शजर - ऐ - शौक़ पर खून लगा है ।
फिर कोई मौत हुई है शायद,
फिर टूटी है कोई हिदायत,
अब के शायद जूनून मरा है
शजर - ऐ - शौक़ पर खून लगा है ।
ये वाला किस अरमान का था
ये सिला किस फरमान का था
ये सौदा किसकी जान का था
किसकी झूठी शान का था
किसका ये नाखून लगा है
शजर - ऐ - शौक़ पर खून लगा है ।
काली ठंडक आंखों में थी,
केसर की महक साँसों में थी,
शहेद में लिपटी छुरी हो जैसे,
कसैली मिठास बातों में थी,
सुकून का ख्वाब दिखा कर,
सारा का सारा सुकून ठगा है
शजर - ऐ - शौक़ पर खून लगा है ।
हमने गंवाया है,
ग़म भी हमें नही,
किश्तें भी भरी थी,
मुहाफज़ा भी भरना है
चलो शजर पर कोई रंग तो चढा,
बेरंग सी ये वरना है,
बेहर्फ़ सी थी, कोई मजमून बना है
शजर - ऐ - शौक़ पर खून लगा है ।
Wednesday, September 30, 2009
Saturday, September 19, 2009
कुछ मासूम सा लिखना है
कुछ मासूम सा लिखना है ।
न शब्दों का खेल हो जिसमें,
बस शब्दों का मेल हो जिसमें,
न आंसू हों, न दुःख,
न मुस्कराहट, न सुख,
न मुश्किल हो समझने में,
न हैरत हो पढने में,
न काग़ज़ पर दाग लगे,
कोरा सा, कागज़ पर जो दिखना है,
कुछ मासूम सा लिखना है ।
न हाला-वाद, न छाया-वाद में पड़े,
न मशाल लिए दुनिया से लड़े,
न उत्थान, न पतन की गाथा,
न क्रांति से हो कोई नाता,
न पढ़ कर उसको कोई बदले,
न वाह-वाही दे कोई उसके बदले,
न कोई खरीदे उसको कभी,
न किसी दाम पर उसको बिकना है,
कुछ मासूम सा लिखना है ।
न भाव हों, न घाव हों,
किसी पर न टिप्पणी कसे वो,
न अनचाहे मनमुटाव हों,
न वाक्यों के नीचे बहते,
आधे अधूरे तनाव हों,
न संकरी हो, न गहरी हो,
न एक बात पर ठहरी हो,
न सच का उस पर दबाव हो,
न बोले वो कुछ भी,
न एक बात पर टिकना है
कुछ मासूम सा लिखना है ।
मेरा उस में कोई अंश न हो,
उसका आदि, मध्य, अंत न हो,
मुझ सा उसमें क्रोध न हो,
उसका आदि, मध्य, अंत न हो,
मुझ सा उस में अहम् न हो,
उसका आदि, मध्य, अंत न हो,
मुझ से उस में भ्रम न हों,
उसका आदि, मध्य, अंत न हो,
न मुझ से निकले, न मुझसे बाहर हो,
कागज़ पर दिखे, मेरे अन्दर हो,
न दुविधा, न असमंजस,
न कल्पना, न नवरस,
परस्पर कोई सम्बन्ध न हो,
बेबस सी, निशब्द न हो,
मुझ सी न दिखे, न चले, न बहे,
मेरे मन की बात वो न कहे,
मेरे दिखावों से परे रहे,
भाव, मुझ से, न मरे रहे,
ख़ुद से न हारे, मन को न मारे,
न चाहे वो सारे तारे,
मुझ सी ही, दिखावे की वो संत न हो,
उसका आदि, मध्य, अंत न हो
भीड़ में अलग न उसको दिखना है,
न किसी दाम पर बिकना है,
न किसी बात पर टिकना है,
बस काम उसका सिर्फ़ इतना है
कुछ मासूम सा लिखना है ।
न शब्दों का खेल हो जिसमें,
बस शब्दों का मेल हो जिसमें,
न आंसू हों, न दुःख,
न मुस्कराहट, न सुख,
न मुश्किल हो समझने में,
न हैरत हो पढने में,
न काग़ज़ पर दाग लगे,
कोरा सा, कागज़ पर जो दिखना है,
कुछ मासूम सा लिखना है ।
न हाला-वाद, न छाया-वाद में पड़े,
न मशाल लिए दुनिया से लड़े,
न उत्थान, न पतन की गाथा,
न क्रांति से हो कोई नाता,
न पढ़ कर उसको कोई बदले,
न वाह-वाही दे कोई उसके बदले,
न कोई खरीदे उसको कभी,
न किसी दाम पर उसको बिकना है,
कुछ मासूम सा लिखना है ।
न भाव हों, न घाव हों,
किसी पर न टिप्पणी कसे वो,
न अनचाहे मनमुटाव हों,
न वाक्यों के नीचे बहते,
आधे अधूरे तनाव हों,
न संकरी हो, न गहरी हो,
न एक बात पर ठहरी हो,
न सच का उस पर दबाव हो,
न बोले वो कुछ भी,
न एक बात पर टिकना है
कुछ मासूम सा लिखना है ।
मेरा उस में कोई अंश न हो,
उसका आदि, मध्य, अंत न हो,
मुझ सा उसमें क्रोध न हो,
उसका आदि, मध्य, अंत न हो,
मुझ सा उस में अहम् न हो,
उसका आदि, मध्य, अंत न हो,
मुझ से उस में भ्रम न हों,
उसका आदि, मध्य, अंत न हो,
न मुझ से निकले, न मुझसे बाहर हो,
कागज़ पर दिखे, मेरे अन्दर हो,
न दुविधा, न असमंजस,
न कल्पना, न नवरस,
परस्पर कोई सम्बन्ध न हो,
बेबस सी, निशब्द न हो,
मुझ सी न दिखे, न चले, न बहे,
मेरे मन की बात वो न कहे,
मेरे दिखावों से परे रहे,
भाव, मुझ से, न मरे रहे,
ख़ुद से न हारे, मन को न मारे,
न चाहे वो सारे तारे,
मुझ सी ही, दिखावे की वो संत न हो,
उसका आदि, मध्य, अंत न हो
भीड़ में अलग न उसको दिखना है,
न किसी दाम पर बिकना है,
न किसी बात पर टिकना है,
बस काम उसका सिर्फ़ इतना है
कुछ मासूम सा लिखना है ।
Saturday, September 12, 2009
मैं
एक अरसे बाद कोई ऐसा मिला था,
जो थोड़ा थोड़ा ही मुझ सा था,
मुझ सा ही गुरूर, थोड़ा कम ज़रूर,
कुछ और था जो एक सा था,
मेरी ही तरह, ख़ुद की खुशी से वो भी जलता था ।
जो थोड़ा थोड़ा ही मुझ सा था,
मुझ सा ही गुरूर, थोड़ा कम ज़रूर,
कुछ और था जो एक सा था,
मेरी ही तरह, ख़ुद की खुशी से वो भी जलता था ।
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