रांझे और वारिस शाह की
है एक ही हीर ।
हीर से मन लगा बैठा,
रांझे से राकीबी जमा बैठा,
सुख़न का 'वारिस' एक
क्या ज़फर, क्या मीर ।
"होंठ सुरख याकूत जिऊँ लाल चमकण ठोडी सेब वालईती सार विच्चों,
दंद चम्बे दी लड़ी कि हंस मोती दाणे निकले हुसन अनार विच्चों "
सुन लेती जो हीर ये,
सांस गँवा जाती,
रांझे के चेहरे कि सुर्खी,
पल में हवा हो जाती
रांझे कि नज़र से तेज़
हैं वारिस के लफ्ज़-तीर ।
रांझे ने जो जोग लिया,
वारिस ने भी रोग लिया
एक कड़ी का उसका इश्क़
एक कड़ी इसका जुनूं
दोनों की तक़दीर,
जैसे बांधे ज़ंजीर ।
रिवायत है हिज्र की पंजाब में,
जाने कितने आशिक़
डूबे हैं ख़ूबसूरत चेनाब में
इस देस के हर पत्थर पे,
हर आशिक़ की है एक लक़ीर ।
रांझा जिया हीर के वास्ते
वारिस ने तो जी है हीर
हर वर्क से ख़ुशबू आती है
हर हर्फ़ में घुली है हीर ।
राँझा मर के पा गया हीर,
वारिस ने तो जी है पीर
क्यूंकि है एक ही हीर ।
दोनों की है एक ही हीर ।
Sunday, December 18, 2011
Friday, December 9, 2011
चार दीवार
दर्द से बचने को,
ख़ुद के चारों ओर,
दीवार बना, छुप बैठा था,
जब देखा के दर्द बगल में ही,
कुर्सी डाले बैठा है,
तो बदहवासी पे आई हंसी
दीवार उठा के बैठ गए,
छत क्या चाचा डालेंगे ?
ख़ुद के चारों ओर,
दीवार बना, छुप बैठा था,
जब देखा के दर्द बगल में ही,
कुर्सी डाले बैठा है,
तो बदहवासी पे आई हंसी
दीवार उठा के बैठ गए,
छत क्या चाचा डालेंगे ?
Thursday, December 8, 2011
कुछ और
कहते हैं फ़र्क मेरे अंदाज़-ए-बयाँ का है,
मगर मैं कहता कुछ हूँ, वो समझते हैं कुछ और ।
न जाने क्या दर्द दफ़्न हैं सीने में,
अश्क़ बहते हैं तो ये सुलगते हैं कुछ और ।
हर लफ्ज़ से इश्क़ छलकता है,
शायद मैं समझता हूँ कुछ और, वो कहते हैं कुछ और ।
दुनिया, रंज, मलाल, इश्क़ को रो लिए बहुत
दोबारा पढ़ो, ये लफ्ज़ कहते हैं कुछ और ।
मगर मैं कहता कुछ हूँ, वो समझते हैं कुछ और ।
न जाने क्या दर्द दफ़्न हैं सीने में,
अश्क़ बहते हैं तो ये सुलगते हैं कुछ और ।
हर लफ्ज़ से इश्क़ छलकता है,
शायद मैं समझता हूँ कुछ और, वो कहते हैं कुछ और ।
दुनिया, रंज, मलाल, इश्क़ को रो लिए बहुत
दोबारा पढ़ो, ये लफ्ज़ कहते हैं कुछ और ।
Friday, December 2, 2011
रंज का रोशनदान
मसर्रत के सौ दरीचे,
रंज को काफ़ी है एक रोशनदान ।
दरीचों पे परदे लगा कर,
मसर्रत को हर कोई मौका देता है,
अन्दर आने की इजाज़त मांगने का,
रोशनदान से रंज, बिन बुलाये आ बैठता है
जाने कौन मेज़बान, कौन मेहमान ।
आज कल तो हम,
छोटे छोटे flats में रहने लगे हैं,
इनमें रोशनदान नहीं होते
अब इजाज़त तो रंज को भी लेनी पड़ती है ।
पर इसके गुरूर का कोई क्या करे?
बाप का राज समझ कर
आदत से मजबूर,
ये बेदस्तक आ बैठता है
कैसे बदले कोई पहचान ?
जिन्होंने ये flats बनाये हैं,
उन्होंने रंज के रोशनदान बंद नहीं किये,
उनके लिए बड़े बड़े दरीचे खोल दिए हैं ।
मगर रंज को तो काफ़ी है एक रोशनदान ।
Opening couplet by Garima.
रंज को काफ़ी है एक रोशनदान ।
दरीचों पे परदे लगा कर,
मसर्रत को हर कोई मौका देता है,
अन्दर आने की इजाज़त मांगने का,
रोशनदान से रंज, बिन बुलाये आ बैठता है
जाने कौन मेज़बान, कौन मेहमान ।
आज कल तो हम,
छोटे छोटे flats में रहने लगे हैं,
इनमें रोशनदान नहीं होते
अब इजाज़त तो रंज को भी लेनी पड़ती है ।
पर इसके गुरूर का कोई क्या करे?
बाप का राज समझ कर
आदत से मजबूर,
ये बेदस्तक आ बैठता है
कैसे बदले कोई पहचान ?
जिन्होंने ये flats बनाये हैं,
उन्होंने रंज के रोशनदान बंद नहीं किये,
उनके लिए बड़े बड़े दरीचे खोल दिए हैं ।
मगर रंज को तो काफ़ी है एक रोशनदान ।
Opening couplet by Garima.
Subscribe to:
Posts (Atom)