Friday, May 8, 2009

शाम

शाम पड़ी है बिस्तर पर ।

जाती हुई किरणें जला गई,
सारा बदला चुका गई,
ज़ख्म सारे हैं लाल लाल,
गहरा वार हुआ है जैसे सर पर,
और अब शाम पड़ी है बिस्तर पर ।

अब जनाज़ा निकलेगा,
सारा गुनाह भी निकलेगा,
हर याद बनी है फफोला,
चमड़ी के नीचे जैसे हो पानी भरा,
पर ये फफोले न फूटेंगे,
अब हर रोज़, इस वक्त, साए न रूठेंगे,
कल की सोच देती है डर,
अब शाम पड़ी है बिस्तर पर ।

बुझी सी यूँ भी रहती थी,
सिर्फ़ सुनती, कुछ न कहती थी,
मन की सारी आग बुझा देती थी,
और आज ख़ुद ही जली पड़ी है,
अम्बर की चादर का लेप मली पड़ी है
छूने से अब इसको मैं भी डरता हूँ,
साथ में, चुप चाप, मैं भी मरता हूँ,
हर घाव बना है नश्तर,
शाम पड़ी है बिस्तर पर ।

कल नया सूरज जब आएगा,
अकेला वापस जाएगा
मलाल रहेगा उम्र भर,
काम करेगा अपने सब्र पर,
उगलेगा यूँ ही आग पर ।

चाँद का फकत इंतज़ार है,
खुली हैं आँखें, आंसूओं का गुबार है,
देखेगी उसको एक नज़र भर,
शाम पड़ी थी बिस्तर पर ।

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