Wednesday, September 14, 2011

तखल्लुस

ग़ुमनाम ही रहूँ मैं तो अच्छा ।

नहीं नहीं... उन गहरे उम्दा शायरों सा नहीं हूँ,
जिन्हें ज़माने का इल्म है,
जो जानते हैं के शायर मर कर ही मशहूर होता है,
और ता-उम्र मग़रूर होता है
पर ग़ुमनाम ही रहूँ मैं तो अच्छा ।

किया क्या है जो कोई नाम लेगा मेरा,
नज़्में और क़लाम वर्कात में क़ैद रह जायेंगे,
सारे ख़याल लफ़्ज़ों के तले दफ़्न रह जायेंगे,
यूँ भी किसे फुर्सत है?
किताबों में ही तमाम रहूँ मैं तो अच्छा
ग़ुमनाम ही रहूँ मैं तो अच्छा ।

ख़ुद पर तरस खाने वाला निक्कम्मा नहीं हूँ,
हर शायर सा हूँ, हर कायर सा हूँ,
असलियत का सामना करने से डरता हूँ
पन्नों की स्याही में जीता,
लफ़्ज़ों में झूठी मौत मरता हूँ,
न तो लिखाई पाक़ है मेरी
न तो ख़याल ख़ाक हैं,
और किसी हारे हुए आशिक़ सा,
मेरे आगे का हर रास्ता भी बंद नहीं है
मेरी शायरी में न तो साहिर,
न फैज़, न ज़फ़र, और न ही ग़ालिब है
न कबीर के दोहों वाली बात,
कालिदास से भी, मेरे छंद नहीं हैं
न वक़्त का सताया हूँ,
न बयां न नुमायाँ हूँ,
हर शायर सी, मेरी आँखें भी मंद नहीं हैं
दरअसल बात ये है के,
बड़ा मामूली सा नाम है मेरा, जो मुझे ख़ासा पसंद नहीं है
इसीलिए ग़ुमनाम ही रहूँ मैं तो अच्छा ।

Sunday, September 11, 2011

छत

पक्की छत से
बारिश के पानी की एक बूँद टपकने लगी थी
कई सालों में पहली बार,
बारिशों से मोहब्बत होने लगी थी ।
बूँद से, सारे कमरे में नमी रहती,
सीलन से शिकायत... पर बरसातों के बाद,
साल भर उसकी कमी रहती ।
पिछली बारिश के बाद,
छत को फिर से पक्का कर दिया
इस बरस, बारिश शायद कुछ कम खूबसूरत लगे ।