Thursday, November 13, 2014

हर दर

हर दर पर से झुकाये सर चलता हूँ
जाने कौन सा दर उसका घर निकले

Sunday, June 15, 2014

कल घर से निकला तो था मंदिर जाने को
रास्ते में देखा मस्जिद Lights से सजी है
बस तो मस्जिद की गली मुड़ गया

Tuesday, April 29, 2014

जंग जारी है।

AC की wires जहाँ से निकलती हैं
२ चिड़ियों ने उस में घर बनाने कि कोशिश की


अभी अभी नयी कबूतर जाली लगवायी थीं
पर साली छोटी चिड़िया ने जुगाड़ बेठा लिया
Pipe का Thermocol  लिबास नोच फैंका
और हर सुबह जुट गयी

यार जाली का क्या फ़ायदा हुआ ?

मैंने बहुत भगाने की कोशिश की
माना की कबूतरों कि जनसँख्या बहुत बड गइ है
और वो चिड़ियों के घोंसलों में घुस गये हैं
पर इसका मतलब ये तो नहीं की चिड़िया
हमारे घर में घुस जाए
यही सोच के मैने काम कर दिया

Plastic की थैलियाँ भर दी उस Hole में

आज सुबह जाली के बाहर बैठीं थी
मुझसे आँख मिलायी और बोली
जा बे!
अगर दो दिन में
Plastic की थैलियों का भरता न कर दिया तो कह्ना

जंग जारी है।

Tuesday, February 11, 2014

शायरी में लखनऊ

मजाज़ का अल्हड़पन
'मीर'-गी का जुनूँ आ गया है
शायरी में ज़रा सा लखनऊ आ गया है

देखकर मुझे पत्थर उठा लेते हैं ये
क़ाफ़िर कहाँ से रेख़ते का मजनू आ गया है

ये रेलें क्यूँ ऐसे लखनऊ से दौड़ती फिरती हैं
क्या इनमें भी 'मीर' का लहू आ गया है

कभू न मिलाना ख़ुद को मीर से
मीर न हो गए जो कब की जगह कभू आ गया

ता-ज़ीस्त यार की फ़िराक़ में रहे
यूँ बेदम हुए के वो यूँ आ गया

हिन्दवी में लिखने गए तो कलम रूकती रही
आवारा हाल-ए-ग़म उर्दू में हू-ब-हू आ गया

चिकन से यूँ सराबोर हैं ये गलियां जैसे
सूखी नमाज़ में वज़ू आ गया

दैर-औ-हरम की महफ़िलें नाराज़ रहीं
सीने में मजलिस लिए
कहाँ से ये इश्क़-ए-मजरूह आ गया

क़ीमत लगी

हर बार ज़माने ने मेरे अश्क़ पोंछे
ख़ुशी से हमेशा बढ़कर
मेरे अश्क़ों की क़ीमत लगी

बाद मेरे जाने के पहचानोगे मुझे
जाने से पहले कितनी मुसीबत लगी

दिल में बारादरी बना रखी थी उसके लिए
जिसे दरीचे में आने को भी आफ़त लगी

चलो बेदारी से मिलवाते हैं तुम्हें
तुम भी रख लेना जो ख़ूबसूरत लगी

ज़िंदा रहेंगे सदियों अलफ़ाज़ मेरे
ज़र्रे ज़र्रे में है मेरी क़यामत लगी

तबाहियों का शौक़ है ज़माने को
उम्र से ज़यादा नज़अ में ज़ीनत लगी

बड़े इमामबाड़े से नीचे उतरे तो वो मिल जायेंगे
क्या ख़ूब रक़ीबों से इस दफ़ा शर्त लगी

Sunday, February 2, 2014

रख ली

कुछ इस तरह हमने हालात से यारी रख ली
उधारी कर ली किराने की दुकान से
सर के बाल जाने लगे तो दाढ़ी रख ली

