चार दिन मांग कर लाये थे उम्र-ए-दराज़ से
दो आरज़ू में कट गए, दो इंतज़ार में ।
मुहब्बत से शुरुआत हुई, अक़ीदत तक बात गयी,
बेबसी हमारी है इस इखतियार में ।
उम्र गयी पर शौक़ रह गया,
काम आएगा शायद अब ये क़रार में ।
महसूस से परे है ये सिलसिला,
आएगा कहाँ अब ये अशआर में ।
रूह पर नक्श रह जायेंगी बातें
पा जायेंगे खुल्द इस बार में ।
Friday, January 22, 2010
Thursday, January 21, 2010
अधूरा ही पूरा है
अधूरा ही पूरा है ।
जुस्तुजू सी है आँखों को,
आरज़ू को पंख लगे,
धूल उड़ाते कारवां में,
हम खुद अपने संग चले,
मुकाम पर पहुँचने की जल्दी है,
मुकाम क्या है - पता नहीं,
सच का चेहरा धुंधला,
मट-मैला है, भूरा है
अधूरा ही पूरा है ।
कई सवालों के जवाब नहीं,
कहीं हक़ीक़त कम है,
कहीं ख़्वाब नहीं
लोग तराज़ू लिए बैठे हैं
आता उन्हें हिसाब नहीं,
नज़र को रोक पाए,
ऐसा कोई हिजाब नहीं,
हर उम्मीद अधपकी है,
हर बात अधूरी,
क्यूंकि अधूरा ही पूरा है ।
अंत एक पल है,
ता-उम्र ये सफ़र है,
हर रिश्ता अंत से जुड़ता है,
अंत से पहले ही वो ख़तम है
हर किसी का सच अलग है,
हर किसी का झूठ अधूरा है
अधूरे सारे जज़्बात छोड़ कर,
नए जज़्बात जन्म लेते हैं,
हर अधूरे रिश्ते से,
सब रिश्ता सा बना लेते हैं,
विश्वास पूरे से अब उठ चला है,
क्यूंकि अधूरा ही पूरा है ।
आधा सफ़र पूरा किया,
फिर घूम कर वही सफ़र दोबारा किया,
एक आधा जब दो बार किया,
समझा वो हो गया पूरा है
क्यूंकि अधूरा ही पूरा है ।
हर वादे में हम,
मुकर आये हैं,
जहाँ से शुरू किया था,
फिर एक बार
उधर आये हैं,
जितनी गहराई उतरी थी,
फिर एक बार
उभर आये हैं,
कई ख़्वाब अधूरे हैं,
कई जवाब अधूरे,
पर अधूरा ही पूरा है ।
जुस्तुजू सी है आँखों को,
आरज़ू को पंख लगे,
धूल उड़ाते कारवां में,
हम खुद अपने संग चले,
मुकाम पर पहुँचने की जल्दी है,
मुकाम क्या है - पता नहीं,
सच का चेहरा धुंधला,
मट-मैला है, भूरा है
अधूरा ही पूरा है ।
कई सवालों के जवाब नहीं,
कहीं हक़ीक़त कम है,
कहीं ख़्वाब नहीं
लोग तराज़ू लिए बैठे हैं
आता उन्हें हिसाब नहीं,
नज़र को रोक पाए,
ऐसा कोई हिजाब नहीं,
हर उम्मीद अधपकी है,
हर बात अधूरी,
क्यूंकि अधूरा ही पूरा है ।
अंत एक पल है,
ता-उम्र ये सफ़र है,
हर रिश्ता अंत से जुड़ता है,
अंत से पहले ही वो ख़तम है
हर किसी का सच अलग है,
हर किसी का झूठ अधूरा है
अधूरे सारे जज़्बात छोड़ कर,
नए जज़्बात जन्म लेते हैं,
हर अधूरे रिश्ते से,
सब रिश्ता सा बना लेते हैं,
विश्वास पूरे से अब उठ चला है,
क्यूंकि अधूरा ही पूरा है ।
आधा सफ़र पूरा किया,
फिर घूम कर वही सफ़र दोबारा किया,
एक आधा जब दो बार किया,
समझा वो हो गया पूरा है
क्यूंकि अधूरा ही पूरा है ।
हर वादे में हम,
मुकर आये हैं,
जहाँ से शुरू किया था,
फिर एक बार
उधर आये हैं,
जितनी गहराई उतरी थी,
फिर एक बार
उभर आये हैं,
कई ख़्वाब अधूरे हैं,
कई जवाब अधूरे,
पर अधूरा ही पूरा है ।
Wednesday, January 6, 2010
अमन की आशा
नज़र में रहते हो जब तुम नज़र नहीं आते
ये सुर बुलाते हैं जब तुम इधर नहीं आते
गुरूर रोकेगा फिर से... फिर भी
अड़ा रहेगा अबके जिद्द पर ये दिल भी
थमे रहेंगे अश्क आँखों में
धुंधला कर देंगे फासला
इश्क के लिए काफी है इश्क ही
नहीं लगता हौंसला
न राह देखते, न आवाज़ लगाते,
सालों पहले तन्हा कर, तुम अगर नहीं जाते।
ये सुर बुलाते हैं जब तुम इधर नहीं आते
फिर कागज़ पर दायें से बांयें लिखे कोई,
फिर कांच की सुरमेदानी पर धूप पड़े,
फिर छतें टाप कर, सरहद पार करें,
चूड़ियों पर लिपटे काग़ज़ में ग़ालिब का कलाम दिखे कोई
गोलियों से बने दीवारों पर छेद, तस्वीरों में नज़र आते हैं,
उनमें भर कर आटा, अगरबत्ती लगाए कोई,
