Sunday, August 17, 2008

उम्र

उम्र जलवों में बसर हो, ये ज़रूरी तो नही,
सबकी आहों में असर हो, ये ज़रूरी तो नही ।

कायदा बरता है हमने फुरकत में भी,
पर हर हुक्म की ख़बर हो, ये ज़रूरी तो नही ।

परस्तिश कैद है बुतखानों में,
खुदा काबू में मगर हो, ये ज़रूरी तो नही ।

Tuesday, August 12, 2008

एक और आज़ादी

लो आ गई एक और आज़ादी ।


१५ अगस्त के आस पास, मुझे कुछ हो जाता है,
सारा संयम अकस्मात जैसे खो जाता है,
देश प्रेम उमड़ने लगता है,
सिगनल की लाल बत्ती पर खड़े हुए,
मन विचलित हो, तन से बिछड़ने लगता है,
याद आता है गाँधी मुझको,
'जन गण मन' हवा में छिड़ने लगता है,
इस महीने के वेतन को, व्यर्थ नही करूंगा मैं,
अपनी मासिक किश्तों के साथ,
किसी भूखे का पेट भी भरूँगा मैं,
इस महीने... अ ... अ... चलो अगले महीने ये करूंगा मैं,
गाड़ियों की आवाजों में,
मुझे सुनाई देती है वो क्रांति की पुकार,
बाग़डोर आई थी अपने हाथ, देखता था सारा संसार ।

इतना देश प्रेम २८ सालों में पहले न समझा था मैंने,
एक छोटे से बच्चे से खरीद,
एक तिरंगा अपनी गाड़ी में जड़ दिया ला मैंने,
२० रुपये कहा था, १० में मना लिया था मैंने,
ये उनके नाम है, जिन्होंने खोयी अपनी जवानी थी,
पढ़ी थी एक कविता बचपन में,
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी,

मैंने कहा था, १५ अगस्त के आस पास मुझे कुछ हो जाता है,
सारा संयम अकस्मात जैसे खो जाता है ।

आज सिर्फ़ सुनूंगा, स्वदेस (शाह रुख वाली),
बॉर्डर, हक़ीक़त या परदेस के गाने,
जाऊंगा गीली आँखें लिए, तिरंगे को लहराता देखूँगा,
न्यूज़ चैनल्स पर बमों की ख़बरों से थक,
नए चैनल पर जोधा अकबर देखूँगा ।
ad agencies के दुःख में शामिल हो,
पेपर में आधा अधूरा तिरंगा देखूँगा ।
law है - तिरंगा पेपर में नही छपेगा,
कुछ देर फिर अधिकारियों को कोसूँगा ।
देखूंगा सुबह का दिल्ली में आज़ादी समारोह,
सुनूंगा मुस्कुराता प्रधानमंत्री का भाषण,
देखूँगा रुआंसा हो, सिपाहियों की समाधी,

लो आ गई एक और आज़ादी ।

ये flag hoisting के पेढे, क्यूँ इतने मीठे होते हैं,
मरे से क्यूँ हैं ये फूल झंडे से जो गिरे हैं,
क्या colony वाले रात में ही इन्हें झंडे में बाँध कर सोते हैं ?
ये अगस्त के महीने हर साल बारिश के ही क्यूँ होते हैं ?

चलो कोई चिंता नही है,
कल सब ठीक हो जायेगा,
सारा संयम फिर से मुझको प्राप्त हो जायेगा
तिरंगा अख़बार से, टीवी से, मेरी गाड़ी से लुप्त हो जायेगा
मात्र १० रुपये में मिलता है, अगले साल फिर ले लूँगा,
घर में किताबों के पीछे उसकी जगह भी बना दी,

लो आ गई एक और आज़ादी ।

Sunday, August 3, 2008

तगफ़ुल

तगफ़ुल करना फ़ितरत में तो नही,
पर आज तगफ़ुल करना होगा ।

उन आंखों में रंज ज़्यादा था,
इतने रंज का इल्म हमें न था,
लफ्ज़ ख़बीदा थे,
मायूस थे, आबीदा थे ।
अश्क़ दीवाने थे,
बस अभी बह जाने थे,
इस दिल को ख्वाहिशों से,
उन ख्वाहिशों को दिल से डरना होगा,
तगफ़ुल करना फ़ितरत में तो नही,
पर आज तगफ़ुल करना होगा ।

रंजिशों पे बंदिशें लगी,
काफ़ी तब्दीली थी हरक़त में,
एक मिस्रा निकलेगा वस्ल में,
कई निकलेंगे फ़ुर्कत में,
ऐसा होता है अकीदत में,
या कदम रखा है वहशत में ?
इक्थियार पर एक अशआर करना होगा,
तगफ़ुल करना फितरत में तो नही,
पर आज तगफ़ुल करना होगा ।

एक ही अफ़सोस है,
उन्स फिरदौस है,
ये भी ख़बर है,
अभी आयतों में असर है,
पर शायद इस तगफ़ुल का अंजाम मुक्कद्दर का मरना होगा,
नूर-ऐ-उल्फत-ऐ ख़ुदा अंधेरों से डरना होगा,
उन आंखों का रंज रूह में है,
इस दिल के ग़म का क्या वरना होगा,
क्यूंकि तगफ़ुल करना फितरत में तो नही,
पर आज तगफ़ुल करना होगा ।

तमाम तगफ़ुल तमाम हो ।