देखा तो होगा उसने मुड़ के इक दफ़ा क्या पता
हमने तो अपनी ऐनक उतारी, रख ली

हर मर्ज़ की दवा हुआ करती है आजकल
सबसे छुपाके मगर हमने एक बीमारी रख ली

क्या मसर्रत का सौदा अदा किया ज़माने को
सामान तमाम चुका कर, ख़ाली अलमारी रख ली

फ़र्क़ आता गया तुमसे हमारे वजूद में
तुम्हें सौंप कर उम्र तुम्हारी रख ली

ये चेहरे की रौनक क्यूँ मायूस है
ये किस ग़म से तुमने यारी रख ली

 बाज़ी बाज़ी में फ़र्क़ होता है
जितनी भी हमने हारी रख ली

क्यूँ आईना दिखाते है इक दूसरे को हम
कब किसने किसकी शक्ल उतारी रख ली

तेरे नाम की लक़ीर तो होगी इस हाथ में
क्यूँ हथेली पर हमने दुनियादारी रख ली

इश्क़ की मारी रही दर-ब-दर
पीरों ने क़िस्मत की मारी रख ली

चाँद अकेला कर गए तुम
मेरी रातें सितारी रख ली

 ये तबाह रातें न-ख़ुश रहती हैं मुझसे
जितनी तुमने संवारी, तुमने रख ली













Saturday, January 4, 2014

क्या ख़ाक़ इश्क़ हुआ

मीन मेक में लुत्फ़ को ही इश्क़ कहते हैं
मेरे हर ऐब पे ग़ुरूर न हुआ उसे तो
क्या ख़ाक़ इश्क़ हुआ

कौन  कहता है बेख़ुदी रहती है इश्क़ में
ख़ुदग़र्ज़ी न हुई तो
क्या ख़ाक़ इश्क़ हुआ

शायर तो बेवक़ूफ़ हुए जितने हुए
इश्क़ जैसी बला में भी ज़ौक़ लिया
बेचैन औ बेसुकूं रहने में कैसा लुत्फ़
दिल तुड़वाया
साला शायरी को धंधा बना लिया
जो दिल तोड़े, उसका सर न फोड़ा तो
क्या ख़ाक़ इश्क़ हुआ

सवाल उठाना इलज़ाम लगाना
आशिक़ों ने साला पेशा बना लिया
यकीं करने के लिए जिग़र चाहिए
जो आशिक़ हाथ में लेकर चलता है
जो यकीं न हुआ उसे तो
क्या ख़ाक़ इश्क़ हुआ

जो रंज दिल में न रखे
वो आशिक़ नहीं
जो आसानी से माफ़ करे
वो आशिक़ नहीं
जो ज़ख्म न दे 
जो बुरा नहीं
 जो खुदगर्ज़ नहीं
जो दर्द न पाले
जो अकेला न रह सके
वो आशिक़ नहीं

हक़ दिया जो उसे ज़ख्म लगाने का
पर ज़ख्म लगाए तो हाथ तोड़ दो
जो मसर्रत के बजाय
ग़म का हक़ अदा हुआ तो
क्या ख़ाक़ इश्क़ हुआ

जो तबाह हो
वो आशिक़ नहीं
जो तबाह न कर सके
वो आशिक़ नहीं
ख़ुद को भुला के इश्क़ नहीं होता
उसे इश्क़ तुम्हारी ख़ुदी से था
इश्क़ से दुनिया जीत के दिखाओ
साली दुनिया छोड़ ही दी तो
क्या ख़ाक़ इश्क़ हुआ

जो ग़लत हो उसे सज़ा मिले
जो ग़लत भी सही लगे तो
क्या ख़ाक़ इश्क़ हुआ

अबे इश्क़ की रवानी से
खून गरम रहता है
साला जैसे High BP हो
काट दो तो ज़र्र्र से बहता है
ठन्डे बन कर कह दिया - "कोई बात नहीं" तो
क्या ख़ाक़ इश्क़ हुआ

जुनूँ के तूफाँ ने हिलाया उनको
"सत्य" कि आंधी ने नहीं 
भगत सिंह ने किया इश्क़
गांधी ने नहीं

लिख लिख के वीर रस में
कवियों ने हमें कमज़ोर बना दिया
जाँ देने को कमज़ोरी नहीं, जज़बा बता दिया
जान लो तो आशिक़ बनो
सारा गुरूर छोड़ के सर झुका दिया तो
क्या ख़ाक़ इश्क़ हुआ

क्या इश्क़ मिलाएगा ख़ाक़ में मुझे
मैं भी आशिक़ नहीं जो न कह सकूँ
के लो ख़ाक़ इश्क़ हुआ

Friday, January 3, 2014

ख़ाक़ हो जायेंगे हम तुमको ख़बर होने तक

तक़ाज़े के तराज़ू में तोला हर दफ़ा इसको
इश्क़ को इश्क़ न कहा, गुनाह किया
इस दफ़ा
छीना ये हक़ भी तुमसे हमेशा के लिए
बात इतनी थी के इश्क़ किया हमने
तुम ले आये इसे क़हर होने तक