ।

मेरी याद तक को मिटा दिया,
न हाथ ही थामा, न बिठा लिया,
नज़रों ने तो बहुत रोका था,
चौखट पे था, तो टोका था,
पर मैं ज़रा सा तो मगरुर हूँ, तुझे याद हो के न याद हो ।

क्यूँ हुए जुदा ये सवाल है,
कहीं थोड़ा सा तो मलाल है,
आंखों में अब भी बाकी,
आँसूओं का गुलाल है,
इस गुलाल का मैं सिन्दूर हूँ, तुझे याद हो के न याद हो ।

तेरी हँसी में भी क्यूँ, कोई ग़म सा है,
खुशी में क्यूँ, चुप, मातम सा है,
ये लब आंखों को धोखा दे जाते हैं ,
तेरे दर्द में क्यूँ मरहम सा है,
इस ग़म में शामिल तो मैं ज़रूर हूँ, तुझे याद हो के न याद हो ।

तेरे नाम के हर हर्फ़ में,
तेरी बेरुखी की बर्फ में,
आवाज़ की तर्ज़ में,
तेरे ज़ख्मों, तेरे मर्ज़ में,
माथे की क़तारों में,
सोच के गुलज़ारों में,
सुबह, कच्ची नींद की पहली सोच में,
वक्त की एडियों की हर मोच में,
आंखों में ठहरे अश्क, जुल्फों की मुश्क में,
नाखूनों के आफ़ताब में,
आंखों की दोनों पुतलियों, के काले माहताब में,
कलाई पे उभरी नसों की हरियाली में,
या उन में बहते लहू की लाली में,
मैं कांच - कांच चकनाचूर हूँ, तुझे याद हो के न याद हो ।

1 comment:

Anonymous said...

In all the poems or other posts that you've written, there has always been one line that I;ve liked better than all else.. I often tend to repeat it in my comments... so here goes..
Waqt ki ediyon ki har moch mein...very nice :-)