अब तस्सल्ली देना बहुत हुआ ।
कितनी बार इसे प्यार कह झुठलाया है
हर गलती का ज़िम्मा उठाया है,
कितनी बार हालात को दोषी ठहराया है,
कभी उसकी नज़रों से, कभी ख़ुद की,
ख़ुद को आजमाया है,
अब ये गोरख धंधा बहुत हुआ,
अब तस्सल्ली देना बहुत हुआ ।
ज़ुल्म के ज़ौक में यहाँ तक तो,
घसीट लाया हूँ नब्ज़ मैं,
फ़ुर्कत-ऐ-हयात के हाल को,
पर दे न पाया लफ़्ज़ मैं,
ख़ुद पर तरस खाता तो गुरूर मात खाता,
फिर एक बार अब्र,
अँधेरा कर जाता,
ये काला मेला बहुत हुआ,
अब तस्सल्ली देना बहुत हुआ ।
No comments:
Post a Comment