हम मना हैं उनके दर पर ।
हकों का फ़ैसला सौंप रखा है उनको,
परस्तिश कहो या कह लो डर
हम मना हैं उनके दर पर ।
एहसासों का हिसाब मांगेंगे तो खामोश रहूँगा,
मेरे इस खजाने से वो हैं बेखबर,
हम मना हैं उनके दर पर ।
अजनबी सा महसूस करता हूँ साथ उनके
लगता है नया हर बार सफर
हम मना हैं उनके दर पर ।
मेरे सवालों का जवाब नही देते वो,
खुदाई का तो पता नही, बंदगी तो है मगर,
हम मना हैं उनके दर पर ।
लिख भेजी हैं कई हसरतें, कई दफा,
लफ्जों में ये होती बयां कहाँ मगर,
हम मना हैं उनके दर पर ।
अब वक्त आ गया है, जब बर्दाश्तसे है सब बाहर,
सीधे उनसे पूछ लेते पर,
हम मना हैं उनके दर पर ।
1 comment:
अच्छी कविता है।
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