गुज़र गए हैं जो पल वो क्यूँ गुज़र नहीं जाते
ये सुर बुलाते हैं जब तुम इधर नहीं आते।
छालिए के छोटे संदूक की हिफाज़त करे कोई,
फिर अपने छालों पर कत्था मले कोई,
फिर सात मात्रा में ग़ज़ल हो,
फिर खाने में खट्टी दाल कल हो,
फिर केसरी गरम दूध के गिलास से,
जाड़ों में हाथ गरम करे कोई,
खजूर, काजू, बादाम का नाश्ता किया,
गर्म अंगूर भी खूब खाए,
कटोरी भर पानी में कत्था भिगोये बैठे हैं,
कमबख्त छाले मगर नहीं आते,
ये सुर बुलाते हैं जब तुम इधर नहीं आते।
पूछते हैं लोग किसका ज्यादा फ़ायदा है,
कमाल है ये मोहब्बत,
नफा, नुक्सान है, क़ायदा है
खैर अब मोहब्बत रही कहाँ,
पर कुछ तो है,
हम उनके, वो हमारे ख्यालों में तो रहते हैं,
हम उनकी, वो हमारी भाषा भी कहते हैं
पर कुछ तो है,
तो इश्क ही नाम दे दो,
गुरूर कहता है, हम कदम बढायें, तो वो भी बढायें,
पर फ़ासला किसी एक के बढ़ने से भी तो तय होगा
हम में और उन में फर्क नहीं है,
कहते हैं तो बहेस होती है,
फर्क है मान कर ही चलो, हाथ बढाए कोई,
फायों से इत्र अब उड़ चला,
इसकी महक को समझे उसके बजाये कोई,
हमारी समझ में वैसे भी ये इतर नहीं आते,
ये सुर बुलाते हैं जब तुम इधर नहीं आते।
ये सुर बुलाते हैं जब तुम इधर नहीं आते
गुरूर रोकेगा फिर से... फिर भी
अड़ा रहेगा अबके जिद्द पर ये दिल भी
थमे रहेंगे अश्क आँखों में
धुंधला कर देंगे फासला
इश्क के लिए काफी है इश्क ही
नहीं लगता हौंसला
न राह देखते, न आवाज़ लगाते,
सालों पहले तन्हा कर, तुम अगर नहीं जाते।
ये सुर बुलाते हैं जब तुम इधर नहीं आते
फिर कागज़ पर दायें से बांयें लिखे कोई,
फिर कांच की सुरमेदानी पर धूप पड़े,
फिर छतें टाप कर, सरहद पार करें,
चूड़ियों पर लिपटे काग़ज़ में ग़ालिब का कलाम दिखे कोई
गोलियों से बने दीवारों पर छेद, तस्वीरों में नज़र आते हैं,
उनमें भर कर आटा, अगरबत्ती लगाए कोई,
गुज़र गए हैं जो पल वो क्यूँ गुज़र नहीं जाते
ये सुर बुलाते हैं जब तुम इधर नहीं आते।
छालिए के छोटे संदूक की हिफाज़त करे कोई,
फिर अपने छालों पर कत्था मले कोई,
फिर सात मात्रा में ग़ज़ल हो,
फिर खाने में खट्टी दाल कल हो,
फिर केसरी गरम दूध के गिलास से,
जाड़ों में हाथ गरम करे कोई,
खजूर, काजू, बादाम का नाश्ता किया,
गर्म अंगूर भी खूब खाए,
कटोरी भर पानी में कत्था भिगोये बैठे हैं,
कमबख्त छाले मगर नहीं आते,
ये सुर बुलाते हैं जब तुम इधर नहीं आते।
पूछते हैं लोग किसका ज्यादा फ़ायदा है,
कमाल है ये मोहब्बत,
नफा, नुक्सान है, क़ायदा है
खैर अब मोहब्बत रही कहाँ,
पर कुछ तो है,
हम उनके, वो हमारे ख्यालों में तो रहते हैं,
हम उनकी, वो हमारी भाषा भी कहते हैं
पर कुछ तो है,
तो इश्क ही नाम दे दो,
गुरूर कहता है, हम कदम बढायें, तो वो भी बढायें,
पर फ़ासला किसी एक के बढ़ने से भी तो तय होगा
हम में और उन में फर्क नहीं है,
कहते हैं तो बहेस होती है,
फर्क है मान कर ही चलो, हाथ बढाए कोई,
फायों से इत्र अब उड़ चला,
इसकी महक को समझे उसके बजाये कोई,
हमारी समझ में वैसे भी ये इतर नहीं आते,
ये सुर बुलाते हैं जब तुम इधर नहीं आते।
Monday, January 4, 2010
अब मुझे कोई
अब मुझे कोई इंतज़ार कहाँ
वो जो बहते थे आबशार कहाँ ।
साथ के लम्हे बटोर के,
दुनिया को उसके हाल पे छोड़ के
निकले थे रस्में तोड़ के,
दीवानगी थी, प्यार कहाँ ।
आदतों को समझा था
समझौता नहीं था
दिल मगर पहले
ऐसे रोता नहीं था
वो जो बहते थे आबशार कहाँ ।
साथ के लम्हे बटोर के,
दुनिया को उसके हाल पे छोड़ के
निकले थे रस्में तोड़ के,
दीवानगी थी, प्यार कहाँ ।
आदतों को समझा था
समझौता नहीं था
दिल मगर पहले
ऐसे रोता नहीं था
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