कह गए पंडित, संत सभी,
मैला गंद, कपटी संसार,
मोक्ष मिले, मन धुले,
पञ्च-स्नानी, कह गए महा ग्यानी,
जो करना हो बेड़ा पार,
तो सब तीर्थ बार बार,
गंगा सागर एक बार ।
भगीरथ कुल का एक युवराज,
छोड़ कर सारे राज - काज,
शिव वंदन में जुट गया,
फिर निकली गंगा,
बैकुंठ का द्वार भी उठ गया।
एक डुबकी कर दे संहार,
सब तीर्थ बार बार,
गंगा सागर एक बार।
पाप धुले, पापी का क्या?
हर साल, पापी वही, पाप नया
बुद्धू हैं हम, न समझे,
थक गए कहते संत सभी,
वही बात है, सोचो फिर,
जब डुबकी ले, इस बार वो,
सर पर उसके हाथ धरो,
५ नहीं, १० नहीं, १०० तक गिनो,
सब तीर्थ बार बार,
गंगा सागर एक बार ।
आये थे नंगे, गए हैं नंगे,
सारे बोलो हर हर गंगे!
Sunday, January 23, 2011
Wednesday, January 19, 2011
अक्खां दे रोज़े
चढ़ कोठे उत्ते तक्दी हाँ राह्वा,
सुंजे सुपने, सुन्जियाँ ने बाहवां,
धड़कन चलदी रुक्के, रुक रुक चल्ले,
राँझा वेहड़े वदेया,
अक्खां दे रोज़े मुक्क चल्ले ।
लोक्की कहंदे कमली मैनू,
मैं हिक्क नु न लाया,
राँझा मेरा - जग मेरा,
बचेया जो, सब मोह माया
नज़रान दी प्यास लुक चले
अक्खां दे रोज़े मुक्क चल्ले ।
सुंजे सुपने, सुन्जियाँ ने बाहवां,
धड़कन चलदी रुक्के, रुक रुक चल्ले,
राँझा वेहड़े वदेया,
अक्खां दे रोज़े मुक्क चल्ले ।
लोक्की कहंदे कमली मैनू,
मैं हिक्क नु न लाया,
राँझा मेरा - जग मेरा,
बचेया जो, सब मोह माया
नज़रान दी प्यास लुक चले
अक्खां दे रोज़े मुक्क चल्ले ।
Wednesday, January 5, 2011
सेहर तो नहीं
ये दाग़, दाग़ उजला, ये शब्गजीदा सेहर,
वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सेहर तो नहीं ।
उनके शेहेर की आब-औ-हवा हमें पहचानती है
मगर अब पहले जैसा ये शेहर तो नहीं ।
फुरकत में सांस आती है एहसान जता कर,
फिर भी ये कज़ा, ये क़ेहर तो नहीं ।
उँगलियों के आफ़ताब की सेहर कहाँ,
वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सेहर तो नहीं
इश्क़ के लिए कोई जगह मुक्कम्मल कहाँ,
किधर हो सफ़र, ठहर कहाँ ।
शब सा धुंधला उजाला चार-सू
ग़म कहाँ असर कहाँ ।
वो हसरत कहाँ, उम्मीद कहाँ,
वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सेहर तो नहीं ।
वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सेहर तो नहीं ।
उनके शेहेर की आब-औ-हवा हमें पहचानती है
मगर अब पहले जैसा ये शेहर तो नहीं ।
फुरकत में सांस आती है एहसान जता कर,
फिर भी ये कज़ा, ये क़ेहर तो नहीं ।
उँगलियों के आफ़ताब की सेहर कहाँ,
वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सेहर तो नहीं
इश्क़ के लिए कोई जगह मुक्कम्मल कहाँ,
किधर हो सफ़र, ठहर कहाँ ।
शब सा धुंधला उजाला चार-सू
ग़म कहाँ असर कहाँ ।
वो हसरत कहाँ, उम्मीद कहाँ,
वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सेहर तो नहीं ।
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