Tuesday, April 21, 2009

मज़हब मेरा

मज़हब मेरा आज मुक्कम्मल कर दे ।

बुत्तों में एहसास तलाशता फिरा हूँ,
बन्दों में मैं लाश सा गिरा हूँ,
फिकरा हूँ - बेहोशी से छिड़ा हूँ,
कई दफा जज्बातों से भिड़ा हूँ,
एहसास सारे जिस्म से रुखसत हो गए हैं,
आ छू के मुझे आज बिस्मिल कर दे ।
मज़हब मेरा आज मुक्कम्मल कर दे

सारा गुरूर विरासत में मिला है,
किसी बदकिस्मत वसीहत का सिला है,
दफन हो जाऊँ या जलूँ ?
राख बन गंगा में बहूँ ?

हाथ जोडूँ, या फैलाऊँ?
दाएं बायें देखूं या नज़रें मिलाऊँ ?
न देखूँ, न दिखूँ,
धुंधला ये एक पल कर दे,
मज़हब मेरा आज मुक्कम्मल कर दे

तेरे क़दमों की धूल जुबां पे लूँ,
तेरे अक्स को ख़ुद में समां मैं लूँ,
तू ही सहरी, तू ही मगरीब रहे,
तू ही बुत्त, तू ही हबीब रहे
कुफ्र का तू कर दे आज हिसाब,
मज़हब मेरा आज मुक्कम्मल कर दे

1 comment:

Garima said...

yeh guroor viraasat mein mila hai...kisi badnaseeb viraasat ka sila hai...so so soooo apt and has never been better said. this thought is worth a million dollars. what expression!