आज पैरों के तलवे भीगे से लगते हैं
नाखूनों के आस-पास पड़े पानी के छींटे से लगते हैं
निकली थी खुरदरी ज़मीन पर उसकी तलाश में
उसके एहसास फकत से ये पैर आसमान पर पड़े से लगते हैं
कल गुजरी थी इसी चौराहे से, सड़कें भागती थी,
आज सारे मोड़ खड़े से लगते हैंउँगलियों की गिटियाँ मुलायम सी,
हथेली की रेखाओं के सारे मोड़ नए से लगते हैं
No comments:
Post a Comment