Monday, January 19, 2009

Just an average thought

हम मना हैं उनके दर पर ।

हकों का फ़ैसला सौंप रखा है उनको,
परस्तिश कहो या कह लो डर
हम मना हैं उनके दर पर

एहसासों का हिसाब मांगेंगे तो खामोश रहूँगा,
मेरे इस खजाने से वो हैं बेखबर,
हम मना हैं उनके दर पर

अजनबी सा महसूस करता हूँ साथ उनके
लगता है नया हर बार सफर
हम मना हैं उनके दर पर

मेरे सवालों का जवाब नही देते वो,
खुदाई का तो पता नही, बंदगी तो है मगर,
हम मना हैं उनके दर पर

लिख भेजी हैं कई हसरतें, कई दफा,
लफ्जों में ये होती बयां कहाँ मगर,
हम मना हैं उनके दर पर

अब वक्त आ गया है, जब बर्दाश्तसे है सब बाहर,
सीधे उनसे पूछ लेते पर,
हम मना हैं उनके दर पर

1 comment:

Anonymous said...

अच्छी कविता है।
हिन्दी में और भी लिखिये। यदि हिन्दी में ही लिखने की सोचें तो अपने चिट्ठे को हिन्दी फीड एग्रगेटर के साथ पंजीकृत करा लें। इनकी सूची यहां है। हि