एक बार की बात है ।
जूझ रही थी एक लौ,
हवाएं चलीं थीं सौ,
दो हाथ आए ढकने को,
पर लौ थी मग़रूर,
लहराई और जला डाली दोनों हथेलियाँ,
बड़ी तेज़ थी अटखेलियाँ,
अब नंगी खड़ी थी,
एक बार की बात है,
एक लौ आँधियों से लड़ी थी ।
पहले झोंके से झुक कर, निकली बचके,
दूजे को तो गाल पर दिया तमाचा धर
तीजे को घूरा यूँ, मन में बसाया डर,
चौथे को मारी लंगडी, गिरा वो मुंह के बल,
छुपी पाँचवे से, वो गुज़र गया,
ज़ंग में जायज़ है छल,
छठे के सामने अब फैसले की घड़ी थी,
एक बार की बात है,
एक लौ आँधियों से लड़ी थी ।
मनघडंथ नही ये सच है,
लौ का जज़्बा उसका कवच है,
पटक पटक के हवा को मारती है,
मटक मटक के बगल से निकालती है,
मशालों को दिखलाती है सपने बड़े बड़े वो,
हारना तो है ही,
तो क्यूँ न डट के लड़े वो ?
इसी लिए तो हवा मशालों का साथ देती है,
क्यूंकि उस से एक लौ, कभी जी जान से लड़ी है ।
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