Sunday, April 26, 2009

जश्न - ऐ - मातम

क्यूँ एकाएक दुश्मन सा ये ग़म लगता है,
मन्नतों का असर कम लगता है ।

पेशानी की झुर्रियों में अक्सर,
कहीं दफ्न रह जाता है जुनूँ,
जब दर्द हद से गुज़रे,
तो बन जाता है सुकूँ,
नसों में दौड़ता रहता है,
चेहरा हूबहू खूँ
पर आया इस धोखे में कोई ख़म लगता है,
मन्नतों का असर कम लगता है

इसे खुशियों से ज़्यादा पाला है,
प्यार से सर पे हाथ फेरा,
मासूम समझ हवा में उछाला है,
मेहमान सा आया था, घर कर गया,
इतना डर दिया, के निडर कर गया,
मगर आज क्यूँ ये डर बेरहम लगता है,
मन्नतों का असर कम लगता है

उसी का छोड़ा है,
उसी सा मग़रूर है,
बस येही है जो उसके बाकी में,
दिल को मंज़ूर है,
कहने को तो इसके,
अशआर बड़े मशहूर हैं,
पर उन में वज़न आज कुछ कम लगता है,
क्यूँ एकाएक दुश्मन सा ये ग़म लगता है,
मन्नतों का असर कम लगता है

एक हिस्सा दिया था इसको,
आज ख़ुद हिस्सों में हूँ,
एक हर्फ़ छेड़ा था इस पर,
आज सब किस्सों में हूँ,
पहले फ़क़त सावन में निकलता था,
अब तो साल भर येही मौसम लगता है,
क्यूँ एकाएक दुश्मन सा ये ग़म लगता है,
मन्नतों का असर कम लगता है

सजदे अब और न करूंगा,
आयतें और न पढूंगा,
इस बार जीत जाने दूँगा इसे,
दुश्मन समझ और न लडूंगा,
अब शुरू ये जश्न - ऐ - मातम लगता है
क्यूँ एकाएक दुश्मन सा ये ग़म लगता है,
मन्नतों का असर कम लगता है

1 comment:

Smruti said...

Somehow, not able to understand the thought behind this one..but one line did make me think... पेशानी की झुर्रियों में अक्सर,कहीं दफ्न रह जाता है जुनूँ... Though I am not sure if what I've understood is what you mean...