Tuesday, February 24, 2009

साँप

रगों में साँप है ।

घसीट घसीट पीटता है,
छरहरा है ढीट सा है,
दोमुँही जीभ भी है,
लहू लहू भी खींचता है ।

चमड़ी के नीचे छिपा हुआ है,
लहू से लाल लिपा हुआ है,
हँसता है, डसता नही है,
रेंगता है, फंसता नही है
हौंसलों को सींचता है,
दोमुँही जीभ भी है,
लहू लहू भी खींचता है

कुंडली भी मारता है,
केंचुली उतारता है,
वेग भी प्रचंड है,
सर्र सर्र भागता है,
विस्मय नही की,
विषमय है,
जैसे समय की प्रलय है,
जैसे ज़ख्मों की छाप है,
रगों में साँप है ।

शरीर हल्का खुरदरा है,
शिव का पाला, सरचढा है
बाजुओं में लिपटा पड़ा है
अकस्मात कौंधता है,
जैसे पूँछ पर झपटा पड़ा है
पलकें नंगी हैं,
आँखें मलंगी हैं,
रह रह विष से इन्हें सींचता है
दोमुँही जीभ भी है,
लहू लहू भी खींचता है

किसी दिन चमड़ी को चीर,
आ जायेगा,
सारा का सारा ये काल,
खा जायेगा,
क्या उजला है, क्या काला
समझा जायेगा
शिव का छोड़ा है,
हाथ न आएगा
हर दबे आक्रोश का,
ये सारा नाप है,
अब रहा ये काँप है

रगों में साँप है ।

1 comment:

Anonymous said...

Honestly speaking.. kuch khaas samajh nahi aaya... after reading such stuff, I always feel like making you explain them to me.. one of these days, lets please do that!

Oh and I did notice you used the word "Khurdura"... :-)